Tuesday, 14 November 2017

त्याेहारों पर पर्यावरण व खुद से खिलवाड़ तो नहीं ?

आज सबसे ज्यादा समस्या देश में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या है। पूरी तरह से आबो-हवा प्रदूषित हो गई है। इसके बावजूद भी हमारे देश में हर त्योहारों पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ हो रहा है। क्यों हम उत्सव के रंग में इतने रंग जाते हैं, हमें पर्यावरण और खुद को होने वाली हानियों के बारे में जरा भी ख्याल नहीं आता। यहां महिने के हर दिन कोई न कोई त्योहार होता है, जिसमें हम सब मिलकर केमिकल युक्त मूर्ति से नदियां, तालाबों और अन्य जलस्त्रोतों को पाटने में लगे हैं। भले ही हमारे देश में सरकार गंगा नदी और अन्य नदी बचाने का अभियान कितनों जोर-शोर से चलाए, भले ही देश भर में स्वच्छ भारत मिशन के हल्ला मचाएं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई कानून बनाने की जरूरत महसूस नहीं की। जिससे त्योहार में होने वाले जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और अन्य परेशानियों पर रोक लगाया जा सके। मूर्ति स्थापना, ज्योत प्रजवलित
 के लिए घी-तेल के लिए करोड़ों रुपए की बबार्दी की जाती है। वहीं दूसरी ओर कुपोषण से दिन-ब-दिन मरने की संख्या बड़ रही है। अगर इसी से इन कुपोषितों के पेट भरा जाता तो कितना अच्छा होता। इससे अापके देवी-देवता खुश हो जाते। आप सोचिए कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके इस हरकत से ईश्वर रूठ गया हो और लगातार सुखा-अकाल जैसी स्थितयों का सामना करना पड़ रहा है। यहां देश गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, भुखमरी और अन्य समस्याओं से जूझ रहा है। वहीं छोटे से बड़े वर्ग के लोग मूर्ति पूजा के नाम पर फिजूल खर्च कर रहे हैं। मूर्ति पूजा करने के लिए कई गुंडों की टोलियां घर-घर जारकर चंदा लेते हैं। अगर अाप कम देते है या मना करते हैं तो विवाद करेंगे यहीं नहीं कई बार तो चाकूबाजी करेने में भी यह भक्तों की टोलियां नहीं चुकते। मानना पड़ेगा यहां आस्था के नाम पर कुछ भी हो सकता है। भले ही महानगरों में जगह की कमी हो, ट्रेफिक समस्या हो और अन्य समस्याएं हो, लेकिन मूर्ति स्थापना करेंगे ही। त्योहार या पूजा के लिए लाउड स्पीकर और डीजे बजाकर ईश्वर को खुश किया जाता है, कहीं ऐसा ताे नहीं कि हम लाउडस्पीकर से हास्पिटल के मरीजों को, स्कूल-कालेज के पढ़ने वालों को और आस-पास के लोगों को परेशान तो नहीं कर रहे हैं। वहीं दीपावली में फटाखे से पूरे शहर प्रदूषित हो रहे हैं। पहले गांवों को साफ-सुथरा और सादा जीवन के लिए जाने जाते थे, लेकिन यह धुंआ गांवों में भी पहुंच गई है। अब ग्रामीण भी जमकर आतिशबाजी करने लगे हैं। भले ही खाने के लिए रोटी न हो, पहनने के लिए कपड़े, लेकिन यह गरीब तबके के वर्ग फटाके जरूर खरीदेंगे। वहीं फटाके फोड़तें समय बच्चों के हाथ-पांव जल गया तो हो गया गरीबी में आटा गीला। दूसरी ओर शहरों में वायु और ध्वनि प्रदूषण होने के बाद भी लोग मूर्तियों, पूजा-पाठ और पटाखे में करोड़ों रुपए और प्रर्यावरण का नाश कर कर रहे हैं। अगर इस धन, समय और प्रयास को गरीबों की शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, कपड़े, आवास और अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए खर्च करे तो इस देश की तस्वीर क्यों नहीं बदलेगी

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