Thursday, 13 January 2022

डर की वजह से समाज में व्याप्त है अंधविश्वास



आज के वैज्ञानिक युग में भी लोग अंधविश्वास के जाल से नहीं निकल पा रहे हैं। पढ़-लिख कर भी लोग अंधविश्वास की खाई में जाकर गिर रहे हैं। विज्ञान पढ़ने वाले अवैज्ञानिक और कुतर्क की ओर बढ़ रहे हैं। इन सबके प्रमुख कारण डर (fear) है। लोगों के मन में पहले से भूत-प्रेत, डायन, भगवान और स्वर्ग-नर्क का डर बैठा दिया हैं।

इस डर से लोगों में एक सामान्य चिंता विकृति जिसे फोबिया (phobia) कहते है, उत्पन्न हो गया हैं। फोबिया मतलब व्यक्ति के लिए कोई खतरा नहीं होता है तो भी व्यक्ति उस वस्तु या परिस्थिति से डरता हैं। भूत (ghosts) का डर जिसे फासमोफोबिया कहते हैं। व्यक्ति भूत के डर से अंधेरे कमरे या अंधेरी जगह से डरते हैं, जबकि भूत नहीं होता। इसलिए व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा तो भी उससे डरता हैं।

ईश्वर (God) का डर जिसे थियोफोबिया (theophobia) कहते है। लोग ईश्वर के डर के कारण पुजारियों की झोली भरते हैं। डोंगी, ओझा पुजारियों ने स्वर्ग-नरक व पाप-पुण्य के नाम से ईश्वर के डर दिखकर लोगों को ठगते हैं। जबकि ईश्वर मनुष्य के नुकसान क्यों करेगा क्योंकि ईश्वर भ्रम मात्र है।

- टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक

Tuesday, 11 January 2022

डायन (टोनही) एक भ्रम

आप लोगों ने सुना होगा कि डायन अंधेरी रात में बुंग-बुंग जलती हुई निकलती है। कुछ इसी प्रकार की बातें गांव के एक 60 साल के बुजुर्ग से सुनने को मिली। बुजुर्ग ने बताया कि जब मैं 15 साल का था तब मैं पास के गांव में मड़ई (मेला) के कार्यक्रम से नाचा (सांस्कृतिक कार्यक्रम) देखकर वापस घर आ रहा था, उस समय रात के लगभग दो बजे होंगे। मैं पैदल अपने धुन से चल रहा था तभी अचानक पीछे से सन की आवाज आई। मैं पीछे मुड़कर देखा तो कुछ बुंग-बुंग (कम-ज्यादा) जलती रोशनी दिखाई दी। मैं आगे बढ़ता गया और वह भी मेरे पीछे-पीछे आ रही थी। मैं अपना गति तेज किया तब भी मेरे पीछे-पीछे आ रही थी। वह जमीन से एक या डेढ़ फिट ऊपर थी और यह रोशनी बुंग-बुंग जलते हुए मेरा पीछा कर रही थी। वह पक्का डायन (टोनही) ही थी।

यहां 60 साल के बुजुर्ग जब 15 साल का था, मतलब 1976 की बात है। उस समय उस गांवों में बिजली नहीं थी। लोग रात के अंधरे से निपटने के लिए दीया (दीपक) या कंडील (लालटेन) का सहारा लेते थे। रात में कहीं जाना हो तो कंडील लेकर निकलते थे क्योंकि रास्ते में बिजली नहीं थी। गांव में सड़क नहीं थी इसीलिए यात्री कंडील लेकर यात्रा करते थे।

जब यह लड़का (अब बुजुर्ग) मड़ई देखकर आ रहा था उस समय उसके पीछे भी कोई व्यक्ति कंडील लेकर आ रहा था। व्यक्ति कंडील को हाथ में पकड़कर चल रहे थे तब कंडील जमीन से एक या डेढ़ फीट ऊपर था और व्यक्ति के चलने के साथ हवा उस कंडील में पड़ती थी इस कारण से कंडील बुंग-बुंग (कम-ज्यादा) जल रही थी।

लड़का जो अभी बुजुर्ग है उसने उस समय कंडील को डायन (टोनही) समझ गया, जिसे मनोविज्ञान में भ्रम (illusion) कहते हैं। कई बार अंधरे में राह चलते कोई रस्सी दिख जाए तो भी उसे सांप समझ बैठते हैं। इसलिए कोई भी चीजों को बिना जाने-समझे नहीं मानना चाहिए।

टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक

Monday, 10 January 2022

भूत-प्रेत व्यक्ति को नहीं छुपाता, व्यक्ति के लापता होने के कई कारण

गांव का एक यादव लड़का था। लगभग 10 साल पहले लापता हुआ था, आज तक वापस लौटकर नहीं आया। कुछ लोग कहते हैं गांव के ईमली पेड़ की डायन (टोनही) उस लड़के को छुपा दिया है।

हम लोग उसके परिवार से बात की तब पता चला कि उस लड़का को कोई डायन नहीं छिपाया है, बल्कि उस लड़के में मानसिक बीमारी के लक्षण थे। पहले तो उसके पिताजी कहने लगे कि लड़का को कोई प्रेत या डायन छिपा दिया हैं। उसके पिता ने बताया कि लड़का को लापता से पहले भूत-प्रेत के साथ हड्डियां व कंकाल दिखाई देता था। उसके चारों ओर हड्डी ही हड्डी व कंकाल दिखता था और उसका चेहरा पसीने से लाल हो जाता था और एकदम से घबरा जाता था।

एक दिन आस-पास के लोगों के कहने पर उनके घर वालों ने लड़का को ओझा तांत्रिक (बईगा) के पास लेकर गए। तांत्रिक ने झाड़-फूंक व तंत्र-मंत्र कर भभूत खाने को दिया और ठीक हो जाएगा कहकर घर जाने को कहा। ऐसे ही कुछ समय तक झाड़-फूंक चलता रहा। एक दिन अचानक से लड़का बकरी चराते गांव के जंगल में लापता (गुमशुदा) हो गया। तंत्र-मंत्र कुछ काम नहीं आया रिश्ते-नाते सब के यहां पता किया, लेकिन आज तक उस लड़का को खोज नहीं पाए।

उस लड़के को मानसिक बीमारी मनोविदालिता (Schizophrenia) था। ऐसे रोगी में प्रायः देखा गया है कि विभ्रम (hallucination) होता हैं। विभ्रम में कुछ नहीं (उद्दीपक) होने के बावजूद भी रोगी को लगता है कि वहां कुछ दिख रहे हैं। आवाज नहीं आती है तब भी रोगी को इसी चीज या व्यक्ति की आवाज सुनाई देती है।

यहां पर भी लड़का को हड्डियां, कंकाल नहीं होने पर भी उसे दिखाई देता था। ठीक से ईलाज नहीं होने के कारण लड़का सुध (चेतना) खो गया और बकरी चराते-चराते कहीं चला गया। इस रोगी लड़का को मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक की आवश्यकता थी न कि ओझा व तांत्रिक की।

टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक

Thursday, 6 January 2022

कोई चमत्कार नहीं बल्कि हाथों की सफाई, लोगों को पाखंडियों से बचने की जरूरत - प्रो. मुंडे


रायपुर. एंटी सुपरस्टीशन ऑर्गेनाइजेशन (एएसओ) की ओर से दो दिवसीय अंधविश्वास उन्मूलन कार्यक्रम का आयोजन नवा रायपुर स्थित ग्राम बिरबिरा में हुआ. कार्यक्रम में मुख्य वक्ता लेखक प्रो. मछिन्द्रनाथ मुंडे और महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की राज्य सचिव सुशीला मुंडे शामिल हुए. प्रो. मुंडे ने ने बताया कि ढोंगी बाबा किस तरह भोले-भाले जनता को अपने जाल में फंसाते हैं. उन्होंने कहा कि पाखंडी बाबा सिर्फ अपनी जेब भरने वाले होते हैं. इसकी करनी और कथनी में अंतर है. इन बाबाओं से बचने की जरूरत है और लोगों को समझाने की आवश्यकता है. तभी एक अच्छे समाज की कल्पना कर सकते हैं.

कार्यक्रम के पहले दिन मंगलवार को सुशीला मुंडे ने पृथ्वी की उत्पत्ति और जीव-जंतुओं का विकास के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि 460 करोड़ साल पहले पृथ्वी उत्पत्ति हुई. फिर धीरे-धीरे जीव-जंतुओं का विकास होता गया. इसके बाद 40 हजार वर्ष पहले आधुनिक मानव होमो सोपियन आया. आज लोग अत्याधुनिक उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं फिर भी अंधविश्वास की चंगुल से नहीं छूट पाए. सुशीला ने कहा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए शिक्षा में बदलाव बहुत ही जरूरी है. तार्किक बातों की शिक्षा में शामिल करने से ही समाज में बदलाव होगा. वहीं परिवार और अपने आस-पास में भी तमाम रूढ़िवाद का पूरजोर विरोध करना होगा.
चमत्कारों का पर्दाफाश

प्रो. मुंडे ने ढोंगी बाबाओं द्वारा दिखाए जाने वाले चमत्कारों का पर्दाफाश किया. उन्होंने खाली हाथों को लहराते हुए नोटों की बारिश की. प्रो. मुंडे ने बताया कि ढोंगी बाबा ऐसे ही चमत्कार के फेर में लोगों को फंसाता है. प्रो. मुंडे ने कहा कि पाखंडी बाबा कई चमत्कार दिखाने का दावा करते हैं, लेकिन असलियत में यह नहीं होता है. बल्कि आपको गुमराह करने की कोशिश होती है. इसको हमें समझने की सख्त जरूरत है. क्योंकि आज तक दुनिया में कोई मरा हुआ व्यक्ति को जीवित नहीं कर सका है. उन्होंने कहा कि कोई पाखंडी बाबा चमत्कार नहीं करते बल्कि, भक्तों को वह काम देते हैं. इन बाबाओं से बचने के लिए पहले समूह पर चर्चा करने की आवश्यकता है. इसके अलावा पुलिस और प्रशासन आदि को ध्यानाकर्षण कराने की जरूरत होती है. उन्होंने बाबागिरी का मुकाबला कैसे करें इसके बारे में भी बताया. उन्होंने कहा कि हमें पहले तो स्वास्थ्य, कानून और काउंसलिंग पर जोर देने की आवश्यकता है. उन्होंने ये भी कहा कि कई पाखंडी बाबाओं के पास बचने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. इसको सोशल मीडिया में वायरल कर पर्दाफाश करना होगा.

राशिफल और ज्योतिष शास्त्र पूरी तरह असत्य

प्रो. मुंडे ने राशिफल और ज्योतिष शास्त्र को पूरी तरह से असत्य बताया. उन्होंने कहा कि ज्योतिष कमाई के लिए ग्रह-नक्षत्रों का सहारा लेते हैं और गलत जानकारियां लोगों तक पहुंचाते हैं, जिसका विरोध किया जाना चाहिए. प्रो. मुंडे ने हाथों की सफाई से एक चम्मच को मोड़ते हुए नीचे गिरा दिया. इसी तरह कैलेंडर में शॉर्टकट से गुणा-भाग करने का तरीका बताया. इसके अलावा उन्होंने ज्योतिष गणना खेल का पर्दाफाश किया. प्रो. मुंडे ने बेल्ट से एक उंगली में लोहे को उठाकर सब को दिखाया कि किस प्रकार पाखंडी बाबा लोगों को बेवकूफ बनाते हैं. उन्होंने बिना माचिस के नारियल पर आग लगाकर दिखाया. साथ ही नारियल के अंदर से रंगीन कपड़ों के टुकड़े को निकाल कर दिखाया. प्रो. मुंडे ने पानी से दिया जलाकर सबको चौंका दिया. दरअसल पानी में केमिकल मिलाकर उसमें आग लगाई गई. साथ ही पानी से चना बना कर सबको चौंका दिया.
मन की बीमारियों के बारे में विस्तार दी जानकारी

प्रो. मुंडे ने मन और मन की बीमारियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने कहा कि दिमाग में रासायनिक परिवर्तन की वजह से मानसिक बीमारी होती है. लोग अज्ञानतावश मन की बीमारी को ठीक कराने के लिए तांत्रिक का सहारा लेते हैं. प्रो. मुंडे ने लोगों से अपील की है कि मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को झाड़-फूंक न कराएं, उन्हें मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक के पास इलाज के लिए ले जाएं. प्रो. मुंडे ने कहा आग खाकर और कलाई पर आग का मशाल को चलाकर दिखाया. वहीं खाली लोटे से पानी निकालकर दर्शकों को चकित कर दिया. साथ ही नींबू से आग निकालकर भी दिखाया. उन्होंने बताया कि इस प्रकार के चमत्कार दिखाकर ढोंगी तांत्रिक ठगने का काम करता है.
बाबागिरी और पाखंड की खुली पोल

सुशीला मुंडे ने बाबागिरी और पाखंड की पोल खोली. उन्होंने बताया कि देश में चमत्कारी बाबा, आध्यात्मिक बाबा, अवतारी बाबा, जड़ी-बूटी बाबा और ज्योतिष बाबा कहकर ढोंगी तांत्रिक लगातर जनता को अपने जाल में फंसा रहे हैं. भय और अशिक्षा की वजह से लोग फरेबी तांत्रिकों के फेर में फंस जाते हैं. स्वर्ग-नरक की काल्पनिक बातों में ढोंगी बाबा जनता को उलझा देता है. उन्होंने चमत्कारों की भुल-भुलैया में न फंसने की अपील की है.
युवाओं से बेहतर समाज बनाने की अपील

कार्यक्रम का समापन बुधवार को हुआ. सुशीला मुंडे ने संगठन निर्माण और पदाधिकारियों की भूमिका को लेकर जानकारियां साझा की. उन्होंने अंधविश्वास को मिटाने के लिए युवाओं से एंटी सुपरस्टेशन आर्गेनाइजेशन के जरिए स्वच्छ समाज बनाने के लिए आह्वान किया. कार्यक्रम के समापन अवसर पर एएसओ के उपाध्यक्ष गौरव प्रसाद ने आभार व्यक्त किया.
कार्यक्रम में ये रहे मौजूद

कार्यक्रम में एएसओ के अध्यक्ष टिकेश  कुमार, उपाध्यक्ष गौरव प्रसाद, कोषाध्यक्ष राजू कुमार, सचिव जितेंद्र, मीडिया सलाहकार वाकेश कुमार, सांगठनिक सलाहकार गनपत लाल, मोती लाल, अनुसुइया, सत्तू राम, शिव साहू, भूखेंद्र, मोहन साहू, तोमन साहू, रोशन साहू, लिक्कू साहू, हीरा लाल, ताराचंद साहू, टोमेश तारक, सोमनाथ सेन, हरिश चन्द्र साहू और बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे.

Sunday, 2 January 2022

अंधविश्वास क्या है?

अंधविश्वास ऐसे व्यवहार को कहते है जिसमें ऐसे उद्दीपक तत्व जिसे प्राणी को देने से भविष्य में कार्य करने की क्षमता को प्रभावित नहीं करता है। लेकिन प्राणी या व्यक्ति को ऐसे लगता है कि यह तत्व व्यक्ति के भविष्य के कार्य को प्रभावित करता हैं। दिन-प्रतिदिन के जीवन में ऐसे व्यवहार अनेकों मिल जाते है, जैसे- पैर पर छिपकली गिरना शुभ मानना, घर के दरवाजे पर शुभ-लाभ लिखना शुभ मानना, पूर्व दिशा मुख करके दिया जलाना को शुभ मानना, बिल्ली द्वारा रास्ता काटने को अशुभ मानना, रात को नाखून काटना अशुभ मानना, नींबू-मिर्ची के ठुवे को खुदना अशुभ मानना, घर से निकलते समय थाली को रास्ते पर देखना अशुभ मानना आदि। इन सभी व्यवहार अंधविश्वासी व्यवहार है इससे भविष्य से कोई संबंध नहीं हैं।

बी एफ स्कीनर मनोवैज्ञानिक ने 1948 में अंधविश्वास व्यवहार को अपने प्रयोगशाला में चूहे पर अध्ययन करके देखा। स्कीनर के अनुसार- अंधविश्वास व्यवहार से तात्पर्य वैसे व्यवहार अनुबंधन से होता है जिसमें अनुक्रिया तथा पुनर्बलन (reinforcement) के बीच एक स्पष्ट अकार्यात्मक (nonfunctional) या संयोग संबंध होता है। ऐसी परिस्थिति में प्राणी को यह अनुभव होता है कि उसके अमुक व्यवहार का कारण अमुक पुनर्बलन ही है जबकि सच्चाई यह है कि उस व्यवहार तथा पुनर्बलन में कोई वास्तविक संबंध नहीं होता है।

अंधविश्वास के चलते कितनों की जान गई हैं, आए दिन सुनने को मिलता है कि झाड़-फूक ने बच्चे या महिला की ली जान। अमुक गांव की महिला को टोनही के नाम पर जिंदा जलाया। ऐसे कई मामले सामने आते है, हम उस समय ताजुब या आश्चर्य पड़ जाते है जब विज्ञान विषय के विद्यार्थी या शिक्षक विज्ञान से परे ओझा-तांत्रिक के जल में आ जाता है। पोस्टग्रेजुएट व्यक्ति मुहर्त राशिफल के कुतर्क पर विश्वास करने लग जाता है, पुनर्जन्म होगा सोचकर मंदिर के भगवान के सामने हाथ का नस काटकर मर जाता है।

टिकेश कुमार

व्यक्ति के भीतर बुरी आत्मा,भूत-प्रेत, पिशाच नहीं, यह एक मानसिक बीमारी

प्राचीन काल के जीववादी विचारधारा में ग्रीक,चीन तथा मिस्र आदि देशों की कुछ जातियों का भी यही मानना था कि जब व्यक्ति के प्रति भगवान (गॉड) की कृपा दृष्टि समाप्त हो जाती है तो ईश्वर की ओर से अभिशाप या दंड के रूप में व्यक्ति के मन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाता है और व्यक्ति किसी प्रेत या बुरी आत्मा के चंगुल में फंस जाता है।

इसलिए उसका उपचार का तरीका भी काफी अलग था। अपदूत-निसारन विधि से प्रार्थना करना, जादू-टोना, झाड़-फूंक, कोड़े मारना, लम्बे समय तक भूखे रखना तथा शराब के शोधक पिलाना आदि। उस समय के चिकित्सकों का मानना था कि इस प्रकार के उपचार से मानसिक रोग से ग्रसित व्यक्ति का शरीर इतना कष्टदायक हो जाएगा, जिससे शरीर में प्रवेश की हुई बुरी आत्मा अपने आप शरीर छोड़कर भाग जाएगी और तब व्यक्ति स्वस्थ हो जाएगा। इसी प्रकार दूसरी विधि ट्रीफाइनेशन है। इस विधि में नुकीले पत्थरों से मार-मार कर ऐसे व्यक्तियों की खोपड़ी में एक छेद कर देते थे। इस विधि से उपचार करने वालों का मानना था कि खोपड़ी में छेद करने से बुरी आत्मा शरीरी से बाहर निकल जाएगा और व्यक्ति ठीक हो जाएगा।

जीववादी चिंतन के बाद एक विवेकी तथा वैज्ञानिक विचारधारा  मेडिकल विचारधारा का जन्म हुआ। जिसमें ग्रीक चिकित्सक हिपोक्रेट्स जिन्हें आधुनिक चिकित्साशास्त्र का जनक माना गया है, ने एक क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मानसिक रोग की उत्पत्ति कुछ स्वभाविक कारणों से होती है, न कि शरीर के भीतर बुरी आत्मा के प्रवेश कर जाने से या देवी-देवताओं के प्रकोप से।

आधुनिक मनोरोगविज्ञान का जनक फ्रेंच चिकित्सक फिलिप पिनेल ईश्वरपरक, आध्यात्मिक एवं अंधविश्वासी विचार जो मूलतः पादरियों एवं पुजारियों के अमानवीय दृष्टिकोनों को गलत बतलाते हुए इस बात पर सामूहिक रूप से बल डाला कि मानसिक रोग किसी दुष्ट आत्मा या दैविक प्रकोप के कारण नहीं होता है, बल्कि यह एक बीमारी है। जिसका उपचार अन्य शारीरिक बीमारियों के समान होना मानवीय ढंग से होना चाहिए।

इस प्रकार मानसिक रोग के संबंध में दुष्ट आत्मा-सम्बंधी विचार समाप्त हो गया और उसकी जगह पर इस रोग के सम्बंध में एक स्वस्थ, विवेकी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शुरुआत हो गई।

टिकेश कुमार

झाड़-फूंक से बीमार लोग ठीक होते हैं या नहीं ?

जब भी कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है तो डॉक्टर के पास जाता है, ये हम सब जानते हैं। इसके अलावा लोग ओझा व तांत्रिक के जाल में फस जाते हैं।

तांत्रिकों के जाल में फसने वाले लोग निम्न प्रकार के होते हैं -

1. वह व्यक्ति जो डॉक्टर से ईलाज कराकर थक चुके होते हैं और उसका मानना होता है कि अब एक ही रास्ता से ठीक हो सकता हैं. वह है झाड़-फूंक से, इसीलिए मरीज को तांत्रिक के पास लेकर चले जाते हैं। इस ईलाज में व्यक्ति धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है और कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो जाती हैं।

2. डॉक्टर के पास न ले जाकर सीधे तांत्रिक के पास ले जाता हैं। ये लोग डॉक्टर से ज्यादा तांत्रिक पर विश्वास करते है या ऐसे क्षेत्र जहां डॉक्टर नहीं होते हैं, इसलिए सीधे मरीज को तांत्रिक के पास ले जाते हैं। इसमें व्यक्ति की बीमारी छोटी है या सामान्य बीमारी है, जैसे खून की कमी, कमजोरी व थकान तो खान-पास से धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। अगर गंभीर बीमारी है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, कहने का मतलब है अगर व्यक्ति में सामान्य बीमारी है तो रोग-प्रतिरोधक क्षमता के कारण ठीक हो जाता हैं और मरीज को लगता है तांत्रिक के तंत्र-मंत्र के कारण ठीक हुआ हूं। अगर गंभीर बीमारी है तो व्यक्ति के रोगप्रतिरोधक क्षमता उस बीमारी से नहीं लड़ पाता है, इसीलिए मरीज मर जाता हैं।

3. इसमें ऐसे लोग होते है जो डॉक्टर के पास ईलाज कराने के साथ तांत्रिक के पास भी ईलाज करता हैं। इसमें मरीज डॉक्टरी ईलाज के कारण ठीक हो जाता है और मरीज को लगता है तांत्रिक के तंत्र-मंत्र के कारण ठीक हुआ हूं।

इस प्रकार तंत्र-मंत्र से मरीज ठीक नहीं होता है। ओझा, तांत्रिक व ढोंगी बाबाओं के कारण व्यक्ति मर जाते हैं।

बच्चों का मन और उस पर प्रभाव

बच्चों का मन (mind) एक कोरा कागज के समान होता है, जिस पर परिवार और आस-पास के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। बालमन को मुख्य रूप से परिवार सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को ऐसे माहौल दें कि बच्चे में धनात्मक (positive) प्रभाव पड़े न कि नकारात्मक (negetive)।

आज देखा जाए तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया अंधविश्वास, आक्रमकता, जातिवाद और सम्प्रदायिकता खूब फैला रहे हैं। जैसे-राशिफल, भूत-प्रेत, नाग-नागिन और कई काल्पनिक धारावाहिक परोसे जाते हैं, जिसके प्रभाव बच्चे की मानसिक स्थिति में सीधे नकारात्मक (negetive) पड़ते है और बच्चे का मनोबल कमजोर होता है।

- टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक

तालाब में भूत-प्रेत की डरावनी कहानियां और लोगों में भ्रम

कुछ गांव के तालाब में भूत, प्रेत या डायन है ऐसे आपने सुना होगा। पुराने समय में ज्यादातर गांवों के तालाब में भूत-प्रेतात्मा हैं कहकर लोग डर जाते थे. जैसे ही सूरज डूबता था और शाम होती थी तो लोग तालाब में जाने से डरते थे. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि तालाब के पास जाए।

इसके बाद लकड़ी के लिए लोगों ने पेड़ों को कटाई करना चालू किया। धीरे-धीरे तालाब के आस-पास के पेड़ का सफाया होता गया। पेड़ों की कमी होती गई। जंगली जीव-जंतु कम होता गया और मनुष्य के पास भरपूर मात्रा में बिजली से रोशनी मिलना चालू हो गया। तब लोगों के तालाब में भूत-प्रेत की कहानियां समाप्त हो गई।

भूत-प्रेत के नाम से डराकर अक्सर मां-बाप अपने छोटे बच्चे को तालाब जाने रोकते थे क्योंकि अगर बच्चा तालाब जाएगा और तैर नहीं पाए तो तालाब में डूब जाएगा. यह सोचकर बच्चों को तालाब के पास जाने से रोकते थे. जब घर के बड़े लोग तालाब जाते थे तो बच्चों को नहीं आने के लिए भूत का बहाना करते थे।

एक और कारण है जब तालाब के पानी के पास कोई व्यक्ति नहीं होता हैं (तालाब शांत होता है) तब मेंढक पानी से बाहर होता हैं, जैसे ही कोई व्यक्ति जाता है, सभी मेढक एक साथ झपाक से पानी में कूद जाता हैं, तब व्यक्ति को भ्रम हो जाता है की कहीं भूत-प्रेत तो नहीं। तालाब को शांत देखकर जंगली जानवर भी पानी पीने के लिए आ जाता है, कोई व्यक्ति को देखते ही भाग जाता है। इससे भी लोगों को भ्रम हो जाता है कि कोई प्रेतात्मा इस तालाब से भागा हैं।

टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक

पीपल पेड़ के नीचे भूत-प्रेत का डर

जब मैं लगभग 6-7 साल का छोटा सा बच्चा था। उस समय गांव में बिजली की कमी के कारण पूरा अंधेरा रहता था। गलियों पर लाईट नहीं थीं। गांव के   कई घरों में बिजली नहीं थी और थी भी तो एक बल्ब, जो घर के अंदर में जलता था। घर का द्वार में कोई लाईट नहीं थी, इसलिए गली में चलने वाले लोगों को अंधेरा का सामना करना पड़ता था।

एक दिन की बात है, शाम के समय हम कुछ दोस्तों के साथ तालाब के पास घूमने के लिए निकले थे और तालाब के पार पर बैठकर हम सब आपस में बाते कर रहे थे। हमें समय का पता ही नहीं चला। रात होने लगी, तभी अचानक हमारी दृष्टि पीपल पेड़ के नीचे बुंग-बुंग (झिलमिलाती) रोशनी पर पड़ी। हम लोग धड़ से उठ खड़े हुए, उसमें से  किसी एक दोस्त ने कहा टोनही (डायन) है भागों, किसी ने कहा भूत तो किसी ने प्रेतात्मा और हम सब कुछ सोचना-समझना छोड़कर भागने लगें। भागते-भागते गांव की एक दुकान में गए, वहां कुछ बुजुर्ग के साथ मेरे दादा जी भी बैठें थे। हम सब को हांफते देखकर मेरे दादा ने पूछा क्या बात है बेटा? हम सब एक आवाज में तालाब पार के पीपल के नीचे भूत कहने लगें और पूरी बात बताई।

तब दादा ने हमें बताया कि कोई भूत-प्रेत, टोनही (डायन) या प्रेतात्मा नहीं हैं और न ही होता है। वहां तालाब के पास पीपल पेड़ के नीचे दीया (दीपक) जल रहा था। उस तालाब के पास मृत व्यक्ति के परिवार वाले पीपल पर मटकी बांधकर उसके नीचे शाम को दीये जलाते हैं। जब तुम लोग वहां बैठकर आपस में बात कर रहे होंगे उसी बीच कोई जाकर दीया जलाया होगा और धीरे-धीरे हवा चलने के कारण दीया टिमटिमा रहा था।

हम सब बच्चों ने दीया को भूत-प्रेत, टोनही या प्रेतात्मा समझ गए। जिसे भूत भ्रम (illusions) कहते हैं।

टिकेश कुमार

ASO का कार्यक्रम

अंधविश्वास के अंधेरे में तार्किक प्रकाश फैलाने वाले संत गुरु घासीदास

'मंदिरवा म का करे ल जइबो, अपन घट के देव ल मनइबो, पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत, अपन मन ल काबर भरमइबो' ये बातें संत गुरु घासीदास ने तब कही थी, जब वे जगन्नाथ पुरी यात्रा जा रहे थे तो आधे रास्ते से लौटकर वापस घर आ गए। बताया जाता है कि संत गुरु घासीदास छत्तीसगढ़ के सारंगगढ़, रायगढ़ से वापस आ गए, लेकिन वे जगन्नाथ दर्शन के लिए नहीं गए।

संत घासीदास ने घर लौटकर लोगों से कहा कि मंदिर में क्या करने के लिए जाओगे। जो पत्थर खुद की रक्षा नहीं कर सकता वह लोगों की रक्षा कैसे करेगा। और आपकी समस्या कैसे सुनेगा। उन्होंने लोगों से मंदिर न जाने की अपील की। उन्होंने कहा कि हम कितना मूर्ख हैं पत्थर की पूजा कर रहे हैं, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और न ही बोल सकता है। और न ही कुछ खा-पी सकता है। ऐसे पत्थर के पास जाकर हम लोग समय और धन व्यर्थ ही गवा रहे हैं।

इस प्रकार के अंधविश्वास, रूढ़ीवाद और परंपरावाद के खिलाफ संत गुरु घासीदास ने जोरदार विरोध किया। घासीदास जी ने मूर्ति-पूजा का जबर्दस्त खंडन किया। उन्होंने आत्मविश्वास की कमी को अंधविश्वास का कारण बताया। उन्होंने लोगों से मनोबल बढ़ाने की बात कही। इसलिए उन्होंने कहा कि आत्मविश्वास से बढ़कर कोई देवता नहीं है। पत्थर की पूजा करना एक मानसिक बीमारी है। गुरु घासीदास ने मन को पूजा-पाठ और पाखंड से दूर कर कर्म (मेहनत) में लगाने पर जोर दिया।

गुरु घासीदास जी ने समानता की बात भी की है। उनका कहना था कि मनखे-मनखे एक समान (मनुष्य-मनुष्य एक समान)। उन्होंने कहा सभी इंसान एक समान है। जाति-धर्म को लेकर क्यों लड़-मर रहे हो। गुरु घासीदास ने ये सब बातें इसलिए कही क्योंकि उन्होंने समाज में भेदभाव की पीड़ा को भोग चुके थे।

गुरु घासीदास जी का जन्म 18 दिसंबर 1756 में रायपुर जिले के गिरोधपुरी गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उस समय गरीब और निम्न जातियों के लोगों पर बहुत शोषण और अत्याचार हो रहा था। अपने आप को उच्च जाति कहने वाले पाखंडी लोगों ने कमजोर लोगों को शिक्षा और सार्वजनिक जगहों से दूर रखकर नीच जाति कहकर अपमानित किया। इस पीड़ा को देखकर संत घासीदास जी ने सतनामी पंथ की स्थापना की।

दबे-कुचले लोगों को संत घासीदास ने एकजुट किया। उन्होंने कहा कि अपने आप को ऊंची जाति कहने वाले लोगों के झांसे में मत आओ। ये पाखंडी लोग आडंबर में फंसाकर शोषण और अत्याचार करते हैं। इसलिए तुम लोग पोथी-पुरान और मूर्ति-पूजा में मत फंसो और सत्य को जानो व मनो। जो दिख रहे हैं उसी पर भरोसा करो और काल्पनिक चीजों का खुलकर खंडन करो। जो सत (यथार्थ) को मानेगा वही सतनामी कहलाएगा।

इस प्रकार दलित-शोषित वर्ग को एकट्ठा करके संत घासीदास जी ने समाज में बड़ा बदलाव किया। तब जाकर शोषित-पीड़ित लोगों को सम्मान मिल पाया। पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए गुरु घासीदास जी मसीहा थे। जिन्होंने वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशील विचारों को जन-जन तक फैलाकर आंडबर के पेड़ पर तर्कशील कुल्हाड़ी से प्रहार किया। घासीदास जी ने अंधविश्वास और रूढ़ीवाद के घनघोर अंधेरे में ज्ञान का प्रकाश फैलाकर नई सुबह लाई थी। आज उनके विचारों को फिर से जनता के बीच पहुंचाने की जरूरत है, ताकि संत गुरु घासीदास के सपने पूरे हो सके।

- गनपत लाल

कोई महिला टोनही (डायन) नहीं होती

गांव के चौपाल में कुछ लोग इकट्ठे थे। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। रामू कह रहे थे कि टोनही (डायन) रात में निकलती हैं। जब गांव के सभी लोग सो जाते हैं, तब महिला (जो टोनही है) के घर से खुट-खुट आवाज आती हैं और वह महिला सिलबट्टे से कुछ ऐसे पदार्थ को कूटकर पिसता है, जिससे उस पदार्थ को मुंह में डालने या खाने से मुंह से लार टपकती हैं और उस लार से रोशनी निकलती हैं। मुंह की लार के साथ उस टोनही बस्ती से निकल कर गांव के सियार (सीमा) में ईमली और आम पेड़ के नीचे झुपती हैं।

नीरज कहते हैं कोई टोनही नहीं होती हैं। पहले पिसा हुआ मसाले नहीं मिलता था इसलिए सिलबट्टे से खड़ा मसाले को कूट-कूटकर पिसते थे। काम ज्यादा होने के कारण खाना बनाने में अधिक रात हो जाती थी। और लोग उस खाने बनाने वाली महिला को टोनही कहने लगती थी।

फिर सरजू कहते हैं- नहीं मैं खुद देखा हूं, इसी गांव में एक औरत थी जो अंधेरी रात में गांव वालों के सामने लकलकाते लोहे का साबर को हाथ से पकड़ लिया और चन की आवाज आई उस महिला को कुछ नहीं हुआ। और उस महिला को गांव से कोसों दूर बाहर निकाल दिया गया।

तब नीरज कहते है दादा आपके समय पर गांवों में मालगुजारी शासन थी। महिला ने गांव के जमीदार की बात को नहीं माना होगा। उसकी आज्ञा या नियम का पालन नहीं किया होगा इसलिए महिला से बदला लेने के लिए महिला को टोनही कहना चालू किया होगा। इसके साथ आस-पास के लोग भी दुश्मनी में उस महिला को टोनही कहा होगा। फिर गांव में मुनादी कराई होगी कि ये महिला टोनही है इसकी परीक्षा लिया जाएगा। और उस महिला को अंधेरी रात में भरी भीड़ में गांव वालों के सामने लकलकाते साबर को महिला के हाथ में पकड़ाया होगा। महिला के हाथ पूरी तरह से जल गया होगा। अंधेरी रात के कारण जलते हाथ नहीं दिखा होगा फिर गांव वालों ने महिला को टोनही कहकर रातों-रात उसके परिवार के साथ गांव से कोसों दूर छोड़ दिया और महिला लोकलाज के कारण गांव वापस नहीं आई होगी और उधर ही मर गई होगी। इसीलिए महिला के आज तक पता नहीं चला कि किस स्थिति में है और कहां हैं।

- टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक, रायपुर

मानसिक रोग

फिलिप पिनेल एक फ्रेंच फिजीशियन थे। जिन्होंने पहली बार बताया कि मानसिक रोग भूत का असर नहीं, बल्कि एक बीमारी है।

1791 में पेरिस के मानसिक अस्पताल के  प्रभारी बनते ही मानसिक रोगियों को लोहे की जंजीर से मुक्त करके उनके साथ मानवीय व्यवहार करने का आदेश दिया।

इन आदेशों का अस्पताल के अधिकारियों द्वारा काफी मजाक उड़ाया गया और पिनेल को ही एक पागल समझा जाने लगा।

"मानसिक रोग" जिसे आज एक गंभीर रोग की श्रेणी में रखा जाता है। उसे एक दौर में भूत-प्रेत का साया समझा जाता था।

लोग चिकित्सकों के पास जाने की बजाए ओझाओं के पास जाना पसंद करते थे। ताकि, वे झाड़फूंक कर पीड़ित को मुक्ति दिला सके, लेकिन जब तक ऐसा हो पाता।

तब तक या तो पीड़ित बीमारी से मर जाता या फिर तंत्र-मंत्र से और ज्यादा पागल हो जाता।

आज भी भारत के पिछड़े लोगों में मानसिक रोगियों को ओझाओं/तांत्रिकों के पास लेकर जाते हैं और उनकी जाल में फंसकर समय व धन के साथ रोगी की जान भी चली जाती हैं।

टिकेश कुमार, मनोवैज्ञानिक, रायपुर