Monday, 30 July 2018

अंधबिसवास के कांवर म लदाय मनखे

जब सावन ह आथे त चारो मूड़ा म हरियर-हरियर दिखथे। ए ला देखके मन ह बड़ उच्छाह ले नाचे ल धर लेथे। फेर का करबे पोंगापंथीमन सावन के महीना ल भूत-परेत, जंतर-मंतर, पूजा-पाठ अउ ठूआ-ठोटका के बता के रंग म भंग कर देहे। बड़े दुख के बात तो ए हरे कि हमर मेहनत-मजदूरी करइया भाईमन अंधबिसवास के कांवर ल धर के रेंगत-रेंगत सिवलिंग म पानी चघाय बर जाथे। भले उकर खेत म पानी पले चाहे मत पले। उकर घर म लइकामन बर दाना-पानी रहाय चाहे मत रहाय। फेर बोलबम के नारा लगावत गांजा-भांग पियत सिव के लिंग के पूजा करे बर जाथे।
हर साल सुने ल मिलथे कि झारखंड के बैजनाथधाम अउ देवघर म भगदड़ म कावरियामन मरत हे। अइसन इकर भक्ति म का कमी आ जथे। भगवान के दरसन करे बर जाथे अउ भगवान ल पियारा हो जथे। ए भक्तमन ल ओकर दाई-ददा अउ ओकर बाई ह झन जा कही के बरजथे तभो ले नइ मानय। घर जइसे पवितर मंदिर अउ दाई-ददा जइसे देवी-देवता ल लतिया के पखरा ल अपन बाप-महतारी समझथे। भले ओकर घरवाली ह तरिया-बोरिंग ले पानी डोहर-डोहर के बीमार पर जही फेर ए कांवरियामन घर के पानी लाय बर नइ सकय। फेर कांवर म पानी धर के डीजे के कानफोड़ू धून म गांजा-भांग पिये अंड-बंड गारी बकत भगवान ल खुस करथे। ए कइसन भगवान आय जउन ह सावन के मरमाड़े बाड़ आवत पानी म घलो भक्तमन ले पानी के मांग करथे। कइ जगह तो कांवरियामन पानी के बाड़ म मर जथे त कई जगह गाज गिरे म सीधा ऊपर के टिकट मिल जथे। फेर महासक्तिसाली महादेव ह अपन भगत ल नइ बचा सकय।


पंजाब के एक मित्र के कहने पर हिंदी में अनुवाद- 
अंधविश्वास के कांवर में दबे लोग

जब सावन का महीना आता है तो प्रकृति पूरी तरह से हरियाली से लद जाती है। इस हरियाली को देखकर मन उत्साह से नाचने लगता है, लेकिन कुछ पोंगापंथियों ने इस महीना को भूत-प्रेत, जादू-मंत्र, पूजा-पाठ और टोने-टोटके का बता कर रंग में भंग कर दिया है। बड़ी दुख की बात तो यह है कि हमारे मेहनत करने वाले मजदूर भाई इस अंधविश्वास में फंसकर कांवर लेकर पैदल कई किलोमीटर चलकर मंदिर के शिवलिंग को पानी चढ़ाते हैं। वे इतने मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं कि अपने घर-परिवार और खेत-खार भी भूल जाते हैं। उनके खेत में सिंचाई नहीं होती और उनके बच्चें भूख से बिलखते रोते रहते हैं, लेकिन बोलबम के नारे लगाते हुए गांजा, भांग और शराब पीकर शिवलिंग की पूजा करते हैं।

हर साल खबर आती है कि झारखंड के बैजनाथधाम, देवघर और अन्य जगहों पर भगदड़ में कांविरयों की मौत हो गई। ऐसी इनकी भक्ति में क्या कमी रह जाती है जो भगवान के दर्शन के लिए गए रहते हैं, लेकिन भगवान को ही प्यारा हो जाते हैं। इस कांवरियों को उनके घर वाले कांवर यात्रा न जाने के लिए बहुत मना करते है, फिर भी नहीं मानते। अपने मां-बाप और पत्नी की एक भी बात न सुनकर पत्थर के शिवलिंग को अपने मां-बाप समझते हैं। इतनी मेहनत करके महादेव पर जल चढ़ाने वाले लोग अपने घर के काम-काज इतने लगन से नहीं करते। उनकी पत्नी और मां घर-परिवार और मवेशियों के लिए तालाब और हैंडपंप से पानी भरती है, लेकिन वही कांवरिया अपने कांवर से इनकी मदद पानी लाने में नहीं करते। भले उनकी मां और पत्नी दिनरात काम के दबाव में बीमार पढ़ जाए, लेकिन इन्हें कोई मतलब नहीं। इन्हें तो सिर्फ शिव और उनके प्रसाद गांजा-भांग खूब पसंद है। कांवर में पानी लेकर डीजे की कानफोड़ू धुन में अश्लील गाली देते हुए भगवान को खुश करते हैं। यह कैसा भगवान है जो हर साल हर सावन भारी बारिश और बाढ़ के दिनों में स्नान करने की मांग करते है। कई जगह जल चढ़ाने जा रहे कांवरिया बाढ़ में और बिजली गिरने से मर जाते हैं। फिर भी महाशक्तिशाली महादेव अपने भक्तों को नहीं बचा पाते।

Wednesday, 18 July 2018

जनता की आवाज ही असली कविता

जिन्हें मैं हमेशा किताबों में पढ़ता हूं, उनसे साक्षात भेंट करने का मौका पुणे के पत्रकार भवन में एक कार्यक्रम के दौरान हुआ। वे हिंदी के मशहूर प्रगतिशील कवि राजेश जोशी है। नवनिर्माण सांस्कृतिक मंच की ओर से 'ए डिस्कशन आन मार्क्सिस्ट परसेप्शन आफ आर्ट एंड लिटरेचर' का आयोजन हुआ। कार्यक्रम में राजेश जी बतौर मुख्य वक्ता शामिल हुए। इस दौरान मुझे उन्हें पहली बार सुनने और उनसे बातचीत करने का अवसर मिला। उनकी 1987 में लिखी कविता 'जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएंगे' आज की स्थिति को बयां करती है। वर्तमान में सही को सही और गलत को गलत कहना आसान नहीं है।
बातचीत के दौरान राजेश जी ने कहा कि आज राजनैतिक माहौल बहुत ही खतरनाक है। नेता अपने स्वार्थ के लिए देश का इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। इस प्रकार उल्टे सीधे बयानबाजी करने वाले और देश को जाति-धर्म के नाम पर बांटने वाले नेताओं की आलोचना करने की बड़ी जिम्मेदारी साहित्यकार, पत्रकार और बुद्धिजीवी वर्ग की है। हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भारी कीमत चुकानी होगी। समाज में जब कभी भी गलत दिखाई दे तो उसकी निंदा करने में बिलकुल भी नहीं घबराना चाहिए। कवि सिर्फ वो नहीं जो कविता लिखते हैं, कवि तो वह है जिनकी लेखनी में जनता की आवाज हो। समाज के अंदर ऐसी दृष्टि हो जो उचित-अनुचित को समझ सके। रचना के लिए दो घटक होते हैं- समय और समाज। इसे देखने के लिए व्यापक और निष्पक्ष निगाहें की जरूरत होती है।
आज पूरी तरह से भेड़ धसान का दौर चल रहा है। विज्ञान की पढ़ाई करने के बाद भी कई लोग विवेकशून्य होकर अंधविश्वास में फंसे हैं। ऐसे डाक्टर बहुत देखने को मिलते है, जो उंगलियों में अंगूठी पहनते हैं और झांड़-फूंक व जादू-टोने पर विश्वास करते हैं। ऐसे व्यक्ति की पूरी पढ़ाई व्यर्थ है। पढ़-लिखकर भी काल्पनिक और अर्नगल बातों पर विश्वास करते हैं। इस प्रकार के मूर्खों का मन को बदलना बहुत ही कठिन काम है। कवि और पत्रकार को चाहिए कि समाज में भ्रम और अंधविश्वास न फैलाकर अपनी पूरी ताकत वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचार को जन-जन तक फैलाने में लगाए। चाहे समाज में विकृत्ति हो या सत्ता में खामियां। इसके खिलाफ बेझिझक और खुलकर लिखना होगा। साहित्य का काम गलत चीजों का हमेशा प्रतिरोध करना है। समाज में जब-जब विकट स्थिति आएगी, तब-तब साहित्य रास्ता दिखाने का काम करेगा।

Wednesday, 4 July 2018

अंधविश्वास की दलदल में भारतीय समाज

जब किसी का मनोबल कमजोर हो जाए और वैज्ञानिक सोच खत्म हो जाए तब वहां अंधविश्वास जन्म लेता है। दुनियाभर में एक से बढ़कर एक खोज हो रही है, लेकिन भारत देश में आज पूजा-पाठ, जादू-टोने, बैगा-गुनिया, ठुआ-टोटके और न जाने क्या-क्या चल रहे हैं। दिल्ली के बुराड़ी संतनगर में एक ही परिवार के 11 सदस्यों ने पूजा-पाठ करते हुए मोक्ष पाने के लिए फांसी लगा कर जान दे दी। घर में मिली चीजें बयां करती है कि यह भाटिया परिवार लगातार तंत्र-मंत्र के कार्य में लिप्त था। यह परिवार तांत्रिक विद्या पर विश्वास रखता था। ललित और उसकी पत्नी टीना ने परिवार के 9 सदस्यों के साथ मौत के मूंह में समा गए। घर की दीवार में पाइप लगाकर 11 छेद करना और सुरक्षा के लिए तीन कील गाढ़कर जदबंदी से अंधविश्वास की पुष्टि होती है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में 11 मौतों का कारण फांसी बताया जा रहा है।
इस प्रकार देशभर में अंधविश्वास बहुत ही खतरनाक रूप से अनपढ़ से लेकर पढ़े-लिखे लोगों को जकड़ा हुआ है। विवेक शून्य होकर जादू-टोने पर विश्वास करने वाले लोग कहीं पर जान दे रहे हैं तो कहीं पर जान ले रहे हैं। देश अंधविश्वास की भारी दलदल में फंसा हुआ है। कहीं पर बारिश के लिए मेढ़क-मेढ़की का विवाह किया जा रहा है। कहीं शांति के लिए जोर-जोर से घंटा और लाउडस्पीकर बजाया जा रहा है। बाजार में नींबू और मिर्च खाने के लिए कम और दुकान और घर में लटकाने के लिए ज्यादा उपयोग किया जा रहा है। सड़क पर नींबू-मिर्च से गाड़ी को बचाने के लिए गिर-मर रहे हैं। सड़क के किनारे कई जगहों पर मंदिर होने से लोग गाड़ी चलाते हुए प्रणाम करने के चक्कर में गिरकर हाथ-पैर तोड़ रहे हैं। कहीं टोनही-डायन के नाम पर महिलाओं की हत्या की जा रही हैं। कहीं बइगा-गुनिया के चक्कर में आकर पैसा लूटा रहे हैं। कई जगह तांत्रिक के कहने पर अपने ही बच्चे की बलि दी जा रही है। आजकल के बच्चे स्कूल में पास होने के लिए पढ़ने में कम और पूजा-पाठ में ज्यादा विश्वास करते हैं। वहीं पालक भी बच्चों को वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचारों से दूर रखकर अंधविश्वास के जाल में फंसा रहे हैं। जब तक वास्तविक दुनिया में काल्पनिक चीजें खत्म नहीं होगी तब तक यह अंधविश्वास लोगों को अपना शिकार बनाता रहेगा।