'मंदिरवा म का करे ल जइबो, अपन घट के देव ल मनइबो, पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत, अपन मन ल काबर भरमइबो' ये बातें संत गुरु घासीदास ने तब कही थी, जब वे जगन्नाथ पुरी यात्रा जा रहे थे तो आधे रास्ते से लौटकर वापस घर आ गए। बताया जाता है कि संत गुरु घासीदास छत्तीसगढ़ के सारंगगढ़, रायगढ़ से वापस आ गए, लेकिन वे जगन्नाथ दर्शन के लिए नहीं गए।
संत घासीदास ने घर लौटकर लोगों से कहा कि मंदिर में क्या करने के लिए जाओगे। जो पत्थर खुद की रक्षा नहीं कर सकता वह लोगों की रक्षा कैसे करेगा। और आपकी समस्या कैसे सुनेगा। उन्होंने लोगों से मंदिर न जाने की अपील की। उन्होंने कहा कि हम कितना मूर्ख हैं पत्थर की पूजा कर रहे हैं, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और न ही बोल सकता है। और न ही कुछ खा-पी सकता है। ऐसे पत्थर के पास जाकर हम लोग समय और धन व्यर्थ ही गवा रहे हैं।
इस प्रकार के अंधविश्वास, रूढ़ीवाद और परंपरावाद के खिलाफ संत गुरु घासीदास ने जोरदार विरोध किया। घासीदास जी ने मूर्ति-पूजा का जबर्दस्त खंडन किया। उन्होंने आत्मविश्वास की कमी को अंधविश्वास का कारण बताया। उन्होंने लोगों से मनोबल बढ़ाने की बात कही। इसलिए उन्होंने कहा कि आत्मविश्वास से बढ़कर कोई देवता नहीं है। पत्थर की पूजा करना एक मानसिक बीमारी है। गुरु घासीदास ने मन को पूजा-पाठ और पाखंड से दूर कर कर्म (मेहनत) में लगाने पर जोर दिया।
गुरु घासीदास जी ने समानता की बात भी की है। उनका कहना था कि मनखे-मनखे एक समान (मनुष्य-मनुष्य एक समान)। उन्होंने कहा सभी इंसान एक समान है। जाति-धर्म को लेकर क्यों लड़-मर रहे हो। गुरु घासीदास ने ये सब बातें इसलिए कही क्योंकि उन्होंने समाज में भेदभाव की पीड़ा को भोग चुके थे।
गुरु घासीदास जी का जन्म 18 दिसंबर 1756 में रायपुर जिले के गिरोधपुरी गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उस समय गरीब और निम्न जातियों के लोगों पर बहुत शोषण और अत्याचार हो रहा था। अपने आप को उच्च जाति कहने वाले पाखंडी लोगों ने कमजोर लोगों को शिक्षा और सार्वजनिक जगहों से दूर रखकर नीच जाति कहकर अपमानित किया। इस पीड़ा को देखकर संत घासीदास जी ने सतनामी पंथ की स्थापना की।
दबे-कुचले लोगों को संत घासीदास ने एकजुट किया। उन्होंने कहा कि अपने आप को ऊंची जाति कहने वाले लोगों के झांसे में मत आओ। ये पाखंडी लोग आडंबर में फंसाकर शोषण और अत्याचार करते हैं। इसलिए तुम लोग पोथी-पुरान और मूर्ति-पूजा में मत फंसो और सत्य को जानो व मनो। जो दिख रहे हैं उसी पर भरोसा करो और काल्पनिक चीजों का खुलकर खंडन करो। जो सत (यथार्थ) को मानेगा वही सतनामी कहलाएगा।
इस प्रकार दलित-शोषित वर्ग को एकट्ठा करके संत घासीदास जी ने समाज में बड़ा बदलाव किया। तब जाकर शोषित-पीड़ित लोगों को सम्मान मिल पाया। पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए गुरु घासीदास जी मसीहा थे। जिन्होंने वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशील विचारों को जन-जन तक फैलाकर आंडबर के पेड़ पर तर्कशील कुल्हाड़ी से प्रहार किया। घासीदास जी ने अंधविश्वास और रूढ़ीवाद के घनघोर अंधेरे में ज्ञान का प्रकाश फैलाकर नई सुबह लाई थी। आज उनके विचारों को फिर से जनता के बीच पहुंचाने की जरूरत है, ताकि संत गुरु घासीदास के सपने पूरे हो सके।
- गनपत लाल
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