Monday, 26 March 2018

कहिनी : मरिया भात

रोज दिन असन आज घलो सुकालू अउ लछनी दुनो परानी ह रोजी-मजदूरी करे बर नाहर के पुलिया बनत राहय उंहा चल दिस। सुकालू के घर के इसथिति अइसे हाबे कि दुनो परानी कमाथे तब घर के चुल्हा जलथे। लछनी के तबीयत अबड़ दिन के खराब रहाय। तभो ले भूख अउ दुख मिटाय बर रोज हकर-हकर कमाय। तभो ले पुलिया के ठेकादार ह सबे मजदूर संग जानवर असन बेवहार करय। लछनी ह काम करत-करत पानी पीये बर थोकन बइठ गे। ओतके बेरा म ठेकादार आगे अउ ओकर हाथ के गिलास ल झटक के धुतकारीस - तुमन बहुत कामचोर हव। इहा पानी पीये बर भर आथव। काम-बुता काही नई करना हे। फेर बपरी लछनी ह तो मजदूर अउ मजबूर आय करय ते करय का। कले चुप पियास म घलो गिलास ल छोड़ दिस। ओ दिन लछनी बुखार के मारे कापत रहाय। रेंगे बर घलो ओकर पांव नई उसलत रिहिस। तभो ले लइकामन के पेट खातिर पूरा ताकत भर अपन पांव ल आघू डाहर बढ़हइस। ले-दे के धमेला के गिट्टी ल उठइस अउ रेंगे ल धरिस। ओतके बेरा लछनी ह फिसल के नाहर ले गिर गे। अब अलहन ह ओकर जिनगी ल ले बर आघू म खड़े रहाय। सबो मजदूर ह देखो-देखो कहिके लछनी करा जोरयागे। तभे सुकालू ह घलो कोन काय होगे कही के भीड़ डहार दउड़िस त देखथे लछनी ह गिरे पड़े हे। सुकालू के आखी ह मूंदा गे। चारों डाहर अंधियारी छागे। सुकालू अउ मजदूर मन ह ठेकादार करन गिस अउ हाथ जोड़ के लछनी ल बचाय के गोहार लगइस। फेर ठेकादार ह न डाक्टर बलइस न एंबुलेंस अउ न कोनो बचाय के उदीम करिस। जियादा बेरा होय के सेती ओकर परान ह छूट गे।
जम्मो मजदूर अउ गांववालेमन मिलके लछनी के अंतिम संस्कार करिस। घर म सुकालू के दू झन लइका मन ह दाई के सुरता अउ भूख म कलहरत रहाय। सुकालू ह घलो अतेक बड़े पहार असन बिपत के मार म मूर्ति बने घर म बइठे रहाय। उही बेरा म ओकर जाति समाज के मुख्या उउ चार झन समाज के मनखे ह उकर घर पहुंचगे। जाति समाज के मुख्या जगमोहन ह सुकालू ल कथे- सुकालू तोर बाई बित गे अउ ते ह मरिया भात के तियारी नई करत हस जी। दस दिन ले नाहवन करे बर परही। अउ पूरा दिन नहवइयामन ल खवाय बर लागही। ओकर बाद दसवा दिन दसगातरा म समाज के जम्मो मनखे ल मरिया भात खवाय ल लागही। तब रोवत सुकालू ह कथे- ददा हो मे ह मोर अउ लइका मनके पेट ल नई भर सकत हंव। लछनी ह परलोक सिधार गे। अब मे ह इही सोचत बइठे हंव कि घर-बार कइसे चलही। तुहीमन बताव मोर ददा। मे का गांव भर के जाति समाज ल कइसे मरिया भात खवा सकहूं। न तो मोर कर खेत-खार हे न क काही जीनिस। जेन ल बेच के खवा सकंव। समाज के मुख्या जगमोहन ह कथे- सुकालू तोला तो मरिया भात खवाय ल परही, तभे लछनी के आतमा ल सांति मिलही। जाति समाज के चार झन आय रहाय उहू मन ह मुख्या के गोठ म हुकारू दे ल धर लिस। तब समाज के मुख्या जगमोहन ह कथे सुकालू तोला खवायच ल परही समाज के परंपरा, परथा अउ नियम ल नई तोड़ सकस। हमर पुरखा मन जे नियम बनाय हे, ओ मन सोच-समझ के बनाय हे। अब ते काही करस मरिया भात ल तो खवाय ल परही। अतना कही के समाज के मुख्या अउ चारो झन ओकर लंगुरेमन सुकालू के घर ले बाहिर निकलगे।
रातभर सुकालू ह मुख्या के बात ल सोचत रहिस कि ए कइसन जाति समाज आय। जे ह मरत आदमी ल मारे के काम करथे। अतेक परथा अउ परंपरा के संसो हे, त काबर एमन समाज के गरीबमन के मदद नई करय। तब फेर मने-मन कहे ल लागथे कि मोर बाई लछनी ह जब बीमार रहिस, त कोनो जाति समाज के मनखे ह घर म पूछे बर नइ अइस। आज मरे के बाद घर म आके बिपत के समय म मरिया भात खवाय ल कहात हे। वाह रे जाति समाज कहिके जब आंखी ल खोलथे। त बेरा ह ऊग जाय रहाय। सुकालू ह कइथे अरे आज के रात ह तो इही बात के संसो म पहागे। तब सोचिस गांव के सरपंच से मदद मांगे जाय।
होवत बिहिनिया सरपंच सुकनंदन के घर गिस। अउ आवाज लगइस दाऊजी हाबव का। तब अबड़ बेरा म सरपंच ह घर ले कोन अव रे बिहिनिया-बिहिनिया ले परेसान करथंव चिल्लावत बाहिर निकलिस। तब सुकालू ह सरपंच ल देखके ओकर पांव म गिर गे। अउ जम्मो बात ल बतइस। तब सरपंच सुकनंदन ह कथे- देख भाई तोर जाति समाज जानय अउ ते जान जी। हमला तुहर समाज के परंपरा अउ परथा म आड़ा नई बनना हे। अतना कही के कपाट ल देके सरपंच ह भीतरी म खुसरगे। तब सुकालू ह रोवत-रोवत गांव के सचिव, तहसीलदार, विधायक, मंतरी, मुखमंतरी अउ सरकारी दफ्तर म मुआवजा बर चक्कर लगइस। फेर न तो ओला मुआवजा मिलिस न कोनो मदद। ओकर हाथ ह जुच्छा के जुच्छा। ऐती लइकामन ह भूख म मरत रहाय। फेर कोनो ह सुकालू अउ ओकर परिवार के मदद नइ करिस। संझा जुआर जब सुकालू ह घर पहुंचिस त लइकामन ह काही खाय के लाय होही कही के झूमगे। फेर सुकालू ह रो परिस कि आज ओ ह अपन अउ अपन लइकामन के पेट नई भर सकत हे। तभो ले ओकर जाति समाज के मन परथा अउ परंपरा के नाम म मरिया भात खवाय बर परेसान करत हे। ये सोचत-सोचत सुकालू ह बइठे रहाय। ततके बेरा फेर समाज के मुख्या जगमोहन ह धमक गे। अउ कहिस सुकालू तैं ह अतेक दिन बिते के बाद भी मरिया भात नइ खवाय हस। दू दिन म मरिया भात खवा देबे। नहीं तो तोर हुक्का पानी बंद कर दे जाही। कही के ओकर घर ले निकल गे। 
सामाजिक बहिष्कार के बात ल सुनके सुकालू ह अचेत असन हो गे।  अब ओला लछनी के सुरता अउ समाज के परताड़ना ह जियाने ल धर लिस। अब सोचे ल लागिस अइसन समाज म जी के का करहूं कही के। होवत बिहिनिया डोर ल धर के नवा तरिया डाहर गिस। परसा के पेड़ म फांसी अरोवत रहिस। जब गला म डोर ल डारिस ओतके बेरा म गांव के गुरुजी ह नाहे बर तरिया जावत रहिस। ओ ह सुकालू ल देखके दउड़िस अउ डोर ल निकाल के सुकालू ल अलग करिस। तब सुकालू ह कथे- गुरुजी आज मोला झन रोक मे ह ए समाज म जी के का करहूं। जिंहा के सियान ह मदद के बदला मरे बर मजबूर करथे। सुकालू ह गुरुजी ल जम्मो बात ल बतइस। तब गुरुजी ह कथे हमन तो हाबन जी तोर संग। ते ह काबर संसो करत हस। मैं ह देख लूहूं। तोर समाज के मुख्या ल। तब गुरुजी ह सुकालू ल घर ले के गिस। अउ ओला उपाय बतइस। अउ ओ उपाय ल सुकालू ह मान गे। अउ ओकर उपाय ल सुनके मन ह थोकन हरिया गे।
फेर समाज वालेमन मरिया भात बर बइठक करवइस। बइठक म समाज के मुख्या अउ सदस्य मन कचा-कच सकलाय रहाय। गुरुजी ह घलो सुकालू के पक्छ म बात रखे बर आय रहाय। गुरुजी सरकारी स्कूल म लइका मन ल पढ़ाथे। ओकर सबे झन अबड़ मान सम्मान करथे। फेर गलत करइया जाति समाज के मनखे मन ओकर ले चिड़थे। समाज के मुख्या जगमोहन ह कहिस कइसे सुकालू आज-कल आज-कल करत-करत पंदरही ह बीत गे। अभी ले मरिया भात नई खवाय हस। तब सुकालू ह गुरुजी के बताय गुरु मंतर ल वइसने पढ़थे जइसने बताय रइथे। कहिथे- भइया हो मे ह मरिया भात खवाहूं फेर एक ठोक हमरो पुरखामन ह नियम अउ परथा बनाय हे। ओ ला मानहू त मे ह खवाय बर तियार हंव। अब आपमन बताव। तब समाज के मन मरिया भात खवाय के बात ल सुनके खुस होगे। अउ कहिस कइसन बात ए सुकालू भाई। काबर नइ मानबो जी, बता न। तब सुकालू ह कथे हमर पुरखा मन ह नियम बनाय हे कि दुख के बेरा म जतेक कुटुंब अउ समाज के लोगन मन मरिया भात खाय बर आथे त उकर सुवागत-सत्कार चार-चार कोर्रा (कोड़े) मार के करे जाथे। अतका बात ल सुनके समाज के मुख्या जगमोहन ह आगी असन बरगे। अउ कथे कइसे रे सुकालू तोर आज अतका हिम्मत होगे अंटसंट बात करत हस। ताहन पूरा समाज के सब झन सुकालू बर कांव-कांव करे ल धर लिस।
तब गुरुजी ह कथे- मुख्याजी सुकालू ह बने काहत हे। ओकर पुरखामन के नियम ल मे जानत हंव। उकर घर कोर्रावाला देवता हे। जब कोनो ह परलोक सिधार जाथे त मरिया भात खवइया मन ल कोर्रा मार के देवता ल खुश करे जाथे। अब तुमन ल मरिया भात खाना हे त कोर्रा घलो खाय ल परही। गुरुजी ह समाज अउ ओकर सियानमन ल धुतकारत कहिस- तुमन काकरो मदद नइ कर सकव अउ ओकर परान ल ले बर पीछू पड़े रइथव। आज मे ह एक मिनट भी देरी म तरिया पार म पहुंचतेंव, त ए सुकालू ह दुनिया ल छोड़ के चल दे रतिस। का कोनो समाज ल अधिकार हे कि कोनो मनखे ल फांसी के फंदा म झुलाय बर मजबूर करय। आज मे ह तुहर बर थाना म रिपोट करहूं त सीधा तुमन जेल जाहू। आज मे ह तुमन ल छोड़त हंव। दुबारा अइसन गलती करहू त अनजाम बहुत बुरा होही। अतका डांट ल सुनके समाज के सब मुख्या अउ सियान मन भरभरा के उठ गे। अउ अपन-अपन घर चल दिस।

Monday, 19 March 2018

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज : शहीद भगत सिंह

भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

Friday, 16 March 2018

ऐ भगतसिंह तू जिंदा है

ऐ भगतसिंह तू जिंदा है
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है, हर एक लहू के कतरे में....
हर एक लहू के कतरे में, इंकलाब के नारे में .....
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है, हर एक लहू के कतरे में....


तूने तभ भी बोला था यह आज़ादी नहीं यह धोखा है..
यह पूरी मुक्ति नहीं है यारों, यह गोरों के संग सौदा है ......
इस झूटे जश्न की रौनक में, फंसे हुए किसानो में, रोये हुए जवानों में,....
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है...........
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है, हर एक लहू के कतरे में....


इतिहास में भी हम भूखे थे और आज भी ठोकर खाते हैं...
जिस खादी पर रखा भरोसा वो आज भी धोखा देते है.......
कोई रामनाम बलहार पुमारे, आज भी जाने लेते है.....
अब याद है भगता तेरी आती, आग लगी है सीने में....
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है, हर एक लहू के कतरे में....


अंधेरों का ये तख्त हमें ताकत से अब ठुकराना हैं...
हर सांस जहां लेगी उड़ान उस लाल सुबह को लाना है.....
शहीदों की राह पर मर मिटने की क्रांतिकारी उम्मीदों में...
ऐ भगतसिंह तू जिंदा है, हर एक लहू के कतरे में....
 
- जनगीत