जिंदगी में कठिनाई है, लेकिन इसे भगवान भरोसे छोड़ी नहीं जा सकती। मुसीबत क्यों आई है इसे समझना होगा, फिर संकट से निकलने के लिए हाथ-पैर मारना होगा। तब कही जाकर परेशानी दूर हो पाएगी। भगवान भरोसे चलकर कोई भी व्यक्ति मुसीबत से नहीं निकल पाए है, इसलिए कहते हैं भगवान भरोसे मतलब जिसका कोई भरोसा नहीं। इसके भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार कई लोग किस्मत और भगवान भरोसे बैठ जाते हैं। फिर क्या बाद में इन्हें पछताना पड़ता है और ऐसे लोग असफल होने के बाद भी खुद को दोषी नहीं मानते, बल्कि अपनी किस्मत को कोसते चुप बैठ जाते हैं. कामचाेर लोग कहने लगते हैं कि किस्मत में यही लिखा था और भगवान की यही मर्जी थी। ऐसा कहकर अपनी गलती और आलस्य को छुपा लेते हैं। यह कभी नहीं कहता कि मैं समय रहते उस समस्या से निकलने की कोशिश नहीं की। हाथ में हाथ धरे बैठा रहा।
आप ही बताए अगर आपको मानसिक या शारीरिक रूप से थोड़ा सा भी अच्छा न लगे तब आप क्या करेंगे? क्या आप यह सोचकर कि जो किस्मत में लिखा है वहीं होगा या भगवान की यही मर्जी है बोलकर कुछ नहीं करेंगे? या तुरंत किसी विशेषज्ञ के पास जाकर दिखाएंगे? कितना भी कट्टर धार्मिक किस्मत में विश्वास करने वाला हो मुसीबत के समय मंदिर-मस्जिद में समस्या का हल नहीं खोजेगा, न ही भगवान भरोसे घर में बैठेगा। वह दौड़कर अस्पताल ही जाएगा और कहेगा बुरे वक्त में किस्मत ने साथ दिया तब बचा हूं, भगवान ने बचा लिया, नहीं तो मैं मर ही जाता। इसी को कहते हैं दोगलेपन।
ज्ञान के लिए स्कूल जरूरी, धार्मिक स्थल नहीं
जानकर व्यक्ति अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में इसलिए पढ़ने भेजते है, क्योंकि उसके बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक वैगेरा बने। जब उनको भगवान और भाग्य में भरोसा है तो उनको स्कूल-कॉलेज की जरूरत ही क्यों? भाग्यवादी लोग तो कहते हैं कि भगवान के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तो ऐसे लोगों को पढ़ने लिखने का क्या काम। उन्हें सोचना चाहिए कि किस्मत या भगवान ने चाहा तो हमें खुद-ब-खुद ज्ञान आ जाएगा। जिसको जो बनना होगा किस्मत ने चाहा तो बन जाएगा। किस्मत ने चाहा तो बिना परीक्षा के पास हो जाएंगे. ऐसे सोचने वालों को तो पढ़ने और परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
धार्मिक माहौल विवेक को कर रहा खत्म
इस मूर्खता का प्रभाव ज्यादातर गरीब लोगों में पढ़ रहा है। गरीब व्यक्ति आज शिक्षा से कोसों दूर है, अगर सरकारी स्कूल के भरोसे शिक्षा के लिए दाखिला हो भी जाता है तो उस बच्चे को बराबर क्लास लेने वाले टीचर नहीं मिलते। ऐसे में बच्चे दाल-भात तक सीमित हो जाते हैं। बच्चा अगर घर में पढ़ना भी चाहेगा तो आस-पास के वातावरण उसे पढ़ने नहीं देगा। इस समस्या से हर गरीब के बच्चे जूझते हैं। आस-पास का वातावरण पढ़ने योग्य नहीं मिलता है। दो वक्त की रोटी से अगर फुरसत मिल जाए तो धार्मिक क्रिया-कलाप उसे पढ़ने नहीं देता। सुबह उठते ही धार्मिक गाने के साथ ठन-ठन की आवाज में घंटी बजना चालू हो जाता है तो कहीं नमाज की आवाज सुनाई देती है। गणेश पर्व में ग्यारह दिनों के लिए गणेश पंडाल, दुर्गा पर्व में नौ दिन उपवास के साथ नंगे पैर चलकर पंडाल के आस पास भटकना और कानफाड़ू डीजे के शोर में नाचने का दौर चलता रहता है। सावन आते ही कवाड़ लेकर नंगे पैर बीच सड़क पर जोर-जोर से आवाज करते चलना। गरीब के बच्चे पढ़ना छोड़ दिवाली में जुआ और पटाखे के लिए पैसे इकठ्ठा करने दूसरों के घर की सफाई के लिए चले जाते हैं, घर वालों को भी लगता है कि बच्चा दिवाली के लिए पैसे एकत्र कर रहा है, इससे घर में कुछ तो सहयोग होगा।
प्राथना से नहीं पढ़ाई से होंगे बच्चे पास
इस प्रकार होली आते-आते पढ़ने का पूरा समय निकल जाता है। परीक्षा भी खत्म होने की स्थिति में रहती है। फिर परीक्षा के समय ऐसे छात्र दोस्तों से कहता फिरता है यार मेरी तो कुछ तैयारी ही नहीं हुई, टीचर ने ठीक से क्लास नहीं ली या सेलेबस पूरा नहीं किया। समय नहीं होने के कारण पढ़ नहीं पाया। घर वालों ने बहुत काम करवाया। यहां तक खेत में काम कराने भी ले गया वगैरह-वगैरह। बहुत से बच्चे को ऐसा भी लगता है कि भगवान ने चाहा तो उसे पास करा देंगे, इसलिए भी नहीं पढ़ता। माता-पिता पूजा-पाठ करते देख बच्चे भी भगवान से प्राथना करते हैं कि हे प्रभु पास करा देना नारियल के साथ लड्डू चढ़ाऊंगा।
भगवान भरोसे छात्र हो जाते हैं फेल
जब परीक्षा का रिजल्ट आता है तब फेल होते ही छात्र कहने लगता है कि किस्मत ने साथ नहीं दिया और भगवान ने धोखा दिया। बहुत पूजा-पाठ करने के बाद भी फेल हो गया। यही प्रभु की इच्छा थी। फेल होना मेरी किस्मत में थी इसलिए फेल हो गया आदि। यह नहीं कहता कि मैं मेहनत नहीं किया। किस्मत और भगवान भरोसे बैठा था या बहुत ज्यादा काम होने के कारण पढ़ाई नहीं कर पाया। इसीलिए किस्मत या भगवान भरोसे बैठने की बजाय मेहनत और ईमान पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
-टिकेश कुमार, अध्यक्ष एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)
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