Saturday, 24 August 2024

मृत्युभोज क्यों


मनुष्य के मरने के कुछ दिनों के बाद अलग से उनके परिवार वालों के द्वारा मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज कराए जाते हैं। जिसमें संगासंबंधित और गांव, समाज के लोग उपस्थित होते हैं। और कर्मकांड के बाद बड़ी दुख के साथ भोजन किया जाता है। कहीं-कहीं इसे तेरहवीं भोज भी कहा जाता है।

क्या मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है?

मृत्यु भोज से या तेरहवीं से मरे हुए व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि आत्मा नाम की कोई चीज होती ही नहीं। हां जिंदा व्यक्ति का मन होता है, कई लोग इसे ही आत्मा कहते हैं, अगर इस आत्मा की बात करे तो मरने के बाद व्यक्ति के मन खत्म हो जाता है। मन में कोई बात रहती है या कोई इच्छा रहती है वे पूरी नहीं हो पाती होगी।

कोई आत्मा भटकती नहीं

अगर मृत्यु भोज नहीं कराया गया तो आत्मा भटकती है, ऐसा कहने वालों जरा सोचिए आत्मा और भूत-प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती। ये सब आपके मन का भ्रम मात्र है। इसके अलावा कुछ नहीं। अगर आत्मा भटकती तो कोई व्यक्ति की हत्या कर देते हैं, जिसकी पुलिस जांच पड़ताल करती है उस समय तो उस आत्मा को बता देना चाहिए कि किसने मारा है।

हां मृत्यु में व्यापार करने वालों का मन जरूरत भटकता है

कुछ लोगों को मरे हुए के लाश से भी कर्मकांड के नाम पर व्यापार दिखता है, ऐसे लोगों का मन जरूर भटकता है। ऐसे लोगों को कर्मकांड के नाम पर मृत व्यक्ति के परिवार वालों को जले में नमक-मिर्च छिड़कने में मजा आता है। ऐसा नहीं करोगे तो आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, आत्मा भटकेगी वगैरा-वगैरा कहकर दुखी लोगों को और दुख में डाल देता है।

दुख में उत्सव कैसे

चलो मान लेते है खाना तो है किसी के पेट तो भर रहा है, लेकिन सवाल यह उठता है कि मृतक के परिवार दुख में रहता है, किसी को मेहमान नवाजी करने की सुध नहीं रहती। ऐसी स्थिति में लोगों को स्वादिष्ट भोजन खिलाना संभव नहीं है। बीमारी से मरे हुए मृतक का परिवार आर्थिक रूप से पहले से ही कमजोर हो गया होता है। बहुत से पैसे इलाज में खर्च हो गए होते हैं ऐसी परिस्थिति में पूरा मैनेजमेंट के साथ भोजन कराना संभव नहीं होता है।

मजबूरी में भी मृत्यु भोज कराया जाता है

बहुत से मृत व्यक्ति के परिवार वाले इतना दुखी रहते हैं कि बेमन मृत्यु भोज कराते हैं। वे आसपास और समाज के लोग क्या कहेंगे सोचकर मृत्यु भोज कराते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो लोग उसे कंजूस कहेंगे. साथ ही कहेंगे कि वह कैसा आदमी है, जो अपने पिता के मरन पर भी उसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ किया नहीं. वह कितना पैसा बचा लेगा। ऐसे ही तरह-तरह के लोग ताना मारने लगते हैं। इसके चलते भी कई लोग मजबूरी में मृत्यु भोज कराते हैं।

जितना खिलाना है जिंदा खिलाएं, जिससे मन को शांति मिले

मृत्यु के बाद आत्म को शांति के लिए मृत्यु भोज कराना उचित नहीं है। इससे अच्छा है जिंदा में ही उससे अच्छे से व्यवहार करने के साथ अच्छा भोजन, कपड़ा जीते जी देना चाहिए। मरने के बाद सब कुछ खत्म हो जाता है। मृत्यु के बाद अगर आप रो-रोकर अच्छा भोजन, वस्त्र, आवश्यक सामग्री आत्मा के नाम से ब्राम्हण-पुरोहित को देंगे तो कोई फायदा नहीं। इसका फायदा पुरोहित को ही होगा। आत्मा के नाम से भेंट की गई सामग्री पुरोहित के परिवार वाले उपयोग कर के अच्छा जीवन जीएंगे।

दूर से आए मेहमान के लिए भोजन

शोक में शामिल होने के लिए दूर से आए मेहमान के लिए भोजन की व्यवस्था करनी एकदम जरूरी नहीं है, लेकिन स्थिति के अनुसार कर सकते हैं, क्योंकि बहुत दूर से आए मेहमान को खाली पेट भेजना ठीक नहीं है। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया खाने को मेहमान को खा लेना चाहिए, अलग से मृत्यु भोज या तेरहवीं करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

मृत्यु भोज के लिए कुछ लोग आर्थिक सहयोग देते हैं

बेहतर होगा जिंदा व्यक्ति जब बीमारी से गुजर रहा होता है उस समय मरीज और उसके परिवार वालों के साथ खड़े रहें। जितना हो व्यवहारिक, सामाजिक और आर्थिक सहयोग करें। क्या पता ऐसे करने से उस व्यक्ति का जीवन बच जाए। मरने के बाद कौन रो रहा है मरे हुए को क्या पता?

-मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)

Wednesday, 21 August 2024

हर भाई को अपनी बहन की करनी चाहिए रक्षा


रक्षाबंधन का त्योहार सावन माह में खेती-किसानी के समय मनाया जाता है। बारिश में भीगते-भागते राखी बांधने या बंधवाने के लिए भाई-बहन एक-दूसरे के पास जाते हैं। लोग कहते हैं कि इससे भाई-बहन में प्रेम दिखता है। बहन की रक्षा भाई कर सके इसलिए राखी बांधी जाती है। चाहे बहन भाई से बड़ी क्यों न हो, बहन कुछ नहीं कर सकती सब रक्षा भाई ही करेगा। क्योंकि यहां पुरुष प्रधान समाज है। पुरुष ही सबसे शक्तिशाली है ऐसा माना जाता है। दुधमुंहा भाई भी शादीशुदा बहन की रक्षा करेगा यह कितनी शोभा देती है?

बाजारवाद को जन्म देता है यह त्योहार

ज्यादातर त्योहार खर्चीले ही होते हैं। इसी प्रकार रक्षाबंधन का त्योहार में भी पूरा बाजार राखी, कपड़े, साड़ी, मिठाई, ज्वेलर्स और हर प्रकार की गिफ्ट सामग्री से पूरा बाजार पट जाता है। इस दिन आने-जाने के समय के साथ पेट्रोल-डीजल की भी बर्बादी होती है। त्योहार के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। मिठाई में कालाबाजारी के कारण सेहत के साथ भी खिलवाड़ होता है। जगह-जगह मिष्ठान के नाम पर जहर बेचा जाता है।

शुभ मुहूर्त में बांधने के चक्कर में हो रही दुर्घटना

ब्राम्हण-पुरोहित के बताएं हुए मुहूर्त में ही राखी बांधने के लिए बहन अपने भाई के यहां जल्दबाजी में जाती है। हड़बड़ी में गाड़ी से दुर्घटना हो जाती है। उस समय न भगवान रक्षा करता है और न ही भाई रक्षा कर पाता है। इसलिए मुहूर्त के फेर में रहना बहुत बड़ा जोखिम कार्य है।

गिफ्ट नहीं मिला तो रिश्ते में दरार

रक्षा के नाम से राखी बांधने के बाद बहन को अगर गिफ्ट नहीं मिला तो उसका मुंह देखने लायक होता है। आसपास के लोगों को बताएगा कि अच्छी साड़ी नहीं मिली या इतनी कम कीमत की चीज दी है। इससे ज्यादा तो पड़ोसी ने अपनी बहन को दिया। भाई को इस बात का पता चला तो बहन और भाई में बोल-चाल बंद भी हो जाता है। एक-दूसरे के घर में आना-जाना भी बंद हो जाता है।

जब मन करे भाइयों के यहां जाना चाहिए

भाई-बहन के प्यार अटूट होता है। जब भी फुरसत मिले बहन को भाई के साथ समय बिताना चाहिए। बहन ससुरला चली गई है तो बहन को अपने भाई से मिलने आना चाहिए, क्योंकि उसका ही घर है। मां-बाप और भाई से जब भी मिलने का मन करे तो महिला अपनी मायके जा सकती है। ठीक इसी प्रकार भाई को भी बहन के यहां जाना चाहिए। इसमें त्योहार या दिखावा नहीं होना चाहिए। खुले मन से भाई-बहन को रिश्ता निभाना चाहिए।

बहन को पूरा सम्मान मिलना चाहिए

बहन रक्षाबंधन में राखी न बांधे फिर भी भाई को चाहिए कि वह बहन की रक्षा और सहयोग करें। हर सुख-दुख में भाई-बहन को एक साथ होना चाहिए। बहन को भी पिता की संपत्ति में पूरा अधिकार है और बराबर का हक मिलना भी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि स्वार्थ के कारण बहन की पूछ-परख हो, जब बहन संपत्ति को भाई के नाम कर देता है तब भाई रक्षाबंधन तो छोड़िए बहन को हमेशा के लिए ही भूल जाता है।

-टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)

खेती-बाड़ी को लेकर अंधविश्वास


आधुनिक युग में भी हमारा देश अंधविश्वास के जाल से नहीं निकल पाया है। आज भी लोग चमत्कार, जादू-टोने, तंत्रमंत्र और झाड़फूंक जैसी बातों को मानते हैं। इसके कारण बहुत से घर बर्बाद हुए हैं और एक दूसरे की जान लेने को उतावले हुए हैं, बहुत सी जान गई हैं।

जमीन को भी जादू-टोना, तंत्रमंत्र से बिगाड़ा है ऐसा मानने वाला आज भी है। आज भी लोग अज्ञानतावस जमीन, खेत को झाड़ फूंक करने से पीछे नहीं हटते।

एक दिन की बात है खेती बाड़ी की बात चल रही थी। चर्चा करने वालों में पुरुष के साथ महिलाएं अधिक थीं। अंधविश्वास में पुरुष से आगे महिलाएं सबसे आगे निकल गई हैं और यहां भी ऐसा ही हुआ।

चर्चा चल ही रही थी तभी एक महिला कहती है कि मेरी बाड़ी को किसी ने कुछ (नजर) कर दिया है। मैं फिर एक बार पूछा क्या कर दिया है? वह फिर कहती है कि किसी ने टोना टोटका कर दिया है। आपको कैसे पता चला! मैंने पूछा।

महिला कहती है - बहुत दिनों से जमीन पर कुछ नहीं हो रहा है। पहले टमाटर की खेती करते थे बहुत टमाटर होते थे, लेकिन अब ठीक से नहीं होता है। इसलिए हम बोना बंद कर दिए।

मैंने पूछा- कब की बात है? पूछते हुए मैं सोचने लगा ऐसा कैसे हुआ होगा?
महिला कहती है दो साल पहले की बात है। हर साल टमाटर लगाते थे, बहुत कमाई होती थी। पहले साल तो कुछ कम हुआ, लेकिन दूसरे साल से टमाटर से खेत भरने लगा, अच्छा पैदावार हुआ, लेकिन चौथे साल से ही बहुत कम हो गया। टमाटर के पौधे में फल नहीं के बराबर लगने लगा तब से खेती करना बंद कर दिए। जब खेत ही बिगड़ गया तो खेती करने से क्या फायदा।

मैं समझ गया। सब्जी की खेती करने से पहले कुछ सावधानियां रखनी पड़ती हैं, जैसे खेत को अच्छी तरह से जोताई की जाए और कुछ समय के लिए सुखाया जाए, जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए और खरपतवार के साथ फसल को नुकसान करने वाला रोग नष्ट हो जाए। एक बात प्रमुख रूप से ध्यान देना चाहिए कि एक ही फसल को एक ही स्थान पर बार बार नहीं लगाना चाहिए। हर बार एक फसल लेने के बाद दूसरी बार अलग फसल की खेती करनी चाहिए। जैसे अभी गोभी की खेती की है तो दूसरी बार लौकी, तोरई, करेला या टमाटर। स्थान बदलकर खेती करनी चाहिए।

लगातार उसी उसी की खेती करने से पैदावार धीरे-धीरे गिरता जाता है। ठीक ऐसा ही हुआ। लगातार टमाटर की खेती करने के कारण चार साल तक पैदावार हुआ उसके बाद फल धीरे धीरे कम होता गया। इसी को जादू टोना समझ गया। सही कारण का पता नहीं होने के कारण अंधविश्वास में पड़ गया।

अंधविश्वास में पड़ने का कारण अज्ञानता भी है। यहां एक ही फसल को लगातार नहीं लेना था। महिला को इसका ज्ञान नहीं था इसलिए जादू टोना समझ लिया। अगर ज्ञान होता तो एक ही फसल को एक ही जगह पर बार बार बोवाई नहीं करती जिससे अंधविश्वास में नहीं पड़ती।

समस्या है उसका निदान भी है, लेकिन हम उसका निदान किस तरह खोज रहे हैं, आपके ऊपर निर्भर करता है। बिना जाने समझे भगवान भरोसे निदान खोजेगे तो अंधविश्वास में ही पड़ेंगे। इसलिए कारण को समझे और उसका निदान करने की कोशिश करे।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

सिक्का का दीवार पर चिपकना कोई चमत्कार नहीं


मुझे याद है जब मैं लगभग 11 साल का था। एक रिश्तेदार के साथ उनके घर गया था, उधर से ही हम लोग छत्तीसगढ़ के धमतरी के गंगरेल बांध घूमने गए। डेम से आते समय धमतरी के बिलई माता (छत्तीसगढ़ी में काली माता को बिलाई माता कहता होगा) भी चले गए। लोग यहां नवरात्रि पर्व में बड़ी श्रद्धा से दर्शन करने जाते हैं। हम भी नौरात्रि (दुर्गा पर्व) में गए थे, इसलिए वहां बहुत भीड़ थी, लोग एक-दूसरे को धक्का-मुक्की कर रहे थे।

जैसे-तैसे मंदिर में हम लोग भी प्रवेश किए। बहुत से लोग मंदिर की दीवारों पर सिक्का चिपकाने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है ऐसा मानते हैं, इस मंदिर में भी ऐसी मान्यता है। इसलिए यह मंदिर मुझे आज भी याद है। अब पता नहीं कैसा होगा। मंदिर के पीछे अलग दीवार थी, दीवार पर एक चौकोन और गड्ढों पर बहुत से सिक्के चिपके हुए थे और दीवार का रंग भी हल्का काला हो गया था। कुछ लोग बड़ी श्रद्धा से अपनी जेब से सिक्का निकालकर सावधानी से दीवार पर चिपका रहे थे।

नहीं चिपकने पर लोग हो रहे थे परेशान

मेरे साथ गए लोग भी एक-एक करके सिक्का चिपकाने लगे। किसी ने एक रुपया तो किसी ने पांच रुपए का सिक्का चिपकाकर गर्व महसूस कर रहे थे। तो कोई निराश थे, क्योंकि सिक्का उसके हाथ से दीवार पर चिपका नहीं था। जिसके हाथ से सिक्का दीवार पर चिपक गया वे व्यक्ति अपने आप को शुभ, पुण्यात्मा, भाग्यशाली और मनोकामना सिद्धि व्यक्ति मान रहे थे। वहीं जिसके हाथों से सिक्का नहीं चिपका वे खुद को अशुभ, अभागे और मनखोटी समझने लगे। 

सभी सिक्के पुजारी कर लेता है अंदर

लोग कहते हैं कि अगर सिक्का दीवार पर चिपकता है या नहीं चिपकता है, दोनों स्थिति में सिक्का को उठाकर जेब में नहीं डालना है, चाहे कितने बड़े सिक्के हो। अगर बच्चे उस सिक्के को उठाता है तो उसे मना करना होता है। इसे कोई भी नहीं उठा सकता। अब आप सोच रहे होंगे कि इस प्रकार तो बहुत से सिक्के हर रोज उसी स्थान पर इक्कठे हो गए होंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। उस सिक्के को कुछ समय के बाद पुजारी अंदर कर लेता है।

क्या यह सच में भाग्य मापने का यंत्र है?

मैं घर पहुंच कर बहुत दिनों से इस मंदिर के बारे में सोचता था, क्या यह सच में भाग्य मापने का यंत्र है? किसी के भाग्य सिक्का से कैसे पता चलेगा? फिर सोचता था आखिर सिक्का दीवार पर क्यों चिपका! घर की दीवारों में भी सिक्का चिपकाकर देखता था, चिपक ही नहीं रहा था। एक दिन अचानक से दरवाजे से लगी दीवार पर एक सिक्का चिपक गया। मैं बहुत खुश हुआ। मुझे लगा मैं ईश्वर को खोज लिया हूं। इस खुशी को पूरा घर में सभी को बांटा। सभी लोग आश्चर्य हो गए।

तेल की वजह से चिपकता है सिक्का

बहुत सोचने के बाद पता चला कोई ईश्वर नहीं, बल्कि तेल का कमाल है। मेरे दादाजी हर रोज सोने से पहले फल्ली तेल को अपने हाथ पैर में चिकचिक से लगाने के बाद सो जाता था और कुछ ही समय के बाद उठकर हाथ से दीवार का सहारा लेकर दरवाजे खोलता था। हाथ के तेल दीवार पर लग जाता था। बहुत दिनों से दीवार पर तेल और धूल लगने से उसमें थोड़ा चिपचिपा आ गया था। इसीलिए सिक्का दीवार पर चिपक जाता था।

मंदिर में भी तेल के कारण से चिपचिपाहट

इसी प्रकार से मंदिर की दीवार पर भी दीया जलाने का तेल समय-समय में लगाया जाता है, जिससे चिपचिपाहट बनी रहे, इसी कारण सिक्का दीवार पर चिपक जाता था। जल्दबाजी या चिपचिपाहट न होने की जगह के कारण कुछ सिक्के नहीं चिपक पाता था। और लोग इसे श्रद्धा मान लेते थे, बहुत बड़ी शक्ति मान लेते थे।

अज्ञानतावश लोग चमत्कार पर करते हैं विश्वास*

आज भी लोग अज्ञानतावश चमत्कार पर विश्वास कर लेते हैं। जब तक उद्दीपक के कारण (वस्तु कैसे कार्य करता है) समझ नहीं आएगा तब तक चमत्कार लगेगा। इसीलिए साथियों आंख बंद करके विश्वास नहीं करें और अंधविश्वास जैसी बीमारी से मुक्ति पाएं।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

हिंदुओं को 4 बच्चे पैदा करने की सलाह देने वाले बताएं पालेंगे कौन?


इसी प्रदीप मिश्रा को अंधभक्त सुनने जाते हैं। कुछ भी बोल दिया और ये लोग उसे मान लिए। कभी अपने दिमाग का उपयोग कीजिए और सोचिए एक लोटा जल से कोई समस्या का हल नहीं हो सकता। ना ही कोई बच्चा बिना पढ़े बेल पत्र के भरोसे पास हो सकता है। अब प्रदीप मिश्रा ने चार बच्चे पैदा करने की बात कही है। दो बच्चे अपने लिए एक बच्चा सनातन के लिए और एक बच्चा सेना के लिए कहते हुए चार बच्चे पैदा करने की बात कही। ऐसा बयान ज्यादातर सनातन धर्म में आते रहते हैं, लेकिन इसमें कुछ होना जाना नहीं। बस कथा वाचक को क्या है, जो भी मुंह में आए बक देता है।

हमारा देश जनसंख्या के नाम पर विश्व में प्रथम स्थान पर है। जरा सोचिए जनसंख्या अगर ज्यादा है तो हमें क्या नुकसान है। आप यह मत कहना कि मुस्लिम तो दो बीवियां रखता है, बच्चे भी ज्यादा पैदा करता है। मुझे पता है बहुत लोग बिना जाने-समझे ऐसी बातें करते रहते हैं। आप को एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूं। आप दो भाई और एक बहन हैं, आपके पिता के पास 20 एकड़ जमीन है, जब ये जमीन पिता से आप दोनों भाई और एक बहन के पास जाएगी तो कितनी-कितनी जमीन मिलेगी। वहीं 6 एकड़ के आस-पास। फिर आप चार बच्चे पैदा करेंगे तो चारों को बांटने पर डेढ़ एकड़ ही बचेगी। इस प्रकार की जमीन कम होती जाएगी। रहने के लिए जगह नहीं रहेगी और भीषण गर्मी का सामना करते हुए खाने-पीने के सामान में भी कमी होती जाएगी। मंहगाई बढ़ेगी। इस प्रकार न जाने क्या-क्या मुसीबतों से सामना करना पड़ेगा। चार बच्चे को पैदा करने से लेकर उसे जिंदा रखने के लिए मां-बाप को कितनी कठनाइयों का सामना करना पड़ेगा। आज एक बच्चा को पालना कठिन है तो चार बच्चे को पालना बहुत मुश्किल काम है। बच्चे के खाने-पीने, कपड़े, दवाइयां, पढ़ने के लिए अच्छा स्कूल, अच्छी किताबें ये सब कौन देगा।

हां मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा, सब झूठा वादा है, सत्ता पाने के लिए। असल में मुफ्त तो धर्म के ठेकदारों और सत्ता सुख भोगने वालों को मिलता है। उसकी नकल आम जनता नहीं कर सकती है। महंगाई तो आम जनता को जीने नहीं दे रही। मजदूर और किसान को कड़ी धूप में मेहनत करने के बाद दो वक्त की रोटी मिल पा रही है। धर्म के ठेकेदार चार बच्चे पैदा करने को कहकर इनके मजाक बना रहे हैं। खुद तो एक-दो बच्चे या बच्चे ही पैदा नहीं करते और दूसरों को चार बच्चे पैदा करने की बात कहकर देश के मुफलिसों से मजाक कर रहे हैं। चार बच्चे पैदा करने पर इन बच्चों का पालन-पोषण कौन करेगा। हिन्दूओं में ही बहुत से लोगों का चार से आठ बच्चे हैं। कभी सनातन हिन्दू कहने वालों को उन बच्चों को देखकर इन पाखंडियों के मन में कुछ दया आया होगा। ज्यादा बच्चे रखने का दर्द क्या होता है उन माता-पिता से पूछिए जो अपने परिवार के पेट भरने के लिए दिन और रात जद्दोजहद कर रहे हैं। उनके पास न तो ठीक से तन ढ़कने के लिए कपड़े है और न हीं धूप, ठंड और बारिश से बचने के लिए छप्पर है। इनके दर्द को समझने का प्रयास कभी सनातन ने नहीं किया? 

-मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

भाग्य और भगवान भरोसे ये कैसी जिंदगी


जिंदगी में कठिनाई है, लेकिन इसे भगवान भरोसे छोड़ी नहीं जा सकती। मुसीबत क्यों आई है इसे समझना होगा, फिर संकट से निकलने के लिए हाथ-पैर मारना होगा। तब कही जाकर परेशानी दूर हो पाएगी। भगवान भरोसे चलकर कोई भी व्यक्ति मुसीबत से नहीं निकल पाए है, इसलिए कहते हैं भगवान भरोसे मतलब जिसका कोई भरोसा नहीं। इसके भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार कई लोग किस्मत और भगवान भरोसे बैठ जाते हैं। फिर क्या बाद में इन्हें पछताना पड़ता है और ऐसे लोग असफल होने के बाद भी खुद को दोषी नहीं मानते, बल्कि अपनी किस्मत को कोसते चुप बैठ जाते हैं. कामचाेर लोग कहने लगते हैं कि किस्मत में यही लिखा था और भगवान की यही मर्जी थी। ऐसा कहकर अपनी गलती और आलस्य को छुपा लेते हैं। यह कभी नहीं कहता कि मैं समय रहते उस समस्या से निकलने की कोशिश नहीं की। हाथ में हाथ धरे बैठा रहा।

आप ही बताए अगर आपको मानसिक या शारीरिक रूप से थोड़ा सा भी अच्छा न लगे तब आप क्या करेंगे? क्या आप यह सोचकर कि जो किस्मत में लिखा है वहीं होगा या भगवान की यही मर्जी है बोलकर कुछ नहीं करेंगे? या तुरंत किसी विशेषज्ञ के पास जाकर दिखाएंगे? कितना भी कट्टर धार्मिक किस्मत में विश्वास करने वाला हो मुसीबत के समय मंदिर-मस्जिद में समस्या का हल नहीं खोजेगा, न ही भगवान भरोसे घर में बैठेगा। वह दौड़कर अस्पताल ही जाएगा और कहेगा बुरे वक्त में किस्मत ने साथ दिया तब बचा हूं, भगवान ने बचा लिया, नहीं तो मैं मर ही जाता। इसी को कहते हैं दोगलेपन।

ज्ञान के लिए स्कूल जरूरी, धार्मिक स्थल नहीं

जानकर व्यक्ति अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में इसलिए पढ़ने भेजते है, क्योंकि उसके बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक वैगेरा बने। जब उनको भगवान और भाग्य में भरोसा है तो उनको स्कूल-कॉलेज की जरूरत ही क्यों? भाग्यवादी लोग तो कहते हैं कि भगवान के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तो ऐसे लोगों को पढ़ने लिखने का क्या काम। उन्हें सोचना चाहिए कि किस्मत या भगवान ने चाहा तो हमें खुद-ब-खुद ज्ञान आ जाएगा। जिसको जो बनना होगा किस्मत ने चाहा तो बन जाएगा। किस्मत ने चाहा तो बिना परीक्षा के पास हो जाएंगे. ऐसे सोचने वालों को तो पढ़ने और परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

धार्मिक माहौल विवेक को कर रहा खत्म

इस मूर्खता का प्रभाव ज्यादातर गरीब लोगों में पढ़ रहा है। गरीब व्यक्ति आज शिक्षा से कोसों दूर है, अगर सरकारी स्कूल के भरोसे शिक्षा के लिए दाखिला हो भी जाता है तो उस बच्चे को बराबर क्लास लेने वाले टीचर नहीं मिलते। ऐसे में बच्चे दाल-भात तक सीमित हो जाते हैं। बच्चा अगर घर में पढ़ना भी चाहेगा तो आस-पास के वातावरण उसे पढ़ने नहीं देगा। इस समस्या से हर गरीब के बच्चे जूझते हैं। आस-पास का वातावरण पढ़ने योग्य नहीं मिलता है। दो वक्त की रोटी से अगर फुरसत मिल जाए तो धार्मिक क्रिया-कलाप उसे पढ़ने नहीं देता। सुबह उठते ही धार्मिक गाने के साथ ठन-ठन की आवाज में घंटी बजना चालू हो जाता है तो कहीं नमाज की आवाज सुनाई देती है। गणेश पर्व में ग्यारह दिनों के लिए गणेश पंडाल, दुर्गा पर्व में नौ दिन उपवास के साथ नंगे पैर चलकर पंडाल के आस पास भटकना और कानफाड़ू डीजे के शोर में नाचने का दौर चलता रहता है। सावन आते ही कवाड़ लेकर नंगे पैर बीच सड़क पर जोर-जोर से आवाज करते चलना। गरीब के बच्चे पढ़ना छोड़ दिवाली में जुआ और पटाखे के लिए पैसे इकठ्ठा करने दूसरों के घर की सफाई के लिए चले जाते हैं, घर वालों को भी लगता है कि बच्चा दिवाली के लिए पैसे एकत्र कर रहा है, इससे घर में कुछ तो सहयोग होगा।

प्राथना से नहीं पढ़ाई से होंगे बच्चे पास

इस प्रकार होली आते-आते पढ़ने का पूरा समय निकल जाता है। परीक्षा भी खत्म होने की स्थिति में रहती है। फिर परीक्षा के समय ऐसे छात्र दोस्तों से कहता फिरता है यार मेरी तो कुछ तैयारी ही नहीं हुई, टीचर ने ठीक से क्लास नहीं ली या सेलेबस पूरा नहीं किया। समय नहीं होने के कारण पढ़ नहीं पाया। घर वालों ने बहुत काम करवाया। यहां तक खेत में काम कराने भी ले गया वगैरह-वगैरह। बहुत से बच्चे को ऐसा भी लगता है कि भगवान ने चाहा तो उसे पास करा देंगे, इसलिए भी नहीं पढ़ता। माता-पिता पूजा-पाठ करते देख बच्चे भी भगवान से प्राथना करते हैं कि हे प्रभु पास करा देना नारियल के साथ लड्डू चढ़ाऊंगा।

भगवान भरोसे छात्र हो जाते हैं फेल

जब परीक्षा का रिजल्ट आता है तब फेल होते ही छात्र कहने लगता है कि किस्मत ने साथ नहीं दिया और भगवान ने धोखा दिया। बहुत पूजा-पाठ करने के बाद भी फेल हो गया। यही प्रभु की इच्छा थी। फेल होना मेरी किस्मत में थी इसलिए फेल हो गया आदि। यह नहीं कहता कि मैं मेहनत नहीं किया। किस्मत और भगवान भरोसे बैठा था या बहुत ज्यादा काम होने के कारण पढ़ाई नहीं कर पाया। इसीलिए किस्मत या भगवान भरोसे बैठने की बजाय मेहनत और ईमान पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

-टिकेश कुमार, अध्यक्ष एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)

जमीं से आसमां तक विज्ञान का दखल, फिर भी अंधविश्वास का खलल



आज विज्ञान की सहायता से जमीन के अंदर को भी देख सकते हैं। मैं उस समय अचंभित हुआ जब मेरे घर के बोरवेल में केबल और एक तार नीचे गिर जाने के कारण मोटर पंप फंस गया था। हमें लगा कि इस ग्रामीण इलाके में बोरवेल से मोटर को निकाल पाना बहुत कठिन होगा। लेकिन जब मोटर पंप निकालने वाले आए तब सबसे पहले एक छोटी सी चीज को बैग से बाहर निकाला। इसमें लाईट भी जल रही थी और सेम टू सेम टार्च ही जैसा लग रहा था। इसे केबल के साथ बोरवेल के नीचे डालते गया। जिसके हाथ में मोबाईल था वह व्यक्ति केबल पकड़े व्यक्ति से कह रहे थे धीरे-धीरे नीचे जाने दें।

यह सब देख कर मैं उनसे पूछ पड़ा- भईया यह क्या है? नीचे जो केबल के साथ डाले हैं? उसके जवाब में आया- यह कैमरा है, जो नीचे केबल कितने दूर में फंसा है वो सब दिखाएगा। जिससे हमारा काम आसान हो जाएगा और हम उसी हिसाब से टोचन डालकर उसे निकाल लेंगे। यह सब सुनकर मेरे मन को खुशी मिली और मेरे मुंह से निकल पड़ा आप लोग इतने हाइटेक है भईया। चोवा भईया ने कहा हां समय के साथ चलना पड़ता है। फिर नीचे कैमरा डालकर देखने लगा। जिस मोबाइल से कैमरा कनेक्ट था उसमें अब स्पष्ट रूप से दिख रहा था।

सुरक्षित निकला मोटर पंप

कुछ समय के बाद वायर बोरवेल के अंदर दिखने लगा (यह वीडियो अपलोड कर दिया हूं) सच में केबल और मोटर को निकालने में बहुत आसानी हुआ। आखिरकार मेहनत रंग ला ही दिया और पूरा केबल और मोटर पंप सुरक्षित रूप से बाहर निकल गया। उसी मोटर और केबल को फिर से ठीक कर सेट कर दिया गया है। अब पहले जैसा चल रहा है।

तार्किक सोच के अभाव में उपज रहा अंधविश्वास

विज्ञान ने हमें इतना सब दिया है, इसके बावजूद लोग अंधविश्वास में पड़ जाते हैं। लोग अज्ञानता की वजह से सोचते हैं कि जादू-टोने करके बोरवेल से पानी रोक देता है, बोरवेल में मोटर को चलाने नहीं देता है या नीचे गिरा देता है और पूरा जमीन सुखा पड़ जाता है। लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान ने आज प्रगति की धीरे-धीरे जादू टोना का भ्रम दूर होता जा रहा है, फिर भी अभी लोगों के बीच में अंधविश्वास कम नहीं हुआ है। आज भी तार्किक सोच के अभाव में लोग काला जादू में विश्वास कर रहे हैं।

अंधविश्वास में लोग कर रहे विश्वास

जब मैं छोटा था उस समय गांव में ज्यादातर हेंडपंप ही चलता था। गांव में सरकारी बोरवेल खोदने के बाद पानी नहीं आता था तब लोहे का ढक्कन से ढक कर रख दिया जाता था। बच्चे के पत्थर मार-मारकर खेलने से ढक्कन खुल जाता था और बच्चे को बोरवेल के अंदर पत्थर मारने में मजा आता था, क्योंकि पत्थर के नीचे जाते ही उधर से धड़ाम से आवाज आती थी और ऊपर से आवाज करने पर नीचे भी वही आवाज रिपीट होती थी, जिससे लगता था नीचे कोई व्यक्ति या भूत होगा। ये तो बच्चे की बात है। यहां तो बड़े बूढ़े भी इस अंधविश्वास में विश्वास करते थे और अभी भी बहुत से लोग कर रहे हैं। लोग यह भी कहते हैं कि काला जादू से नीचे बोरवेल में पानी नहीं आने देता, तंत्र-मंत्र, जादू टोना से तांत्रिक पानी को पूरी तरह से बांध देता है। बोर सुखा पड़ जाता है और फसल बर्बाद हो जाती है। कई जगह तो यह भी सुनने में मिलता है कि बोर में दो साल तक पानी बढ़िया दिया फिर बंद हो गया, अब पानी ही नहीं आता।

धीरे-धीरे नीचे गिरता जा रहा जलस्त्रोत

आज जगह-जगह बोरवेल होने के कारण जमीन में पानी का लेवल या स्रोत कम होता जा रहा है, इसलिए कुछ साल चलने के बाद बोर में पानी आना बंद हो जाता है, मतलब बोर में पानी के स्रोत कम हो गया है। बोर सुखा है, उसमें तंत्र-मंत्र या जादू टोना से पानी लाने की बात झूठ है। तांत्रिक नींबू को मंत्र कर के बोरवेल में डालने के बाद फुल पानी आने का दावा करके लोगों को ठगता है। तांत्रिक के नींबू को बोरवेल में डालते ही धड़म की आवाज आती है, यह आवाज बोरवेल में पानी होने के कारण आती है। इसी को प्रेत-आत्मा के बाहर निकलने की बात कह कर तांत्रिक बोरवेल मालिक को लूट कर चला जाता है।

बेहतर समाज बनाने के लिए करें प्रयास

लोगों में जागरूकता लाने और अंधविश्वास से मुक्ति के लिए हर तर्कशील व्यक्ति को आगे आने की जरूरत है। हर अंधविश्वास, पाखंड और रूढ़िवाद को चुनौती देने की जरूरत है, जिससे समाज को बेहतर बनाया जा सकें।

-टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

आडंबर और अंधविश्वास के अंधेरे में ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाले गुरु घासीदास


'मंदिरवा म का करे ल जइबो, अपन घट के देव ल मनइबो, पथरा के देवता ह हालत हे न डोलत, अपन मन ल काबर भरमइबो' (मंदिर में क्या करने जाएंगे, अपने हृदय के अच्छे विचारों को मानेंगे, पत्थर के देवता हिलता-डुलता नहीं है, अपने मन को क्यों भ्रमित करेंगे) इस बात को घासीदास जी उस समय कहा जब वे जगन्नाथ पुरी के यात्रा में जा रहे थे। उसके बाद आधे रास्ते से सारंगगढ़, रायगढ़ से वापस हो गए। और उन्होंने कहा कि मंदिर में क्या करने जाएंगे। जो अपनी खुद की रक्षा नहीं कर सकता वह क्या मनुष्य की सुनेगा। हम लोग कितने बड़े मूर्ख हैं, पत्थर की पूजा करते हैं जो कुछ बोल नहीं सकता है, न चल सकता है, न खा सकता है, न पी सकता और न उठ-बैठ सकता है। उसके तीर्थ जाकर हमलोग अपने समय और धन को नष्ट कर रहे हैं। 

इस प्रकार के अंधविश्वास, रूढ़िवाद और परंपरावाद के खिलाफ जोरदार विरोध किए। घासीदास जी ने मूर्ति पूजा कभी नहीं करने की बात कही और लोगों को अपने मनोबल को बढ़ाने की अपील की। इसके लिए उन्होंने कहा कि अपने हृदय के अच्छे विचारों को मानेंगे, मन से बढ़कर के कुछ देवता नहीं है। हम लोग पत्थर की पूजा करते हैं। ये हमारी मानसिक बीमारी है, मन को पूजा-पाठ और पाखंड से दूर रखकर कर्म और मेहनत में विश्वास करें।

घासीदास जी समानता की बात भी कही। उसका कहना है कि मनखे-मनखे एक समान (मानव-मानव एक समान)। अरे भाई सभी मनुष्य एक बराबर है, जाति-धर्म के भेद को बनाकर क्यों लड़-मर रहे हो। गुरु घासीदास ये सब इसलिए कहा क्योंकि वे खुद इस पीड़ा को भोग चुके थे। गुरु घासीदास जी का जन्म 18 दिसंबर 1756 में छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले (वर्तमान में बलौदा बाजार-भाटापारा जिले) के गिरौदपुरी गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। 

उस समय में गरीब कमजोर के ऊपर बहुत शोषण और अत्याचार होते थे। अपने आप को उच्च जाति कहने वाले पाखंडी लोग कमजोर मनुष्य को शिक्षा और सार्वजनिक जगहों से दूर रखकर अपमानित करने के लिए नीच जाति कहते थे। इस पीड़ा को देखकर घासीदास जी सतनामी पंथ बनाए। दबे-कुचले मनुष्य को इकठ्ठा किए और कहा कि ये सब अपने आप को उच्च जाति समझने वालों और जाति-धर्म के नाम पर धंधा करने वालों की चाल है। जो आडंबर में फंसाकर शोषण और अत्याचार करते हैं, इसीलिए तुम लोग पोथी-पुराण और पत्थर पूजा में मत उलझो और सत्य को जानो और मानो। 

जो दिख रहा है उस पर भरोसा करो, काल्पनिक बात के खुल कर विरोध करो। जो यथार्थ को मानेंगे, वहीं सतनामी कहलाएंगे। इस प्रकार के दलित-शोषित वर्ग को इकट्ठा करके समाज में बहुत बदलाव किए, तब जाकर शोषित-पीड़ित लोगों को सम्मान मिल पाए। पिछड़ा वर्ग के मनुष्य के लिए घासीदास जी मसीहा हैं। जो वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशील विचारों को फैलाकर आडंबर के पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाए। गुरु घासीदास जी अंधविश्वास और रूढ़िवाद के घोर अंधेरे में ज्ञान का प्रकाश कर नया सबेरा लाए।

लेखक- गनपत लाल (छत्तीसगढ़ी से हिंदी अनुवाद- टिकेश कुमार)

Wednesday, 22 November 2023

क्या कोई लगातार चार महीने तक सो सकता है ?


हमारे देश में कई प्रकार की मनगढ़त और उटपुटांग कहानियां बहुत दिनों से चली आ रही हैं। एक पौराणिक कहानी में बताया गया है कि आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष के एकादशी में भगवान विष्णु और सभी देवी-देवता सो जाते हैं। इसे पुरोहित लोग देवसुतनी एकादशी कहते हैं। इसके बाद चार महीने के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष के एकादशी में विष्णु और सभी देवी-देवता भरभराकर उठ जाते हैं। इसे पूजा-पाठ के नाम पर मुफ्त खाने वाले लोग देवउठनी एकादशी कहते हैं।

वैसे तो हमारी पौराणिक कहानियों में ऐसी-ऐसी काल्पनिक बातों की भरमार है, जो असल जिंदगी में कभी नहीं हो सकता। अब आप ही बताइए कि कोई भी व्यक्ति बिना खाए-पीए लगातार चार महीने तक सो सकता है? ऐसे ही रावण के छोटे भाई कुंभकरण को लेकर कहा जाता है कि वह छह महीने तक सोता था, यह भी संभव नहीं है। अभी तक धरती में इस प्रकार का प्राणी की खोज नहीं हुई जो लगातार छह महीने तक सोए और जगने के बाद लगातार छह महीने तक खाना खाते रहे।

लोगों को काल्पनिक बातों और कहानियों में उलझाकर रखने वाले पंडा-पुरोहित बताते हैं कि देवसयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक यानी चार महीने भगवान विष्णु सयन अवस्था में होते हैं और इस समय में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है। वहीं दूसरी ओर इसी चार महीने के भीतर व्रत-त्योहार, पूजा-पाठ और धार्मिक कर्मकांड की भरमार रहती है। जैसे गणेशोत्सव, नवरात्री, दशहरा, दीवाली और कई प्रकार के त्योहार होते हैं। जब देवी-देवता सोए रहते हैं, तभी लोग भारी आवाज में लाउड स्पीकर बजाकर और पटाखे के धमाके के साथ पूजा-पाठ कर क्यों डिस्टर्ड करते हैं? 

सोए हुए देवी-देवता को परेशानी हो या न हो, लेकिन लाउड स्पीकर और पटाखे से स्कूल-कालेज में पढ़ने वाले बच्चे जरूर परेशान होते हैं। तेज आवाज की वजह से अस्पताल में भर्ती मरीज को तकलीफ होती है और कई दम भी तोड़ देते हैं। इसी चार महीने के भीतर नदी और तालाब में देवी-देवताओं की मुर्तियों को लोग डूबो देते हैं। क्या पानी में डूबोने से देवी-देवता की नींद नहीं खुलती हाेगी? काल्पनिक भगवान की नींद उड़े या न उड़े, लेकिन जल स्त्रोत पूरी तरह से प्रदूषित हो रहा है। लोगों के लिए पीने और उपयोग करने के लिए पानी की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। वहीं जलीय जीव-जंतु धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं।

- गनपत लाल

Saturday, 23 September 2023

मेहनत करे कोई, जेब भरे कोई


खेत में दिन-रात मेहनत करने के बाद भी किसान के हाथ में कुछ पैसे नहीं बचता, सब बराबर हो जाता है। कई बार खराब मौसम के कारण फसल बर्बाद हो जाती है, जिससे किसान के पास खाने के लिए भी नहीं रहता और अलग से कर्ज में डूब जाते हैं।

मौसम सही-सही रहा तो फसल बढ़िया पैदा हो जाती है, लेकिन फिर संकट आ खड़ा होता है। फसल का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता। जिससे फसल को पानी से भी कम मूल्य में बेमन बेचना पड़ता है। फिर वही फसल पूंजीपति स्टोर कर के रख लेता है, जब किसान के पास वह फसल नहीं होता। किसान पूरी फसल को बेच चुके होते हैं तब उस फसल का बाजार में अधिक मूल्य हो जाता है, इससे आम जनता को मंहगाई का सामना करना पड़ता है। शहरी लोगों को लगता है दाल-चावल, गेंहू, सब्जी जो किसान उतपन्न करते हैं उसका मूल्य बढ़ा है तो किसान को फायदा हो रहा है। कुछ लोगों को ऐसा भी लगता है किसान ही ये सब का दाम बढ़ा दिया है, जिससे महंगाई बढ़ गई है। और सब्जी बेचने वालों से मोलभाव करने लगते हैं।

जिसने कभी मेहनत नहीं की और खेती नहीं की उन सभी लोग आज देश में ऐशोआराम कर रहे हैं, मुफ्त में खा रहे हैं। मेहनत करने वालों के खून-पसीने की कमाई खा रहे हैं। जिसमें हमारे राजनेता पहला स्थान पर है। एक विधायक की सैलरी और पेंशन पूरा देश कंगाल हो गया है। मेहनत करने वालों से कहता है कि गरीब जनता को मुक्त में चावल दे रहे हैं। उस नेताओं से पूछना चाहिए कि कौन से खेत में फसल लगाया था? कहां मेहनत किया था या कौन से अपने बाप- दादाओं के घर से लाए। नेताओं के चुनाव जीतने के कुछ ही दिनों के बाद इतने पैसे आ जाते हैं जिससे उसके कई पीढ़ी बैठकर खा सकती है। इतने पैसे कौन सी मिट्टी में पैदा किया उसका जवाब जनता को मांगना चाहिए। सब सुविधा नेताओं और अधिकारियों के पास है।

मेहनत करने वाली जनता से मूलभूत आवश्यकताओं को भी छीन लिया है। और जनता आज अंधविश्वास की अफीम के नशे में चुर होकर जी रही है। जिस देश और समाज में अंधविश्वास और नशे की तल हो वहां के लोगों को सही गलत कुछ नहीं दिखता और मूर्ख को भी सत्ता का ताज पहना देता है। इसलिए सरकार कभी नहीं चाहती कि जनता होशियार बने और अंधविश्वास व नशे से दूर रहे। सरकार लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कभी नहीं चाहती।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (ASO)