Saturday, 24 August 2024

मृत्युभोज क्यों


मनुष्य के मरने के कुछ दिनों के बाद अलग से उनके परिवार वालों के द्वारा मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज कराए जाते हैं। जिसमें संगासंबंधित और गांव, समाज के लोग उपस्थित होते हैं। और कर्मकांड के बाद बड़ी दुख के साथ भोजन किया जाता है। कहीं-कहीं इसे तेरहवीं भोज भी कहा जाता है।

क्या मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है?

मृत्यु भोज से या तेरहवीं से मरे हुए व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि आत्मा नाम की कोई चीज होती ही नहीं। हां जिंदा व्यक्ति का मन होता है, कई लोग इसे ही आत्मा कहते हैं, अगर इस आत्मा की बात करे तो मरने के बाद व्यक्ति के मन खत्म हो जाता है। मन में कोई बात रहती है या कोई इच्छा रहती है वे पूरी नहीं हो पाती होगी।

कोई आत्मा भटकती नहीं

अगर मृत्यु भोज नहीं कराया गया तो आत्मा भटकती है, ऐसा कहने वालों जरा सोचिए आत्मा और भूत-प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती। ये सब आपके मन का भ्रम मात्र है। इसके अलावा कुछ नहीं। अगर आत्मा भटकती तो कोई व्यक्ति की हत्या कर देते हैं, जिसकी पुलिस जांच पड़ताल करती है उस समय तो उस आत्मा को बता देना चाहिए कि किसने मारा है।

हां मृत्यु में व्यापार करने वालों का मन जरूरत भटकता है

कुछ लोगों को मरे हुए के लाश से भी कर्मकांड के नाम पर व्यापार दिखता है, ऐसे लोगों का मन जरूर भटकता है। ऐसे लोगों को कर्मकांड के नाम पर मृत व्यक्ति के परिवार वालों को जले में नमक-मिर्च छिड़कने में मजा आता है। ऐसा नहीं करोगे तो आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, आत्मा भटकेगी वगैरा-वगैरा कहकर दुखी लोगों को और दुख में डाल देता है।

दुख में उत्सव कैसे

चलो मान लेते है खाना तो है किसी के पेट तो भर रहा है, लेकिन सवाल यह उठता है कि मृतक के परिवार दुख में रहता है, किसी को मेहमान नवाजी करने की सुध नहीं रहती। ऐसी स्थिति में लोगों को स्वादिष्ट भोजन खिलाना संभव नहीं है। बीमारी से मरे हुए मृतक का परिवार आर्थिक रूप से पहले से ही कमजोर हो गया होता है। बहुत से पैसे इलाज में खर्च हो गए होते हैं ऐसी परिस्थिति में पूरा मैनेजमेंट के साथ भोजन कराना संभव नहीं होता है।

मजबूरी में भी मृत्यु भोज कराया जाता है

बहुत से मृत व्यक्ति के परिवार वाले इतना दुखी रहते हैं कि बेमन मृत्यु भोज कराते हैं। वे आसपास और समाज के लोग क्या कहेंगे सोचकर मृत्यु भोज कराते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो लोग उसे कंजूस कहेंगे. साथ ही कहेंगे कि वह कैसा आदमी है, जो अपने पिता के मरन पर भी उसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ किया नहीं. वह कितना पैसा बचा लेगा। ऐसे ही तरह-तरह के लोग ताना मारने लगते हैं। इसके चलते भी कई लोग मजबूरी में मृत्यु भोज कराते हैं।

जितना खिलाना है जिंदा खिलाएं, जिससे मन को शांति मिले

मृत्यु के बाद आत्म को शांति के लिए मृत्यु भोज कराना उचित नहीं है। इससे अच्छा है जिंदा में ही उससे अच्छे से व्यवहार करने के साथ अच्छा भोजन, कपड़ा जीते जी देना चाहिए। मरने के बाद सब कुछ खत्म हो जाता है। मृत्यु के बाद अगर आप रो-रोकर अच्छा भोजन, वस्त्र, आवश्यक सामग्री आत्मा के नाम से ब्राम्हण-पुरोहित को देंगे तो कोई फायदा नहीं। इसका फायदा पुरोहित को ही होगा। आत्मा के नाम से भेंट की गई सामग्री पुरोहित के परिवार वाले उपयोग कर के अच्छा जीवन जीएंगे।

दूर से आए मेहमान के लिए भोजन

शोक में शामिल होने के लिए दूर से आए मेहमान के लिए भोजन की व्यवस्था करनी एकदम जरूरी नहीं है, लेकिन स्थिति के अनुसार कर सकते हैं, क्योंकि बहुत दूर से आए मेहमान को खाली पेट भेजना ठीक नहीं है। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया खाने को मेहमान को खा लेना चाहिए, अलग से मृत्यु भोज या तेरहवीं करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

मृत्यु भोज के लिए कुछ लोग आर्थिक सहयोग देते हैं

बेहतर होगा जिंदा व्यक्ति जब बीमारी से गुजर रहा होता है उस समय मरीज और उसके परिवार वालों के साथ खड़े रहें। जितना हो व्यवहारिक, सामाजिक और आर्थिक सहयोग करें। क्या पता ऐसे करने से उस व्यक्ति का जीवन बच जाए। मरने के बाद कौन रो रहा है मरे हुए को क्या पता?

-मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)

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