Monday, 26 June 2023

देवी-देवताओं का सच


हमारे देश में देवी-देवताओं की अनेक तस्वीरें और मूर्तियां देखने को मिलती हैं। जिसमें किसी के चार हाथ, चार सिर के अलावा हाथी का सिर भी है। सभी ज्वैलरी सिंगार, माला, मुकूट, अस्त्र-शस्त्र हाथ में धारण किए रहते हैं। लेकिन आपने कभी सोचा है कि इन तस्वीराें को किसने बनाई होगी? ईश्वर को मनुष्य ने बनाया या मनुष्य को ईश्वर ने इसका उत्तर मिलने के बाद भी मनुष्य उस उत्तर को स्वीकार न करते हुए फिर यही दोहराता है कि ईश्वर ने पूरा संसार को बनाया है, उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। सभी जानते है, बेमौसम बारिश होती है, अधिक ठंडी, गर्मी पड़ती है, फुटपाथ में गरीबी की जंदगी बिताते-बिताते कई लोग मर जाते हैं। इसका जिमेदार कौन है? जीवन ठीक चलता है तब कहता है "सब ऊपर वाला की कृपा है" और जब दुख मिलता है तब कहता है "भगवान हमारी परीक्षा ले रहा है, किस जन्म में पाप किया था, उसे इस जन्म में भोग रहा हूं" ऐसे कई किस्से है, जिसमें अपने दोष को छुपाकर कई लोग भगवान पर थोप देते हैं।

देवी-देवताओं की कल्पना

मनुष्य यह देखकर हैरान था कि हवा का चलना, बिजली का चमकना, बादल गरजना, ऊपर से पानी गिरना, सूर्य से धूप मिलना और आग का जलना। आग को अग्निदेव, सूर्य को सूर्यदेव, हवा को पवनदेव और इसे आदेश देने वाला इंद्रदेव है ऐसा मान लिया गया। शुभ कार्य करने से पहले देवी-देवता को खुश रखने के लिए उसकी पूजा करने लगे। अगर पूजा नहीं करेंगे तो भगवान नाराज हो जाएगा और हवा, पानी, बिजली गिरकर रंग में भंग कर देगा, इसलिए उसे खुश रखने के लिए फल-फूल चढ़ाकर प्राथना करता थे। धीरे-धीरे अज्ञानता की वजह से अनेक भगवान की कल्पना की गई। कुछ पाखंडी अपना स्वार्थ के लिए इसका फायदा उठाकर लोगों को धर्म और भगवान के नाम से डराना चालू कर उसे विकराल रूप दिया।

देवी-देवताओं की तस्वीरें किसने बनाई?

आज जिस देवी-देवताओं की तस्वीरें की पूजा की जाती है। उस चित्र को 19 वीं शताब्दी में केरल के एक छोटे से गांव "किलिमानुर" में जन्में राजा रवि वर्मा जो विख्यात चित्रकार थे, ने बनाया है। सब तस्वीरें राजा रवि वर्मा की कल्पनाशक्ति की उपज हैं। खुद सोचिए, उस पुराने समय में जैसे दिखाया गया है वैसे कपड़े, हथियार, ज्वैलरी भगवान के पास कहां से आया, कलर, पेपर भी बाद में आया। जितने भी तस्वीर, मूर्ति है सब मनुष्य ने ही बनाया है।

सब लूट का हथकंडा

भगवान के नाम से आज कितनों का व्यापार जोरों से चल रहा है। हर जगह उनकी दुकान खुली हुई है। उस दुकान में भगवान की मूर्ति, फोटो, किताब, माला, अंगूठी, वस्त्र-शस्त्र, अगरबत्ती, रुई, यहां तक भगवान को भी बेचा जाता है और करोड़ों रुपए की कमाई की जाती है। इस धंधे को चलाने के लिए लोगों को भगवान के नाम से डराया जाता है, ऐसे नहीं करेगा तो पाप पड़ेगा। तुम्हारा परिवार कष्ट भोगेगा। सुख-शांति चाहिए तो पूजा-पाठ करें।

पूजना है तो इंसान को पूजिए

इंसान से बड़ा भगवान नहीं हो सकता। आज सब अपने-अपने भगवान को बड़े बताने में लगे हैं। भगवान के नाम पर एक-दूसरे का विरोध करने लगते हैं. यहां तक की भी नौबत आ जाती है कि लोग मार-काट करने से भी पीछे नहीं हटाते हैं। इस दुनियां में अगर इंसान भगवान के नाम से मर जाएगा तो बचेगा कौन? उस निर्जीव भगवान, जो किसी का सहारा नहीं कर सकता। मारने के बाद क्या भगवान उसे जीवित कर देगा, कभी नहीं करेगा। बहुत से लोग धर्म, भगवान के नाम से लड़ मरे, लेकिन कोई भगवान-अल्लाह बचाने नहीं आया, न मारे हुए को जिंदा किया। इसलिए इंसानियत को जिंदा रखे। जीव-जंतु, पर्यावरण को भगवान के नाम से क्षति न पहुचाएं। एक दूसरे का सहयोग करें, यही आपका धर्म है।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

मैं अंधविश्वासी नहीं हूं कहने वालों की सच्चाई


आज समाज अंधविश्वास रूपी गंभीर बीमारी से जूझ रहा है और यह बीमारी मनुष्य को सदियों से पकड़ा हुआ है। लेकिन कोई भी व्यक्ति मानने को तैयार नहीं है कि उसे इस बीमारी ने पकड़ा है, उसका इलाज भी संभव है। पागल को पागल बोलेंगे तो आपको ही मारने-काटने को दौड़ेगा। ऐसा ही हाल अंधविश्वासी लोगों का है, भूल से भी आप उसको अंधविश्वासी और पाखंडी कह देंगे तो आपको कुत्ते से भी ज्यादा भौंकने के साथ काटने के लिए दौड़ेगा। इस कड़ी कठिनाइयों के बावजूद हमारे देश में अनेक समाज सुधारक इन अंधविश्वासी-पाखंडी लोगों के इलाज का बीड़ा उठाया और अभी भी उठाते आ रहे हैं। बहुतों ने इस समाज सुधार के कार्य को आगे बढ़ाते हुए, पाखंडीपंथी को तर्क देते हुए उन पाखंडियों के हाथों अपनी जान भी गवा बैठे। उन्हें देश और समाज के खातिर शहीद होना पड़ा।

खुद का अंधविश्वास लोगों को विश्वास लगता है

मैं जब भी लेख पोस्ट करता हूं। बहुत से मित्र का ज्यादातर यही प्रश्न रहते हैं कि आप दूसरे धर्म के खिलाफ क्यों नहीं लिखते। हमारे धर्म के ही अंधविश्वास आपको दिखाई देता है या कोई कहता है कि हमारे धर्म में कोई अंधविश्वास नहीं है, ये तो सब विश्वास है, भूत-प्रेत, डायन को हम नहीं मानते, हम भी अंधविश्वास के खिलाफ है, ऐसे धार्मिक अंधविश्वासियों के प्रश्न रहते हैं। नशा करने वाला नशेड़ी कहता है 'मैं तो तंबाकू बस खाता हूं' और वह आपको तंबाकू के बहुत से फायदे बताते हुए, शराब, गांजा और बाकि नशे को गलत बताएगा। ऐसा ही अंधविश्वासी लोगों का है, खुद को अंधविश्वासी नहीं मानेगा। स्वयं के बारे में सुनना नहीं चाहेगा, दूसरों के बारे में कहना ही अच्छा लगता है। अपना पिछवाड़ा खुद को नहीं दिखता, दूसरों के पिछवाड़े गंदा है देखकर खुश होता है। तथाकथित बुद्धिजीवी और आम लोगों से कहना चाहता हूं कि 'अपना पिछवाड़ा पहले धोने की जरूरत है।

भूत-प्रेत दिखना अंधविश्वास, भगवान दिखना विश्वास?

भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, डायन को हम नहीं मानते, बस 'भगवान पर विश्वास' है, ऐसे अंधविश्वास से हमें बचाएं कहने वाले लोग मिलते ही रहते हैं। भूत-प्रेत भ्रम है किसी ने नहीं देखा। तो क्या भगवान-अल्लाह को किसी ने देखा? भगवान का भ्रम हो तो विश्वास और भूत-प्रेत का भ्रम हो तो अंधविश्वास, इसी को कहते है 'अपना बच्चा अंधा पड़ोसी का चश्मा देख हंसी आय'। ओझा तांत्रिक अपनी दुकान बंद नहीं करना चाहता। दूसरी तरफ धार्मिक पाखंडी भगवान के नाम की दुकान को बंद न हो इसके लिए पूरा जोर लगा रखा है और उस दुकान के ग्राहक अपना लेन-देन की दुकान और उसमें बिकने वाली वस्तु को अच्छा समझता है, उसे अच्छा लगता है। दूसरे की दुकान और वस्तु खराब लगता है। गलत किसी भी के हो, कितनी भी ताकतवर हो गलत ही रहेगा। सभी समझदारों को चाहिए कि समाज में व्याप्त तमाम अंधविश्वासों को खुलकर विरोध करें तभी बदलवा संभव है।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

दिनों को लेकर शुभ अशुभ के फेर में न पड़ें, रोजाना करें बेहतरीन काम


सामान्य लोगों में दिनों को लेकर कई प्रकार के भ्रम पल रहे हैं. अच्छे काम की शुरूआत करने से पहले दिन और समय देखने का अंधविश्वास समाज में व्याप्त है. व्यक्ति का जन्म और मृत्यु के लिए कोई मुहूर्त नहीं होता, लेकिन लोग जीवनभर शुभ-अशुभ के चक्कर में अपना समय और धन बर्बाद कर देते हैं. बच्चे का नामकरण, शादी, घर में प्रवेश, वाहन खरीदने, कपड़े खरीदने और सभी प्रकार की खरीदी के लिए लोग दिन और समय देखते हैं. कई लोग शनिवार को सबसे खतरनाक दिन मानते हैं तो कई व्यक्ति मंगलवार और गुरुवार को सबसे शुभ दिन मानते हैं. यह मानसिकता अज्ञानता और अंधविश्वास की उपज है.

समाज में तार्किक और वैज्ञानिक सोच के इंसानों की बहुत कमी

अंधविश्वास आजकल चरम सीमा पर है. भले ही डिग्रीधारी लोगों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन तार्किक और वैज्ञानिक सोच के इंसानों की आबादी बहुत कम है. कई लोग नए कपड़े और आभूषण पहनने के खास दिन का इंतजार करते हैं. विवेकहीन व्यक्तियों का मानना है कि शुभ घड़ी में नए कपड़े-गहने पहनने से बिगड़े काम भी बन जाते हैं. सही मुहूर्त में इन्हें धारण कर काम करने से उस काम में सफलता मिलती है. 

ज्योतिष शुभ-अशुभ के जाल में फंसाकर भर रहा है अपनी जेब

आजकल ज्योतिष मुफ्त में अपना पेट भर रहा है. ज्योतिष अज्ञानी लोगों को शुभ-अशुभ के जाल में फंसाकर अपनी जेब भर रहा है. ज्योतिष के अनुसार शॉपिंग के लिए शुक्रवार का दिन सबसे अच्छा है. इसका कहना है कि शुक्र को धन, ऐश्वर्य व सुख, वस्त्र का कारक ग्रह माना जाता है. शुक्रवार को नए कपड़े खरीदने पर शुक्र देव प्रसन्न होते हैं और उनकी विशेष कृपा होती है. अब काेई बताए क्या शुक्रवार, गुरुवार और मंगलवार (जिसे शुभ दिन माना जाता है) को कोई बूरे काम, चोरी, लूट-पाट, हत्या, बलात्कार या प्राकृतिक घटनाएं आगजनी, आंधी-तूफान, बिजली गिरना, बाढ़ आना, भूकंप, भारी बारिश से इमारत गिरना, चक्रवात और भी अन्य दुर्घटनाएं नहीं होती?

शनिवार को शिशु का जन्म होगा तो क्या कोई फेंक देगा?

वहीं कहा जाता है कि शनिवार और रविवार को नए कपड़े नहीं खरीदने चाहिए और अच्छे काम नहीं करना चाहिए. आप ही बताएं नए चीज खरीदने और अच्छे काम करने के लिए कोई भी समय खराब हो सकता है. आप खुद के लिए और दूसरों के लिए अच्छे करेंगे तो हमेशा आपका समय अच्छा चलेगा और जीवन खुशहाल रहेगा. क्या कोई शनिवार या रविवार को (जिस दिन को अशुभ माना जाता है) को किसी के यहां शिशु का जन्म हो जाता है तो उसे कोई फेंक देता है या जीवनभर उसका शोक मनाता है? क्या इस दिन किसी को सड़क पर नोटों की गड्‌डी मिल जाती है या कोई भी सामान मिल जाता है तो उसे फेंक देता है?

अपनी सुविधानुसार करें काम

अच्छे काम करने के लिए लोग मुहूर्त देखते हैं, लेकिन बूरे काम मौका पाते ही कर लेते हैं. समाज में लगातार अपराध बढ़ रहा है. कोई व्यक्ति किसी से लड़ाई करने, चोरी करने, बलात्कार करने और हत्या जैसे घोर जुर्म करने के लिए समय नहीं देखता. ज्योतिष, तांत्रिक, धार्मिक गुरु और अन्य मुफ्तखोर मासूम जनता को उसकी अज्ञानता का फायदा उठाकर शुभ-अशुभ, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, यज्ञ-दान व कई प्रकार के पाखंड के नाम पर लूट रहे हैं. लोग अच्छे काम करने से पहले अपने मां-बाप और परिवार के बुजुर्ग को नहीं पूछ रहे हैं, लेकिन मुफ्त के खाने वालों के पैरों के सामने नतमस्तक होकर अपना भविष्य पूछने चला जाता है. यह कितना शर्मनाक है. लोगों को चाहिए कि कोई भी अच्छे काम करने के लिए दिन और समय के चक्कर में न पड़े और न ही पाखंडियों के पास लुटाने के लिए जाए. अपनी सुविधा अनुसार और घर के बड़े बुर्जुगों की सलाह मुताबिक काम करें तो परिवार में खुशहाली और शांति हाेगी.

- गनपत लाल, सांगठनिक सलाहकार, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

Sunday, 18 June 2023

सबसे खतरनाक पाखंड का वायरस


इस देश में पाखंडियों की कमी नहीं है। इसलिए ग्रामीण-शहरी, अनपढ़-डिग्रीधारी और गरीब-अमीर सभी अंधविश्वासी हैं। ये लोग सुबह से लेकर शाम तक कुछ न कुछ पाखंड करते रहते हैं। सुबह नहाधोकर जोर-जोर से तंत्र-मंत्र, जाप- ध्यान, ऐसा करते हैं, जिससे पड़ोसी को पता चले कि फला व्यक्ति बहुत धार्मिक है, सुबह से उठ जाता है, एक दिन भी नहीं भूलता है और इससे भी सुकून नहीं मिलता तब पड़ोसी के घर की तरफ मुहं कर पोंगा (लाउडस्पीकर) लगा कर धार्मिक गाने बजाने लगते हैं। जिससे पूरा वातावरण से पाखंड की बू आने लगती है, इतनी गंदगी तो नाली से भी नहीं आती है। इस बदबू से ऐसे पाखंड का वायरस उतपन्न होता है, जिससे आस-पास के घर में रहने वाले कमजोर मन के लोगों को भी पकड़ लेता है। फिर यह वायरस दिनों दिन बढ़ता जाता है, व्यक्ति के लिए प्राणघातक होते जाता है और अंधविश्वास के चक्कर में बहुत से लोग जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं। इस वायरस को रोकने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसी दवाई (सोच) की जरूरत है, हर मोहल्ले में ऐसी दवाई मिलनी ही चाहिए तभी हम इससे बच पाएंगे। 

स्वार्थ की उपज है पाखंड

लोग पाखंड क्यों करते हैं? ये बहुत बड़ा सवाल है। व्यक्ति अज्ञानता के कारण इस वायरस का शिकार हो जाता है, ऐसे भी लोग रहते हैं जो अपने आप को बहुत बड़ा नेक आदमी और धार्मिक सिद्ध करने के लिए ये सब दिखावे करते हैं। लेकिन सभी लोग स्वार्थ के लिए पाखंड करते हैं, आर्थिक, शारीरिक और मानसिक लाभ की चाह में ऐसे करते हैं। इन लोगों को लगता है ऐसा करने से चमत्कारी शक्ति मिलेगी या मनोकामना पूरी हो जाएगी। मैं जो कुछ मागूंगा वह सब चीजें मिल जाएंगी। सब पाखंड स्वार्थ के लिए ही किए जाते हैं।

पाखंड फैलाने में पाखंडी धर्म गुरुओं का हाथ

सभी सम्प्रदाय में एक पाखंडी गुरु होता है, जिसमें अलग-अलग पाखंड होते हैं। किसी संप्रदाय में पाखंड के लिए सोमवार को शुभ मानता है तो कोई मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रविवार ऐसे सातों दिनों में अलग-अलग दिन को मानते रहते हैं। ये सब पाखंडी गुरु की उंगली से चलता है, उसी के अनुसार शुभ-अशुभ का निर्णय होता है। जैसे गुरु कहे वैसा ही पाखंड करना रहता है, नहीं तो घर में अशुभ हो जाएगा यह कहा जाता है। गुरु इस पाखंड और लोगों की मूर्खता का भरपूर फायदा लेता है, मोटी रकम के साथ रहने खाने सब फ्री में मिल जाता है और ऐसे गुरुओं की लूट चलती रहती है। जब तक लोग अज्ञानता के अंधरे में रहेंगे तब तक पाखंडी बाबाओं का मौज ही मौज रहेगा। इसलिए हमेशा पाखंड से बचें और विवेक की बत्ती जलाएं ताकि आप किसी के हाथ की कठपुतली न बनें और बेहतर जीवन जी सकें।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन

सर्पदंश का जहर निकालने के नाम पर लोगों को मार डालते हैं ओझा तांत्रिक


सर्प से कौन नहीं डरता? लोग अंधेरे में जाने से पहले टार्च लेना नहीं भूलते हैं, क्योंकि यही डर रहता है कि कही सांप-बिच्छू न कांट ले और हमें उसका जहर का सामना करना पड़े। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में सुविधा के आभाव और खेतखार व पेड़-पौधे के कारण आए दिन सर्पदंश के मामले सामने आते रहते हैं। जिसमें ओझा-तांत्रिक ग्रामीणों को सर्पदंश से बचाने और सर्पदंश के बाद झाड़-फूंक से ठीक करने का दावा करते हैं। उसका बड़ा-बड़ा ड्रामा और कथित चमत्कार से लोग उसकी ओर आकर्षित होकर जाते हैं। गांव में किसी व्यक्ति को सर्प कांट देता है तो उस व्यक्ति को ओझा (बैगा) के पास ले जाता है और बैगा उस मरीज को अनेकों प्रकार के झाड़-फूंक करता है, जिससे मरीज की जान चली जाती है। मृत व्यक्ति के परिवार वाले किस्मत को दोष देते हुए 'भगवान की यही मर्जी थी, इतने ही दिनों के लिए आए थे' यह कह कर शान्त हो जाते हैं। कभी ये नहीं सोचते कि इस ओझा के चक्कर में मृत्यु हुई है। सही समय में डॉक्टर को दिखाते तो उसकी जिंदगी बचाई जा सकती थी, हमें इस ओझा (बैगा) के पास नहीं आना था, ऐसा सोचने का समय कहां रहता है, सब किस्मत के भरोसे रहते हैं।

झाड़-फूंक का ड्रामा

सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को ओझा (बैगा) के पास लाते ही तांत्रिक का ड्रामा चालू हो जाता है। हर एक ओझा-तांत्रिक का भांति-भांति का ड्रामा होता है। जोर-जोर से मंत्र पढ़कर मरीज को भभूत से झाड़ना, फूंकना, भभूत खिलाना, सर्प कांटे स्थान पर भभूत लगाना, उस स्थान पर पानी छिड़कना, मसलना और मुहं से सर्पदंश स्थान के खून को चूसना ऐसे बहुत से मूर्खतापूर्ण कार्य करता रहता है और आस-पास के लोग तमासा देखते रहते हैं। कुछ मरीज इस ड्रामा के बीच में ही खत्म हो जाते हैं। वहीं बहुत से सर्पदंश से पीड़ित लोग ठीक हो जाते हैं। तांत्रिक कहता है अब ये ठीक हो गया और सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को घर ले जाता है, उस व्यक्ति को कुछ नहीं होता है, न ही उस तांत्रिक को कुछ होता है।  लोग उस घटना को लेकर तांत्रिक को सिद्ध तांत्रिक कहकर प्रचार करते हैं। दूसरों को कहता है कि उस तांत्रिक ने सर्पदंश स्थान को चूसकर जहर को पी गया और सर्पदंश के बाद भी व्यक्ति बच गया, तांत्रिक को कुछ नहीं हुआ। जब उसी तांत्रिक के झाड़-फूंक की वजह से सर्पदंश पीड़ित व्यक्ति मर जाता है तो उस समय यहां लोग शांत बैठ जाते हैं, कोई यह नहीं कहता उस तांत्रिक ने उसकी जान ले ली।

सांपों को लेकर सच्चाई

भारत देश में 70 फीसदी सर्प में बिलकुल जहर नहीं होता है। अब बचे 30 प्रतिशत में 10 फीसदी सांपों में भारी मात्रा में जहर होता है, बाकी में नहीं के बराबर होता है। दस फीसदी सांप के काटने से व्यक्ति का बच पाना कठिन हो जाता है। उस तांत्रिक (बैगा) के पास इसी  दस फीसदी सांप के कांटे मरीज की मृत्यु हो जाती है। बाकी 90 फीसदी सर्पदंश के शिकार व्यक्ति बच जाते हैं, इसी से तांत्रिक अपनी शक्ति सिद्धि का दावा करता है। मतलब 100 सर्पदंश व्यक्ति में कुछ ही लोग मर जाते हैं, बाकी सब बच जाते हैं। मर गए उसके लिए किस्मत ने साथ नहीं दिया या भगवान की मर्जी इतने दिनों के लिए ही आया था बेचारा कह कर तांत्रिक अपना पीछा छुड़ा लेता है। 

रायपुर जिले की एक घटना

एक घटना छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के पास के गांव की है। यह बात बारिश के समय की है, जब गांवों में खेती का काम चल रहा था।
मुझे फोन आया और बताया कि 18 साल की लड़की को सांप काट दिया है, हम क्या करें, कहां दिखाए?
तब मैंने पूछा- कौन सा सांप काटा है? उत्तर झट से मिला 'कोबरा'।
(मैं सोच में पड़ गया कोबरा बहुत जहरीला सांप है) मैं जितना जानता था उतना सावधानी बताते हुए कहा तुंरत सरकारी अस्पताल मेकाहारा रायपुर ले आइए।

विज्ञान चौपाल कार्यक्रम का पड़ा प्रभाव

हम कुछ ही समय पहले गांव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विज्ञान चौपाल कार्यक्रम किए थे। वहां उस व्यक्ति ने हमारा कार्यक्रम को बराबर अटेंड किया था। 
35-40 मिनट में हॉस्पिटल लेकर पहुंच गए। मैं और एक साथी पहले से हॉस्पिटल पहुंच चुके थे। मरीज के परिवार वालों से पूछा कि किसी ने देखा सच में 'कोबरा' ही है तो उन्होंने कहा 'हां' हम लोग उस सांप को देखा भी और उस सांप को मारा भी है। फिर डॉक्टर ने देखते ही बता दिया कि इसे सांप ने नहीं काटा है, उन्होंने कहा कि फिर भी कुछ टेस्ट है, इसे तुरंत करा कर दिखाए। टेस्ट से भी पता चला सांप ने नहीं काटा है। डॉक्टर ने बताया कि सांप खेलकर निकल गया और उसका कुछ स्क्रेच रह गया इसलिए ये चिन्ह पड़ा है।

सांप काटने पर पीड़ित को तुरंत  पहुंचाएं अस्पताल

अब यह बात समझने की है कि अगर ओझा-तांत्रिक के पास लेकर जाते तो अनेक ड्रामा करने के बाद ठीक हो गया। फिर क्या लोग उसकी जयजय करना चालू कर देते। कहते कोबरा सांप काटा था उसे तांत्रिक ने ठीक कर दिया कभी ये नहीं पता करता कि सांप काटा है कि नहीं। ऐसे ही सांप जहरीला नहीं होता है या कुछ दूसरा कीड़ा काटा रहता है। सभी से अपील है कि कभी भी इस पाखंडी तांत्रिक के चक्कर में न पड़े। जब भी कोई सांप काटे तो अपने नजदीकी अस्पताल में पीड़ित को पहुंचाएं।

-मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

धन और इज्जत लूटने का काम करते हैं ओझा तांत्रिक


आज इकीसवीं सदी में विज्ञान पृथ्वी से चंद्रमा और मंगल में जा पहुंचा है। लोग आधुनिक कहलाने लगे हैं। आधुनिक युग में भी लोग ओझा-तांत्रिक के जाल में फंसे हुए हैं। गरीब हो या अमीर, अनपढ़ या पढ़ा-लिखा सभी अंधविश्वास के मायाजाल से अछुते नहीं है। ज्योतिष और तांत्रिक लोगों को मूर्ख बनाकर धन और इज्जत लूट रहे हैं और भोलेभाले लोग खुलकर लुटा रहे हैं। इनके पास सोचने-समझने के लिए भी वक्त नहीं है। पूरा समय को तांत्रिक की पूजा सामग्री के इंतजाम में नष्ट कर रहे हैं। भोली-भाली जनता बिना सोचे-समझे धन और इज्जत को इन पाखंडियों के चरणों पर अर्पित कर रही हैं। 

देश में बढ़ रहे बलात्कारी बाबा

व्यक्ति अपनी बुद्धि को उन पाखंडी बाबाओं के पास गिरवी रख देता है, इसीलिए पाखंडी की मीठी-मीठी बातों में आकर पाखंड करता है। खुद तो अंधविश्वास में डूबता है और अपने साथ में परिवार वालों को भी इस दलदल में धकेल देता है। यहां तक छोटे-छोटे बच्चों को भी ले डूबाता है। वहीं महिलाओं को घर के अंदर रखने वाले पुरुष अपनी पत्नी और बेटी को बलात्कारी बाबाओं के गुफाओं में भेज देते हैं। देश में आसाराम, रामरहीम, फलाहारी जैसे बलात्कारी बाबाओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। 

रूढ़ियों को तोड़ने की जरूरत

ज्यादातर लोगों के घरों में सुबह से लेकर रात तक अंधविश्वास का सिलसिला चलता रहता है। परिवार के समझदार व्यक्ति अगर पाखंड को लेकर टोकता है, तो उसकी खिल्ली उड़ाकर उसे मूर्ख, अधर्मी, कहकर उसकी मजाक उड़ा कर उसे शांत कर देते हैं और वह समझदार व्यक्ति भीड़ में अकेला पड़कर चुप रह जाता है। यहां पर मुझे राहुल सांस्कृत्यायन की बातें याद आती है *'रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं।'* उन्होंने सच ही कहा है।

तंत्र-मंत्र का ढोंग करने वाले खुद जाते हैं अस्पताल

कथाकार भी भगवान कथा के नाम पर धर्म का चोला ओढ़कर लोगों को ठगने का काम कर रहा है। अवैज्ञानिक बातों का जोर-शोर से प्रचार कर लोगों को अंधविश्वास में ढकेल रहा है और लाखों, करोड़ों रुपए ठग कर ले जा रहा है। समाज को ऐसे पाखंडी लगतार लूटते आया है और अभी भी लूट रहा है। पाखंडियों को स्वर्ग-नर्क, नक्षत्र, कुण्डलीदोष, पाप-पुण्य, भाग्य, किश्मत जैसी बातों के अलावा कुछ नहीं आता है। ये सब कुछ धूर्त लोगों के बनाए हुए लूटने के हथकंडे हैं, लेकिन इन काल्पनिक बातों पर बहुजन लोग विश्वास करते हुए आ रहे हैं। यही तांत्रिक और ज्योतिष जब बीमार पड़ते हैं तो डॉक्टर के पास अस्पताल में इलाज कराने के लिए जाते हैं। इन पाखंडियों को अगर तंत्र-मंत्र की शक्ति पर विश्वास है तो डॉक्टरी दवाई लेना बंद कर देना चाहिए।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बनेगा बेहतर समाज

महामारी (कोरोना) के समय पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूक कुछ काम नहीं आया। इस पाखंडी के चक्कर में जिस किसी ने आया उसका अंत ही हुआ। ज्यादातर लोग दोगला चरित्र के होते हैं, इधर भी जय, उधर भी जय। जब विज्ञान की जरूरत पड़ती है तो विज्ञान के चरण में जाते हैं, बाकी समय पाखंडी बने फिरता है, विज्ञान के विरोध में काम करता है। जब दो पैरों को अलग-अलग छोर में रखकर खिंचाव होगा तो उस व्यक्ति का फटना तय है और फट रहा है। धीरे-धीरे पाखंडियों का धंधा बंद हो जाएगा, सब पाखंड खत्म हो जाएगा। अंधविश्वास बहुत बड़ी मानसिक बीमारी है और इसका अंत जरूर होगा। उस समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा और बेहतर समाज होगा। कोई जाति-धर्म नहीं होगा और सब इंसान होंगे।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन

मूल नक्षत्र ज्योतिषियों का धंधा


लोगों को ज्योतिष हमेशा ठगते आया है और लोग बिना सोचे समझे उसकी जाल में फंसकर मेहनत की कमाई को लुटाते आ रहे हैं। इसमें मूल नक्षत्र भी एक ठगने का षड्यंत्र है। बच्चा पैदा होते ही नक्षत्र देखने के लिए किसी ज्योतिष को बुला लाते है और उससे बच्चा किस नक्षत्र में हुआ है उसे देखने को कहते हैं।

क्या कहते हैं ज्योतिष

ज्योतिष के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं, जिसमें 6 मूल नक्षत्र है। नक्षत्र का स्वामी केतु को माना जाता है। आठ वर्ष के बाद मूल नक्षत्र का प्रभाव अपने आप खत्म हो जाता है ऐसा कहा जाता है। मूल नक्षत्र में बच्चा पैदा हुआ है तो उस शिशु को अपने पिता से दूर रखा जाता है, पिता की नजर, छाया शिशु पर नहीं पड़ना चाहिए। अगर पड़ गए तो पिता मर जाएगा या नवजात शिशु की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। मूल नक्षत्र को 27 दिनों के अंदर में तोड़ना रहता है ऐसा ज्योतिष का कहना है।

ज्योतिष नक्षत्र के नाम पर लूटता है

मूल नक्षत्र तोड़ने के नाम पर ज्योतिष की बहुत से पैसे की कमाई हो जाती है। लोगों को नक्षत्र के नाम पर डराया जाता है जिससे उसका व्यापार चलता रहे। अगर मूल नक्षत्र का प्रभाव होता तो उस समय जन्में सभी बच्चें में इसका प्रभाव देखे जाते, लेकिन ऐसा नहीं होता है। एक हिन्दू के यहां जन्मा शिशु को मूल नक्षत्र का डर रहता है तो दूसरी ओर मुस्लिम या अन्य किसी धर्म में जन्में शिशु को मूल नक्षत्र से कोई लेना-देना नहीं होता है। अगर ग्रह का प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है तो हर धर्म में अलग-अलग प्रभाव कैसे हो सकता है? एक ही होना चाहिए। विज्ञान का नियम हर व्यक्ति के लिए एक ही होता है। किसी से भेदभाव नहीं करता है। हिन्दू है तो उसे कोरोना होगा या मुस्लिम है तो उसे कोरोना नहीं होगा। ऐसे तो नहीं होता है। कोई भी वायरस या रोग कोई भी धर्म और जाति को नहीं देखता है, तो ये नक्षत्र कैसे एक ही धर्म के लोगों के लिए है। 

स्वार्थ के लिए नक्षत्र का खेल

ज्योतिष अपना स्वार्थ के लिए नक्षत्र का खेल खेलता है। कोई भी ग्रह का अगर प्रभाव अच्छा या बुरा पड़ेगा तो सभी पर बराबर पड़ेगा। एक शिशु गरीब के यहां जन्म लिया और उसी समय अमीर के यहां भी शिशु का जन्म हुआ तो क्या दोनों में मूल नक्षत्र पड़ेगा? बिल्कुल नहीं, नक्षत्र का प्रभाव नहीं होता है। यहां पर आर्थिक स्थिति सबसे अधिक मायने रखती है। गरीब के घर में जन्में शिशु की सही देखभाल नहीं हो पाती है, जिससे उस शिशु का सही विकास नहीं हो पाता है। इस वजह से उसे स्वास्थ्य, शिक्षा और बेहतर रोजगार नहीं मिल पाते हैं। उसे हर समय जिंदगी तकलीफ देती है और पढ़ने के समय में रोजगर की तालाश में लगा रहता है। खाने के लिए संघर्ष करता रहता है। 

आर्थिक और सामाजिक स्थिति का प्रभाव

वहीं दूसरी तरफ अमीर के घर में जन्में शिशु का सही समय में सब सुख-सुविधा के कारण शिशु को कोई कष्ट नहीं होता है और वह शिशु को हर चीज, जो वह चाहता है पैसे की बल बूते मिल जाता है। स्वास्थ्य के साथ ही बेहतर शिक्षा मिलने के कारण उसे कोई तकलीफ नहीं होती है। ये सब कारण के पीछे कोई मूल नक्षत्र नहीं होता है, बल्कि परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति है. लेकिन लोगों की गरीबी और अज्ञानता का फायदा उठाकर ज्योतिष अपना धंधा चमकता रहता है और अपनी जेब भरता रहता है। कुछ बुरा हो जाने के भय से लोग ज्योतिष के जाल में फंस जाते हैं। हमें चाहिए कि बच्चे की परवरिश, खान-पान, साफ-सफाई और शिक्षा पर ध्यान दें और डर की दुकान चलाने वाले ज्योतिष्यों से दूर रहे तभी हमारी आने वाली पीढ़ी का बेहतर भविष्य होगा।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

शादी के लिए कुंडली मिलाने के बजाय कराएं ब्लड जांच


हिंदू धर्म में शादी के लिए भावी वर-वधु की कुंडली मिलाने की आज सामान्य परंपरा बन गई है। कुंडली में 36 गुण होते हैं, जिसमें 18 गुण 50 प्रतिशत गुण मिलना अनिवार्य होता है। अगर नहीं मिलता है, तो रिश्ते से मना कर देता है, चाहे कितना भी बढ़िया घर से रिश्ते हो। ज्यादातर लड़का-लड़की की शादी कुंडली के कारण ही रुक जाती है और वह व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता है, अगर करना भी चाहे तो घर वाले उसे बिना कुंडली के शादी के लिए मना कर देते हैं। कुंडली से कोई फायदा नहीं, यह ज्योतिषयों का केवल धंधा है, कुंडली की जगह होने वाला जीवन साथी के परिवारिक पृष्ठभूमि को जाने। लड़का/लड़की में कोई अवगुण है क्या? उसके लिए आस-पास उसके दोस्तों से जानकारी प्राप्त करें। कोई अनुवांशिक बीमारी का शिकार तो नहीं है, उसे ब्लड टेस्ट से जानकर दोनों के टेस्ट को मिलान करें। यानी खुद के लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए अनुवांशिक बीमारियों से बचें। बहुत सी जातियों में एक ही जाति में शादी करने के कारण अनुवांशिक बीमारियां जाने का नाम नहीं ले रहा है। जाति को लेकर जितना कट्टरता है, उतना ही उस जाति की अनुवांशिक बीमारियां फैल रही है।

कुंडली मिलाने के बाद घर में अशांति क्यों

ऐसा भी देखने को मिल जायेंगे की कुंडली में 36 गुण मतलब पूरा 100 प्रतिशत मिलने के बावजूद शादी के बाद कुछ ही दिनों में पति/पत्नी की मृत्यु हो जाती है। पति शराबी रहता है या शराबी हो जाता है और आए दिन परिवार में खटपट, मारपीट और लड़ाई होती रहती है। उस समय उस कुंडली मिलाने वाला ज्योतिष को कभी नहीं पूछते ऐसा क्यों हुआ? क्या कुंडली ठीक से नहीं मिलाया था या कुंडली देखते समय अंधे हो गया था? ऐसा प्रश्न कोई उस ज्योतिष से नहीं पूछता। और सब अपना भाग्य को दोष देकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। अगर दाम्पत्य जीवन खुशमय बीत रहा हो तो उसके कारण कुंडली को मानता है।

सही गुण को छोड़कर कुंडली के काल्पनिक गुण के शिकार

सही अर्थ में देखा जाए तो कुंडली लोगों को भ्रमित करने का तरीका है, इसमें कुछ गुण नहीं होता है। कोई भी ज्योतिष किसी को बिना देखे परखे उसके गुन को कभी नहीं बता सकता कि उस व्यक्ति में कितना गुण-दोष है। अगर कुंडली से गुण दिखता तो वह पहले खुद का और अपना परिवार का गुण देखता, तो औरों के गुण-दोष देखने से अच्छा होता। कोई भी व्यक्ति के गुण देखने के लिए उसके परिवारिक पृष्ठभूमि, आस-पास का वातावरण और दोस्त कैसे है, उसे जानना होगा। उसके व्यवहार का अध्ययन करना होगा। कैसे व्यवहार करता है, झगड़ालु तो नहीं है, नशे तो नहीं करता होगा, चरित्र तो ठीक है आदि गुण-अवगुण को देखना होगा। ये सारी बाते देखने के बाद भी कुंडली के गुण देखना नहीं भूलते, जिससे बढ़िया रिश्ता से कुंडली में दोष देख कर उस रिश्ता को मना कर देते हैं और कुंडली के काल्पनिक बातों के शिकार हो जाता है। कुछ लोग तो कुंडली को भगवान का लिखा हुआ मानकर कुंडली गुण मिलने के बाद सीधे शादी कर लेता है। रिश्ता कैसा है, उसका व्यवहार क्या है, जानने की कोशिश नहीं करता है, फिर बाद में रोना रोता है, भाग्य को कोषते रहता है।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

अंधविश्वास का विरोध जरूरी क्यों


आप सभी जानते हैं कि अंधविश्वास ने समाज को कितना क्षति पहुंचाया है और पहुंचा रहा है। यह देश और समाज के लिए बहुत घातक है। अंधविश्वास ने कई लोगों की जिंदगी बर्बाद की है और बहुत से घर उजाड़ा है। अंधविश्वास, पाखंड और सामाजिक कुरीतियां लोगों के आर्थिक, शारिरीक और मानसिक रूप से शोषण किया है, सबको ठगने का काम किया है। अंधविश्वास लगातार समाज को कमजोर बना रहा है। 

जैसे कोई भी नशा समाज के लिए जानलेवा है, ठीक इसी प्रकार अंधविश्वास समाज को दीमक की तरह कुतरता जा रहा है और समाज इस कष्ट का बीड़ा उठाते आया है। आज यह दीमक भारी रूप ले चुका है और समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती साबित हो रही है। विज्ञान ने हमेशा नई खोज के साथ इसका पर्दाफाश करते हुए आ रहा है। आज लोग विज्ञान का उपयोग करते हैं, लेकिन आधुनिक होकर भी बहुत पिछड़ेपन को दर्शाता है। व्यक्ति कितना भी सभ्य बन जाएं, लेकिन अंधविश्वास से उबर नहीं पा रहे हैं, ये बहुत ही दुखद है कि पढ़-लिख कर भी लोग अंधविश्वास से निकलना नहीं चाहते हैं। जो पढा-लिखा नहीं है वे तो अज्ञानतावश अंधविश्वास के शिकार हो रहे हैं, उसे सही-गलत कोई बताने वाला नहीं है, लेकिन डिग्रीधारी लोग जान-बूझ कर भय की वजह से अंधविश्वासी बने वैठे हैं, इससे बड़े मूर्ख कोई नहीं हो सकते।

इतिहास गवाह है, डायन के नाम से बहुत सी महिलाओं की जान चली गई है। अपने ही परिवार के लोगों को जादू-टोने के शक में हत्या की गई। ओझा तांत्रिक ने लोगों को बहुत लूटा है और लूट रहा है। तांत्रिक बाबाओं ने महिलाओं का शारीरिक शोषण किया है। ऐसे बहुत से अंधविश्वास के कारण समाज को नुकसान उठाना पड़ता है, इसीलिए अंधविश्वास, पाखण्डवाद और सामाजिक कुरीतियों का हमें पूरजोर विरोध करना चाहिए और लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करना होगा। इसी में देश और समाज का हित है और देश का विकास होगा।

-मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

बचपन से ही अंधविश्वास के बीज


बच्चा पैदा नहीं हुआ रहता है और अंधविश्वास चालू हो जाता है। जब बच्चा गर्भ में रहता है तो उसकी मां को नजर न लगे इसके लिए तरह-तरह के टोटके किए जाते हैं। मां और बच्चा स्वस्थ रहे इसके लिए अच्छा खान-पान की जरूरत होती है। हरी-हरी सब्जी, फल और प्रोटीन युक्त खाने की जरूरत होती है, लेकिन यहां इस अवस्था में महिला खुद अंधविश्वास के चक्कर में पड़ी रहती है या घर के लोग अंधविश्वासी है तो उसके आदेश को ठुकरा नहीं सकती है, इसलिए टोटके करती है। समाज पुरुष प्रधान है, यह बात भी सत्य है, लेकिन इसमें अभी मैं नहीं जाऊंगा। महिला पुरुष के आदेश को मानती है, लेकिन ज्यादातर महिलाएं ही अंधविश्वास में पड़ती है, पति अंधविश्वासी नहीं है तब भी पत्नी पति को यह कह कर चुप करा देती है कि तुम कुछ नहीं जानते जी! इस प्रकार महिलाएं बाबाओं के चक्कर में फंस जाती हैं।

बच्चे पैदा होते ही कोई पोंगा पंडित को बुलाया है, फिर क्या! वही मूल-अमूल नक्षत्र और पंचाग जैसे काल्पनिक चीजों पर समय और धन की बर्बादी शुरू हो जाती है। इस नक्षत्र में हुआ तो मूल उस नक्षत्र में हुआ तो अमूल, अजीब-अजीब बातें करके पंडितजी पोंगा बजाना चालू कर देता है। जजमान को डराया जाता है, मूल को नहीं कटाएगा तो बच्चा ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। अगर बच भी गया तो परिवार को चैन से रहने नहीं देगा, ऐसी बहुत सी बातें लगातार बताई जाती है। घर में संतान पैदा होने की खुशी को गम में बदल देता है। सभी लोग बच्चे को लेकर चिंतित हो उठता है और पंडित के पैरों पर गिरकर कहता है- पंडित जी आप किसी भी तरह से इस बालक के मूल को अमूल कर दीजिए।

फिर पंडित जी (मुस्कुराते हुए) ज्यादा कुछ नहीं करना है, (लंबी लिस्ट जजमान के हाथ में देते हुए) ये कुछ पूजा सामग्री लिख दिया हूं। जब इन चीजों की व्यवस्था हो जाए तो सूचित कर देना और चला जाता है।

शिशु की गर्दन पर ताबीज इस प्रकार बांधा जाता है कि उससे बड़े बच्चा अकेले में खेलते हुए उस ताबीज के धागे को पकड़कर खीच दे तो मृत्यु हो जाए। फिर मां-बाप रोते-चिल्लाते भाग्य को दोष देता रह जाएंगे, कुछ नहीं कर सकते। मस्तक में बड़ा सा काला टीका और आंख में काजल इस प्रकार लगाए जाते हैं कि आंख दिखाई ही न पड़े। अच्छा खासा दिखने वाला चेहरा को कौआ जैसे काला बना देता है और कहता है बच्चे को किसी की नजर न लगे। गजब है दोस्तों बच्चे की नजर बंद करके और चेहरा को काला करके कैसी हास्य वाली बातें कही जाती है। किसकी नजर की बात करते हैं? किसकी नजर से बच्चा को बचाया जाता है? घोर आश्चर्य! जिस-जिस की नजर पड़ती है सब अपने ही होते हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नाते ही होते हैं तो किसकी नजर लग जाएगी। वैसे कोई बुरी नजर नहीं होती है। यह पूरी तरह से काल्पनिक है और इससे पाखंडियों का धंधा चलता है।

छोटे बच्चें में अधिक टोटके देखने को मिलता है इसके प्रमुख कारण है- बहुत बीमार पड़ना। बच्चे बहुत से बैक्टेरिया और वायरस से नहीं लड़ पते हैं और बार-बार बीमार पड़ जाते हैं। इससे बच्चे के अभिभावक को लगता है कि किसी डायन, बुरी आत्मा, का प्रकोप लग गया है, किसी की बुरी नजर लग गई है, इसलिए बार-बार शिशु को बीमार कर देता है और टोटका को जारी रखता है। इस कार्य में अनपढ़ लोग के साथ डिग्रीधारी लोग भी अछुते नहीं है। समाज में पढ़े-लिखे होने का सम्मान पाने के बावजूद भी ऐसे अंधविश्वास से आज तक ऊबर नहीं पाए हैं। समझदार लोग हर चीजों को समझने का पूर जोर कोशिश कर रहे हैं। कोई तंत्र-मंत्र, बुरी नजर, काला जादू, भूत-प्रेत, डायन कुछ नहीं होता है; ये सब मन का भ्रम है। कुछ भी कथित चमत्कार होता है, वह आपके लिए तब तक चमत्कार है जब तक आप उसके कार्य-कारण को नहीं जानते हैं, जब कार्य के पीछे होने वाला कारण को खोज लेते हैं तो वह चमत्कार नहीं रह जाता है। चमत्कार दिखा-दिखा के ओझा-तांत्रिक बाबा लोगों को डरा-डराकर ठगने का काम करते हैं। आप सतर्क रहिए और शुरक्षित रहिए।

-आपका
मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, अध्यक्ष, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

अंधविश्वास का डर जानलेवा


गांव और शहर, अनपढ़ और पढ़े-लिखे व्यक्ति सब लोग डायन और भूत के भय के कारण थरथर कापते रहते हैं। जब हम छत्तीसगढ़ की बात करते हैं तो यहां के लोग डायन और भूत की कहानी सुनाने लग जाते हैं। और डर के कारण अच्छे-अच्छे लोग के पसीने निकल जाते हैं। कोई झूठी बात को बार-बार और जगह-जगह बोलने से वे बातें सच्ची जैसी लगती हैं। अभी तक मैं जीतने भी बात सुना हूं, उसके लिए मुझे सख्त प्रमाण नहीं मिला। सब हवा-हवाई बातें बताते हैं। 

गांव के कुछ ओझा-तांत्रिक (बइगा-गुनिया) से भी बातचीत की, फिर वे लोग भी गोल-मटोल और उल्टा-पुलटा ढंग से जवाब दिए। हमारा पढ़े-लिखे समाज में आज भी महिलाओं को डायन के नाम पर लगातार मारने की घटना घोर अंधविश्वास को दिखाती है। सोचने की बात यह है कि आज पढ़े-लिखे व्यक्ति भी गांव के अनपढ़ व्यक्ति की काल्पनिक कहानी को मान कर उससे भी आगे निकल गइ हैं। जबकि पढ़े-लिखे व्यक्ति को चाहिए कि अंधविश्वास के कुंआ में डूबते हुए जनमानस को निकाले। लेकिन क्या करें ये लोग अंधविश्वास और झूठी बातों के तूफान में उड़ रहे हैं।

छोटी सी उम्र से सुनते आ रहा हूं कि डायन (टोनही) के पास ऐसी शक्ति होती है कि वे हजारों लोगों को एक अकेले मार सकती है। आग और पानी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। तब मैं ये पूछना चाहता हूं कि गांव में कोई महिला को डायन कह कर लोग मारते हैं, तब उस समय वह अपनी जान को क्यों नहीं बचा पाती। अपनी जान को नहीं बचा सकती वह बेचारी क्या दूसरे की जान ले सकती है और दूसरे के अहित कर सकती है। एक और बात सुनने में मिलते हैं कि डायन से सिर्फ तांत्रिक ही मुकाबला कर सकता है, कहते हैं कि तांत्रिक के पास भी बड़ी-बड़ी शक्तियां होती हैं। वह कितनी भी बीमारी हो एक ही बार में ठीक कर देता है। तब मैं ये पूछता हूं कि हमारे देश में और छत्तीसगढ़ में इतने अस्पताल और डॉक्टरों की बाढ़ कैसे आ गई है। 

तांत्रिक से बीमारियों का इलाज होता तो अस्पताल में भीड़ नहीं होती

गांव के तांत्रिक से सभी बीमारियों का इलाज होता तब ये भीड़ अस्पताल में नहीं दिखती। जिन तांत्रिक सभी बीमारी और समस्या के निपटारा की बात करते हैं वे खुद डॉक्टर के अस्पताल में क्यों इलाज करता है, उसके पास तो सभी बीमारियों से निपटने की शक्ति है तो खुद इलाज नहीं करता। जादू-टोना, ओझा-तांत्रिक समाज के अंदर ऐसे समा गए है जो समाज के लिए बहुत खतरनाक है। जब तक से ये बीमारी के नाश नहीं होती है, तब तक लोग डर-डर कर मरते रहेंगे।

गांव में आज भी कोई व्यक्ति को बुखार और दूसरी बीमारी होती है तो वे डॉक्टर को नहीं दिखा कर ओझा-तांत्रिक के पास जाते हैं। भले उसकी जान चली जाए। एक मेरे करीबी के पढ़े-लिखे व्यक्ति जिसकी बच्ची के शरीर में खाज-खुजली हो गई थी वे तांत्रिक के पास झाड़फूंक करवाता था। इस ओझा-तांत्रिक के चक्कर में डॉक्टरी इलाज नहीं हो पाया तो उसकी बच्ची की खुजली शरीर में फैलने लगी तब मैं इसको कहा कि इसका इलाज कोई चर्म रोग विशेषज्ञ से कराए, तब वे मेरी बात को बहुत मुश्किल से माना और डॉक्टर के पास ले गए तब जाकर वह बच्ची ठीक हुई।

सरकार आंख बंदकर देख रही तमाशा

अब जो कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़े हैं और जो पढ़-पढ़ा रहे हैं। वे भी ऐसे झाड़-फूंक में विश्वास करते हैं तो गांव के साधारण व्यक्ति से क्या उम्मीद कर सकते हैं। गांव के अनपढ़ लोग तो ये पढ़े-लिखे (डिग्रीधारी) लोगों को देखकर उसके पीछे-पीछे जाते हैं। इस प्रकार के समाज में अंधविश्वास को फैलाने में ये पढ़े-लिखे अंधविश्वासी लोग का बड़ा हाथ है। वैसे अगर तांत्रिक की बात करें तो ये लोग बीमार व्यक्ति को टोटके और भूत-प्रेत, डायन, प्रेत के भय दिखा के पैसा लूटता है। ऐसे अंधविश्वास फैलाने वालों पर कठोर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। जिससे हमारा समाज को अंधविश्वास की दलदल से बचाया जा सके, लेकिन सरकार आंख बंदकर तमाशा देख रही है।

बचपन में सुनी हुई काल्पनिक कहानियां कोमल मन में डालती है खतरनाक प्रभाव

जानकार लोग कहते हैं कि बचपन में सुनी हुई काल्पनिक कहानियां बच्चों के कोमल मन में खतरनाक प्रभाव डालती है। जिससे वे व्यक्ति जीवन भर नहीं निकल पाता है। मनुष्य बच्चे के जन्म होते ही उसके गले पर ताबीज और हाथ में काला धागा, यहां तक के उसके पैर में भी काला धागा बांध देते हैं। ये अंधविश्वास के धागे फिर जीवन भर नहीं छूटते। जब बच्चे अपने माता-पिता से पूछते हैं कि ये धागे और ताबीज-कंडा को किसलिए पहने, तब वे बच्चे को डांटकर चुप करा देते हैं। नहीं तो तरह-तरह के प्रेत और डायन की कहानियां सुनाकर बच्चे का मनोबल को गिराया जाता है। जो उस बच्चे की उम्र भर कष्ट देता है।

ऐसे में कैसे विज्ञान को पढ़ और समझ पाएंगे बच्चे

जब वे बच्चे जानने-समझने के लायक बड़े हो जाता है तब भी से वे वैज्ञानिक सोच को नहीं अपना सकता और अंधविश्वास की बेड़ी में बंधे रहते हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि जो बच्चे विज्ञान और गणित की पढ़ाई करते हैं, वे भी मंत्र-तंत्र, भूत-प्रेत, डायन जैसी चीजों पर विश्वास करते हैं और ताबीज-कंडा लटकाकर घूमते हैं। तब उस बच्चे पर मुझे तरस आता है कि ये क्या विज्ञान को समझ पाएगा और क्या मिसाइल और विज्ञान के क्षेत्र में खोज कर पाएगा और क्या डॉक्टर बनकर मरीज को बचा पाएगा? अब देश-समाज को बचाना है तो अपने बच्चे को वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचार को बताएं और सीखाएं। काल्पनिक बातों और अंधविश्वासों का खुलकर विरोध करें, तब हमारी आने वाली पीढ़ी बच पाएगी।

लेखक - गनपत लाल (छत्तीसगढ़ी से हिंदी अनुवाद - मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार)

नींबू मिर्च के साथ 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'

नींबू-मिर्च के साथ 'बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला'

मैं सड़क पर मोटरसाइकिल से जा रहा था,
मेरे सामने रिक्शा चल रही थी,
मैंने देखा,
रिक्शा के पीछे नींबू-मिर्च के साथ
बहुत भयानक चित्र के साथ लिखा था
'बुरी नज़र वाले तेरा मुहं काला'
मैं दोबारा उसे फिर पढ़ा और
मेरी गाड़ी के आईने पर मैं अपनी सूरत देखा,
सच कहूं मेरा मुहं काला था,
लेकिन आप सब जानते है,
मेरी नजर बुरी नहीं है।

काला तो मैं बचपन से ही हूं, 
लेकिन कुछ काला शहर की धूल, 
प्रदूषण के कारण और भी काला हो गया था।
बुरी नजर कुछ नहीं होती है।
नींबू-मिर्च के टोटका किसके लिए?

मकान, दुकान, ठेले, घर के दरवाजे पर 
नींबू-मिर्च लटके दिखाई देते हैं
कुछ समय हम मान ले,
शहर में बहुत अपराध बढ़े है
लेकिन अपराधी को पकड़ने के लिए होती है पुलिस
आज तक किसी टोटके ने अपराध को नहीं रोका,
न ही सड़क दुर्घटना से हमें बचाया।
तो नींबू-मिर्च के टोटके क्यों?

नींबू-मिर्च जब सूख जाते हैं
तब उसे रोड पर फेंक देते हैं।
अंधविश्वासी व्यक्ति जब रास्ते पर चलता है
उस टोटका से बचने के लिए
कहीं अपशगुन मेरे में न आए,
ऐसे सोचते हुए,
घबराते हुए चलता है।
यह भी देखने को मिला है कि
घबराहट के कारण दुर्घटना भी घटी है।

तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, डायन
सब मन का भ्रम है।

- मनोवैज्ञानिक टिकेश कुमार, रायपुर

बच्चों को अंधविश्वास से रखें दूर

नवजात शिशु के जन्म से पहले गर्भ में ही उसके लिए अंधविश्वास का सिलसिला शुरू हाे जाता है. गोद-भराई के रस्म के नाम पर कई प्रकार के पाखंड किए जाते हैं. गर्भवती महिला को सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय खाना न खाने और घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है. मानव जीवन में सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण जैसे भौगोलिक घटनाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिल पुराने और रूढ़ीवादी लोग कई प्रकार के भ्रम गर्भवती महिलाओं को लेकर पाल रहे हैं.

शिशु के जन्म के बाद न पड़ें शुभ-अशुभ के फेर में

घर में या अस्पताल में जब शिशु का जन्म होता है तो परिवार वाले कई प्रकार के अंधविश्वास की चपेट में आ जाते हैं. शिशु का जन्म कहां हुआ, कौन सा दिन, कौन सा समय और कई प्रकार के प्रश्ननों को लेकर उलझ जाते हैं. इसके बाद समय, दिन और स्थान शुभ है कि नहीं इसको लेकर पाखंडी ज्योतिष के पास जाकर बच्चे का भविष्यवाणी करते हैं, इसे कौन बताए जाे खुद का भविष्य नहीं जानता वह कैसे मासूम का भविष्य बताएगा. बच्चे के घरवाले उसका नाम भी खुद से नहीं रख सकता. नाम के लिए भी मुफ्तखोर से पूछते है कि कौन सा अक्षर से नाम रखा जाए. तब वह बताता है कि इस प्रकार का नाम रखना चाहिए. लोग मानसिक रूप से गुलाम हो गए हैं. जन्म से लेकर मृत्यु तक अंधविश्वास और पाखंड का सिलसिला चलता रहता है.

अवैज्ञानिक क्रियाकलापों का बच्चों पर पड़ता है बुरा प्रभाव

परिवार में होने वाले पाखंड, अंधविश्वास और अवैज्ञानिक क्रियाकलापों का प्रभाव बच्चों के मन में बहुत ज्यादा पड़ता है. पुरानी और रूढ़ीवादी सोच के घर में पलने वाले बच्चे तार्किक विचारों से दूर रहता है. बचपन से ही अंधविश्वासी परिवार मासूम को पाखंड और अंधविश्वास की दलदल में धकेल देता है. अपने बच्चे के माथे पर अंधविश्वास का कलंक लगा देता है. मासूम के हाथों और पैरों में काले धागे बांधकर उस पर पाखंड की कालिख पोत देता है. यहीं नहीं मासूम के गले और भुजाओं पर ताविज भी लटका दिए जाते हैं. जब बच्चे सावल करने लगते हैं, तो उसके घरवाले उसे डरा-धमकाकर चूप करवा देते हैं. मासूम को धमकाकर कहा जाता है कि जो भी करता-धरता है सब भगवान करता है. इस प्रकार भगवान और शैतान का भय पैदा करके बच्चों का मनोबल कमजोर किया जाता है. 

बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर दें ध्यान

घर में चल रहे पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, अगरबत्ती-दीप, दीवारों पर टंगे भयानक रूप वाली देवी-देवताओं की तस्वीरें और कई प्रकार के पाखंड का प्रभाव बच्चों के कोमल मन पर पड़ता है. ये सब क्रिया-कलाप बच्चों को मानसिक रूप से पंगु बना रहे है. वहीं पालकों को चाहिए अपने बच्चों को साफ-सुथरा रखें और पूरी तरह से अंधविश्वास से दूर रखें. बच्चों की शिक्षा पर खास ध्यान दें और उसके स्वास्थ्य व खान-पान पर भी धन खर्च करें, तभी आने वाली पीढ़ी का भविष्य बेहतर होगा.

- गनपत लाल, सांगठनिक सलाहकार, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ)

अंधविश्वास उन्मूलन की जिम्मेदारी


आजकल अंधविश्वास चरम सीमा पर है. सुबह अखबार के पन्ने पलटते ही राशिफल दिख जाएगा. टेलीविजन चालू करते ही कोई ज्योतिष भविष्यफल बताते हुए दिखाई देगा. दिन के उजाले हो या रात के अंधेरे सभी जगहों पर अंधविश्वास की काली छाया व्याप्त है. व्यक्ति के जन्म से पहले व मृत्यु के बाद भी अंधविश्वास का सिलसिला जारी रहता है और इसके फेर में लोग खुद व अपना पूरा परिवार का नुकसान करते रहते हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है तमाम अंधविश्वास, पाखंड और रूढ़ीवाद खत्म करेंगे कौन?

सभी अंधविश्वासों का उन्मूलन बुद्धिजीवी वर्ग की जिम्मेदारी

सभी अंधविश्वासों का उन्मूलन की जिम्मेदारी बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों की है. अब यह समझदार लोग कौन है? इसमें हम शिक्षक, पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक, चिकित्सक और कलाकार को शामिल कर सकते हैं, लेकिन क्या सच में ये लोग तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टीकोण के हैं. आप देखेंगे इनमें से बहुत से लोंगों की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है. ये लोग खुद अंधविश्वास के जाल में जकड़े हुए हैं और आम आदमी इनको देखकर अंधविश्वास की खाई में भेड़धसान गिर रहे हैं.

समाज में शिक्षक का महत्पूर्ण स्थान

समाज में शिक्षक का महत्पूर्ण स्थान है. शिक्षक ही बच्चों को अज्ञानता से ज्ञान के प्रकाश में ले जाते हैं, लेकिन आज बच्चों के स्कूल में ही अंधविश्वास और पाखंड का प्रशिक्षण मिल जाता है. भारत देश धर्मनिरपेक्ष होने के बाद भी कक्षा लगने से पहले सरस्वती वंदना की जाती है. कक्षाओं में देवी-देवताओं की तस्वीरें लटकी दिखाई देगी. कक्षा प्रवेश से पहले विद्यार्थी सरस्वती की तस्वीर की पूजा करते हैं. गुरूवार को सरस्वती पूजा के लिए नारियल फोड़ा जाता है. ये सब कार्य वहां के शिक्षकों के नेतृत्व में होते हैं. जब ज्ञान देने वाले ही अज्ञानता में डूबे हो तों बच्चों में तार्किक और वैज्ञानिक सोच की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब बच्चों को खुद पर विश्वास न होकर खुदा पर भरोसा होने लगता है तो उसका मनोबल पूरी तरह से कमजोर हो जाता है. बच्चे मेहनत में कम और पूजा-पाठ व पाखंड में ज्यादा ध्यान देने लगते हैं, जिससे उसका भविष्य अंधकार में चला जाता है.

बच्चों के मन से भगवान और शैतान का डर काे करें दूर

बच्चों के भविष्य के लिए जिम्मेदार शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों के मन से भगवान और शैतान का डर काे दूर करें. साथ ही उनके अंदर तार्किक और वैज्ञानिक समझ विकसित करें. बच्चों को आसपास घटने वाली घटनाओं के बारे में वैज्ञानिक ढंग से समझाएं. काल्पनिक बातों का खुलकर खंडन करें.

अंधविश्वास फैलाने में सबसे बड़ा हाथ मीडिया का

आजकल अंधविश्वास फैलाने में सबसे बड़ा हाथ मीडिया का है. इसके अंतर्गत प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया को रख सकते हैं. आज पत्रकारिता पूरी तरह से मर चुकी है. पत्रकारिता के नाम पर नेताओं और पाखंडी बाबाओं की चाटुकारिता हो रही हैं. मीडिया सर्कुलेशन और टीआरपी बढ़ाने के लिए कई घटिया हथकंडे अपना रहा है. राषिफल, भविष्यफल, इच्छाधारी नाग-नागिन, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, दिव्य-चमत्कार जैसी काल्पनिक चीजों को परोसने में अखबार, टेलीविजन और वेबपोर्टल लगे हुए हैं. इसके अलावा डरावनी भूत-प्रेत वाली फील्में धड़ल्ले से बन रही है. सुबह से लेकर रात तक लोग यहीं चीजें देखकर विवेक को खो रहे हैं. मीडिया को चाहिए की सभी काल्पनिक चीजों का खंडन कर ज्ञानवर्धक सामग्री प्रकाशित और प्रसारित करें. सभी पत्रकारों की जिम्मेदारी है कि वे लोगों में वैज्ञानिक चेतना जगाएं, तभी बेहतर समाज का निर्माण हो पाएगा. वहीं लेखकों को भी चाहिए कि वे तार्किक कहानी, उपन्यास और लेख लिखें, जिससे लोग सही ढंग से जीवन जीना सीख सकें. मंच और फिल्म के कलाकारों को भी यर्थात और जनता के मुद्दों की स्टोरी पर काम करें.

पाखंडी बाबाओं और धर्मगुरुओं को जेल में डालें

अब वैज्ञानिक दृष्टीकोण को फैलाने का सबसे बड़ा योगदान वैज्ञानिक और चिकित्सक का है. वैज्ञानिकों को चाहिए कि नई-नई खोज करते रहे और अंधविश्वास का जोरदार विरोध करें. वहीं चिकित्सकों को चाहिए कि भगवान भरोसे न रहकर मरीजों को बचाने के लिए लगातार शोध पर मेहनत करते रहे. अस्पताल में काल्पनिक देवी-देवताओं की तस्वीरें बिल्कुल न रखें और मरीजों को मेडिकल साइंस पर भरोंसा दिलाएं. वहीं आजकल के नेता और अधिकारियों को चाहिएं कि अंधविश्वास-पाखंड से दूर रहे और अंधविश्वास फैलाने व इसके नाम पर जनता को लूटने वाले पाखंडी बाबाओं और धर्मगुरुओं को जेल में डालें. तभी देश में खुशहाली ही खुशहाली होगी. 

- गनपत लाल, सांगठनिक सलाहकार, एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन