Sunday, 19 February 2017

लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज : ममता

लोकगीत के बारे में जानने के लिए छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला लोकगायिका पद्मश्री ममता चन्द्राकर से बातचीत की गई। वे छत्तीसगढ़ की पहली हस्ती हैं जिन्हें लोकगायन के क्षेत्र में पद्मश्री सम्मान मिला। वर्तमान में ममता चन्द्राकर आकाशवाणी रायपुर में निदेशक के पद पर पदस्थ हैं। वे चार दशक से ज्यादा समय से छत्तीसगढ़ी लोकगीत गा रही हैं। वे लोकगीत के लिए मशहूर हैं। जब भी सुआ, गौउरा-गउरी, बिहाव, करमा, और ददरिया कही बजता है तो उसमें ममता चन्द्राकर के गीत जरूर सुनाई पड़ते हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत -

- लोकगीत आप किस गीत को मानते हैं ?
पारम्परिक गीत जो लिखित न हो, वहीँ लोकगीत है। ये गीत जन-जन में व्याप्त होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले होते हैं। यह ज्यादातर मौखिक होते हैं, लिपिबद्ध नहीँ होते हालांकि अब लिपिबद्ध करने लगे हैं।

- लोकगीतों की उतपत्ति के विषय में अपने विचार बताइए ?
लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज है। यह गीत जब लोक या समूह में व्याप्त हो जाए और परम्परागत चलते रहे। लोकगीत की उत्पत्ति जनसमूह में गुनगुनाया जाने वाले गीत ही लोकगीत का रूप धारण कर लेते हैं।

- लोकगीतों से सामाजिक जीवन कितना प्रभावित हुआ है ?
लोकगीत हमेशा से लोगों के जीवन में खुशियां और सकारात्मक विचार पहुंचाने में सक्षम रहे हैं। लोकगीत के माध्यम से लोग जागरूक भी हुए हैं। इस प्रकार आज भी इसे संचार के प्रभावी और सशक्त माध्यम मान सकते हैं।

- क्या लोकगीतों में बदलाव आते हैं ?
हां, बिलकुल, लोकगीत समूह के गीत होते हैं और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले गीत है। जब समूह की भाषा या बोली और जीवन शैली में परिवर्तन आते हैं, तो लोकगीत में बदलाव होना स्वभाविक है।

- लोकगीतों को बचाए रखने के लिए क्या करना चाहिए ?
लोकगीतों के संग्रहन करने की आवश्यकता है। लोकगीतों को स्कूली शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में शोध कार्य से भी इसके बारे में समझा और जाना जा सकता है।

Thursday, 16 February 2017

दारू ह लिही परान

ये भइया मोर बात ल तै मान 
दारू ह लिही एक दिन तोर परान 
डउकी-लइका मरत हे भूख म 
सुते हस गली म, घर के कईसन सियान 
कुकुर सुंघत अउ मुँहू म मूतत हे 
सूरा बरोबर सुते हस, नई हे तोला धियान
कइसे घर-बार चलही
कइसे नोनी-बाबू ह पढ़ी 
कइसे जिनगी सम्हरही नइहे तोला ग्यान
घर के जम्मो खेत ल बेचेस
बेच डरेस महतारी के जेवर-गहना ल
ददा रोज दिन बरजत हे
फेर नई मानस ओकर कहना ल
अतका सुघ्घर जांगर हे 
बुता-काम करे बर काबर पड़त हे जियान 
अब आज ले किरिया खाले संगवारी
नई पियन कभू दारू ल 
तभे होही तोर नवा बिहान।

लोकगीत निरंतर बहने वाली नदी के समान : लक्ष्मण मस्तुरिया

गीतकार, लेखक, कवि और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया का जन्म 7 जून 1949 को ग्राम मस्तूरी, जिला बिलासपुर में हुआ। वे छात्र जीवन से ही लेखन कार्य में लगे हुए हैं। छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक जागरण मंच 'चंदैनी गोंदा' के सर्वाधिक गीतों के सर्जक और 'देवार डेरा', 'कारी' लोकमंच के गीतों के रचयिता। रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित धारावाहिक लोकसुर के निर्माता। उनके गीत 'मोर संग चलव रे' ने छत्तीसगढ़ में अलग पहचान बनाई है। उनसे लोकगीत को लेकर हुई बातचीत प्रस्तुत है -
लोकगीत की शुरुआत के बारे में बताइए ?
- लोकगीत की शुरुआत बहुत पहले से हुई है, जब समाज बना तभी से लोकगीत बना। तुलसी के दोहे से पहले भी लोकगीत थे। उस समय तुलसी दास ने "बन निकल चले दोनों भाई" गीत को लोकगीत कहा है। फिर इसी प्रकार लोग तुलसी और कबीर के गीतों और पदों को लोकगीत मानने लगे। इसके बाद जो संस्कार के गीत जैसे विवाह, सोहर और अन्य गीतों को लोकगीत की श्रेणी में रखे।
लोकगीत आप किस गीत को मानते है ?
- जो जनसमूह के साधारण और सरल गीत हैं, वह लोकगीत है। इसमें भाषा और व्याकरण जैसी बंदिशे नहीँ होती। लोकभाषा से ही लोकगीत बनता है। जो गीत लोगों में व्याप्त हो और अधिक प्रसिद्धि पा लेता है वही लोकगीत है। जब कोई मनोरंजन के साधन नहीँ होते थे, तब समुदाय में उत्साह और ख़ुशी के लिए गाना गाए जाते थे। इस प्रकार गीत समुदाय में व्याप्त हो जाते थे। वैसे तो लोकगीत बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी है।
लोग आपके गीतों को लोकगीत मानते है। क्या आप मानते है ?
- मैं अपने गीतों को कैसे लोकगीत कह सकता हूँ। यह तो लोक या समुदाय तय करता है। मैंने तो बस देवार डेरा के जो गीत थे उसको सुधार कर सार्थक और प्रभावी बनाया है। अगर लोग मेरे गीतों को लोकगीत मानते है, तो लोकगीत है क्योंकि लोकगीत लोगों के ऊपर निर्भर करता है। जब समुदाय के द्वारा कोई गीतों को स्वीकार लेते है वही लोकगीत है।
देवार डेरा के गीतों को सुधारने की जरूरत क्यों महसूस की ?
- पहले देवार डेरा के गीतों में भाषा और अन्य कई कमियां थी। लोगों को समझ नही आता था। जैसे 'दौना म गोंदा केजुआ मोर बारी म आबे काल रे' को सुधार कर 'चौरा म गोंदा रसिया मोर बारी म' किया। इसी प्रकार से 'चन्दर छबीला रे बघली ल' सुधार कर 'मंगनी म रे मया नई मिलय रे मंगनी म' किया।
गीत लेखन और गायन के क्षेत्र में कब से कार्य कर रहे हैं ?
- वैसे तो 1960 से गीत और कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। वही 1971 से पूर्ण रूप से इस कार्य में लगा। उस समय कृष्ण रंजन, पवन दीवान और मैं शिक्षक थे। फिर मैं शिक्षक की नौकरी छोड़कर 'चंदैनी गोंदा' मंच से जुड़ गया। इसके बाद मैंने देवार डेरा के गीतों को सुधारने का भी कार्य किया। इसके अलावा कारी लोकनाट्य में भी बहुत से गीतों का सृजन किया। उस समय सभी छत्तसगढ़ी के लिए निस्वार्थ कार्य करते थे।
आप कितने गीतों की रचना किए और गाए ?
- वैसे तो मैं गाना बहुत कम गाया हूं। मोर संग चलव रे, बखरी के तुमा नार, मे छत्तीसगढ़िया अव, चल गा किसान असाढ़ आगे, मन काबर आज तोर उदास हे और कुछेक गाना। वही लगभग 300 से ज्यादा गीतों की रचना हुई है। मेरे गीतों को कई फिल्मों में शामिल किए और कई गायकों ने गाए। 
पहले के गीतों में और अब के गीतों में क्या बदलाव देखते है ?
- बदलाव आया है। पहले के गीतों में सन्देश हुआ करते थे, लेकिन आजकल के गीतों में सन्देश तो छोड़ो कुछ समझ  नहीँ आता। आजकल व्यवसायिक ज्यादा हो गया है। गीत के नाम से कुछ भी परोसा जा रहा है।

Wednesday, 15 February 2017

छत्तीसगढ़िया मन ल दरुआ बनाके मारत हे

रमन सरकार ह छत्तीसगढ़ के सिधवा जनता ल दारू पीया-पीया के दरूआ अउ निठल्ला बना के मारत हे। एकर असन लबरा-दोगला मनखे कोनो नई हे। पिछले चुनावी वायदा म सराबबन्दी करे के बात कहे रहिस। फेर आज ये सरकार ह इहा के जनता ल दारू पियाय अउ जीव ल ले बर अड़े हे।
जबले सुपरिम कोट के आदेस आहे कि नेसनल हाइवे के 500 मीटर के दायरे म दारू दुकान नई होना चाही। एकर सेती अब दारू कोचिया मन साढ़े चार सौ दुकान ल चलाय बर साफ मना कर दे हे। छत्तीसगढ़ म दारू दुकान ल पहली नीलामी म लेके ठेकेदार मन चलावत रहिस। अब ये सदकारज ल करे बर सरकार बीड़ा उठावत हे। ताकि पूरा छत्तीसगढ़ के सुवाह हो जाए। छत्तीसगढ़ म सात सौ ले ज्यादा दारू दुकान हे। हर साल 1200 लाख लीटर दारू बिकथे। एकर ले 3900 करोड़ रुपिया के कारोबार होथे।
एक डाहन सरकार ह हेलमेट ल दुरघटना के बचाव बर जरुरी बतावत हे। बने बात हे। फेर पुलिस मन घलो येला लेके पईसा वसूली अभियान चलावत हे ठीक नोहे। सबले ज्यादा दूरघटना दारू पी के गाड़ी चलाय ले होथे। भाई जब हेलमेट बर लगन लगाके अभियान चलावत हे। अउ मनखे मन ल चमका-धमका के करोड़ो रूपया लूटत हे। त अतके उदिम दारू ल बन्द करे बर काबर नई करय। दारू ह तो सब दूरघटना अउ अपराध के कारन आय। तभो ले सरकार ह दारू बेचे बर काबर अड़े हे। येला लेके छत्तीसगढ़ के मनखे म जोरदार गुस्सा देखे बर मिलत हे। अब तो छत्तीसगढ़ ल दारू अव दरूआ के नाम से देस भर म अलग पहचान मिलगे हे। रमन तो ये फिलिम के खलनायक लागथे जेहा दारूवाले बाबा के रोल म हे। अब सब मनखे ल हीरो के रोल म उतर के एकर विरोध करना हे।

Tuesday, 14 February 2017

सागौन सोने के समान, लोकगीत पर घुन नहीँ लगता : कविता

छत्तीसगढ़ की सर्वाधिक सुमधुर लोकप्रिय गायिका श्रीमती कविता वासनिक की सफलता के पीछे उनके पिता श्री रामदास रिहकने के साथ-साथ पूरे परिवार के हाथ है। स्व. रामचन्द्र देशमुख ने चंदैनी गोंदा के भव्य मंच ने उसे तराशा और संवारा है। श्रीमती वासनिक की सांस्कृतिक से ही उनकी गायन में सहजता सरजता और तन्मययता झलकती है। गहन संघर्ष के बीच वे इस मुकाम तक पहुंच पाई है। उनकी जन्म दुर्ग में 18 जुलाई 1962 को हुआ। वे बीएसी (बायो) तक पढ़ाई करके राजनांदगांव में एसबीआई बैंक में उप-प्रबंधक के पद पर पदस्थ है। पिता रामदास रिहकने ने उसे घुट्टी में  संगीत पिलाया। वे बचपन से ही 10 बरस के उम्र में मंच में  लोकगीत प्रस्तुत करती आ रही है। वे छत्तीसगढ़ की संस्कृति के लिए वरदान है। अब तक उन्होंने देश भर में लगभग चार हजार प्रस्तुतियां दे चुकी है।

    प्रस्तुत है लोकगायिका कविता वासनिक से हुई बातचीत -

सवाल - आपकी झुकाव लोकगीत की ओर कैसे हुई ?
जवाब - मैं बचपन से ही 10 साल की उम्र से ही लोकगीत से जुड़ी हूं। उस समय आर्केस्टा का दौर था तभी स्व. रामचन्द्र देषमुख के द्वारा चंदैनी गोंदा का निर्माण हुआ। इसमें मुझे जुड़ने का अवसर मिला और लोकगीत-संगीत के प्रति रूचि बढ़ गई। पिता रामदास रिहकने भी लोकगीत से जुड़े होने के कारण ज्यादा ही संगीत का माहौल मिला।

सवाल - आप अपने गुरू या प्रेरक किसे मानते है ?
जवाब - सबसे पहले गुरू तो मेरे पिताजी श्री रामदास रिहकने रहे। इसके बाद स्व. रामचन्द्र देषमुख के साथ कार्य किया। पूरा परिवार मुझे इस कार्य के लिए सहयोग और प्रेरित करते रहे।

सवाल - आजकल लोकगीतों पर फिल्मी गाने हावी हो रहे है आपके क्या विचार है ?
जवाब - लोकगीत कभी खत्म नहीं हो सकते ए लकड़ी म सगोन अव धातु म सोन के समान हरे, जेला कभू घुना नई खाय। यह लोगों के जीवन के साथ चलते है। फिल्मी गाने लोकगीतों की जगह नहीं ले सकते हैं। भले लोकगीत फिल्मों में जगह पा सकते हैं।

सवाल - लोकगीत को लोगों तक पहुंचाने के लिए क्या करनी चाहिए ?

जवाब - लोकगीतों को फिल्मों में जगह मिले और लोककलाकरों के लिए मंच मिलने से लोगों को परंपरागत गीतों के प्रति जागरूक किया जा सकता है। सरकार और संस्कृति विभाग इसके लिए बहुत ही अच्छी पहल कर रही है। जिससे कलाकारों को समय-समय पर उत्सव और अन्य अवसरों में मंच मिलते रहते हैं। इस प्रयास को और ही व्यापक करके जारी रखा जाए।

सवाल - आप लोकगीत के कौन-कौन सी विधियां प्रस्तुत करती है ?
जवाब - छत्तीसगढ़ के परंपरागत गीत सुआ बिहाव जसगीत करमाददरिया और अन्य लोकगीत की प्रस्तुति देती हूं।

सवाल - आप करमा और ददरिया के बारे में बताएंगे ?
जवाब - करमा में रिदम और ताल मुख्य होते हैं। वहीं ददरिया में कृषक कार्य में मन लगाने के लिए गाते है। इसमें पहला लाइन का संबंध दूसरे लाइन से नहीं होता है। जैसे फुटहा रे मंदिर कलस नइ हे, आज-काल के अवइया दरस नइ हे। ददरिया प्रेम का गीत भी है।

सवाल - मंच के अलावा आप फिल्मों में भी गाई है ?
जवाब - हां फिल्मों में गाई हूं पर बहुत ही कम। जैसे महूं दिवाना तहू दिवानी, मितान 420, डार और कुछेक में । वैसे तो मैं ज्यादातर मंच को ही प्राथमिकता देती हूं।

सवाल - आपने बचपन से ही मंच में गाती आ रही है और फिल्मों में भी गाई है तो बताएंगे कि दोनो में क्या अंतर और चुनौतियां है ?
जवाब - फिल्म के लिए तो स्टुडियो में गाते है। इसमें सभी प्रकार की तैयारी पहले से होती है। जबकि मंच में सभी के सामने गाना होता है। इसमें बहुत ज्यादा अभ्यास की जरूरत होती है। इसमें दर्शकों का तुरंत प्रतिक्रिया भी मिलती है। आज कल के कलाकार बहुत ही कम समय में बिना मेहनत किए जल्द ही नाम कमाने की चाह रखते है लेकिन ऐसा नहीं है इसमें बहुत ही ज्यादा मेहनत करना होता है।

सवाल - गीत-संगीत के अलावा आपकी अन्य रूचियां ?
जवाब - समाज कार्य मंच के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का कार्य करती हूं। जैसे कन्या भूर्ण हत्यादहेज प्रथा,जाति प्रथास्वच्छता को लेकर कार्य कर रही हूं।

सवाल - चंदैनी गोंदा के बारे में बताइए ?
जवाब - चंदैनी गोंदा स्व रामन्द्र देशमुख के द्वारा निर्देशित सांस्कृतिक मंच है। यह एक सांस्कृतिक लड़ाई का कार्य किया है। इसमें हम लोगों ने सिपाही की भूमिका निभाए है। किसी भी राज्य का निर्माण में संस्कृति का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है।

सवाल - इस पीढ़ी के कलाकारों को क्या संदेश देंगे ?
जवाब - लोकगीतों को बचा कर रखे और फुहंड़ता से बचे। इससे हमारी संस्कृति दुषित नहीं होगी।

Monday, 13 February 2017

प्रेम से घृणा क्यों ?

भारत देश प्रेम से उथल-पुथल है। इतिहास की बात करे तो प्रेम कहानी, पौराणिक ग्रन्थ, मंदिरों की दीवारों में प्रेम की प्रतिमाएं और वर्तमान में फिल्म, गीत-संगीत, कविता, साहित्य पूरी तरह से इसी का गुणगान है। फिर हमारे समाज में इसको क्यों बुरी चीज  कहा जाता है और नफरत की नजर से देखा जाता है। प्रेमी-प्रेमिका को कोई अपराधी से कम नहीँ आका जाता है। इसलिए युवाओं को घर-परिवार से इसे छिपा-दबा कर रखना पड़ता है। ऐसा क्यों? जबकि प्रेम तो जीवन के लिए महत्वपूर्ण चीज है। इसके बिना जिंदगी निराश और शुष्क हो जायेगी। वही मुहब्बत में नफरत की आग लगाने वाले कई दलाल भी बैठे हैं। जो समाज के लिए बहुत घातक है। यह प्रेम, प्रेमी और प्रेमिका के कट्टर दुश्मन है और हमेशा घृणा के बीज बोते हैं।
इतने प्रेम के गाथा, फिल्म और गीत-संगीत है तो प्रेम की गंगा बहनी चाहिए। लेकिन नहीँ कभी लव जिहाद के नाम पे, कभी जाति और धर्म के नाम पे दंगा होता है। आज प्रेम के कट्टरपंथी इतना हो गए है कि वैलंटाइन डे का विरोध करने के लिए सोशल मिडिया पर शहीद भगत सिंह और उनके मित्र शहीद राजगुरु और शहीद सुखदेव को 14 फरवरी को फांसी दी गई थी करके पोस्ट कर रहे थे। जब लोगों ने इसका विरोध किया तो कह दिया कि इस दिन सजा सुनाई गई। जबकि वास्तविकता यह है कि 7 अक्तूबर, 1930 को फांसी की सजा सुनाई गई और 23 मार्च, 1931 को लाहौर जेल में तीनों को फांसी दे दी गई। असामाजिक तत्व सोशल मीडिया में इस तरह शहीदों के इतिहास से खेल रहे है। जो पूरी तरह से गलत और शहीदों के अपमान है। अब वैलेंटाइन डे में ये लोग डंडे लेकर प्रेमी जोड़े के ऊपर बरसायेंगे और कभी भी प्रेम न करने के लिए संकल्प करवाएंगे।
इस व्यवस्था के लिए पूरे समाज और परिवार जिम्मेदार है। जो हमेशा से लोगों को प्यार मोहब्बत बेकार की बाते कहा करते हैं। माँ-बाप को भी चाहिए कि वे युवाओं की भावनाओ को समझे और उसे जीने और जीवनसाथी चुनने के लिए पूरे अधिकार दे। लड़कों को तो कुछ छूट मिली हुई है, लेकिन लड़कियों को आज भी सभ्य समाज में भेड़-बकरी समझी जाती है। उसे कहाँ कैसे जीना है, कहा पढ़ना है, कौन से कपड़े पहनना है, कहा आना-जाना है, किससे शादी करनी है और क्या काम करना है सब माँ-बाप तय करते हैं। कभी अपनी बेटी की चाह को जानने की कोशिश नहीँ करते फिर बाद में पछताते हैं। आज ज्यादातर प्रेमी जोड़े जब समाज में विरोध होने लगते है तो आत्महत्या कर लेते है। बहुत जगह तो यह भी सुनने में आता है कि उनके ही घर के सदस्यों के द्वारा हत्या कर दी गई। ये कैसे समाज और परिवार है ?

Sunday, 12 February 2017

अढ़ा ल हुसियार बनावत हे रेडिया

वाह रे रेडिया तै तो अनपढ़ बर गुरूजी आस। जेन मनखे ह कभू इस्कूल के दुवारी ल नई देखे हे ओला रेडिया ह पढ़े-लिखे बर सिखावत हे। अढ़ा मनखे ह रेडिया ल सुन-सुन के आनी-बानी के गोठ-बात अउ जानकरी ल पा जाथे। नवा-नवा जानकारी मिलथे ताहन सुनइया ह चुप नई रहाय आस-पास के अड़ोसी-पड़ोसी ल घलो बताथे। अइसन ढंग ले रेडिया ह गांव के अनपढ़ लोगन मन ल सिकछित बनाए के बुता करत हे।
रेडिया के महत ल बताय खातिर संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को ह पहली बार 13 फ़रवरी 2012 के विश्व रेडिया दिवस के रूप म मनईस। 13 फ़रवरी के दिन संयुक्त राष्ट्र रेडियो के सालगिराह घलो आय। इही दिन बरस 1946 म रेडिया के सुरुआत होय रहिस। दुनिया के 95 फीसदी जनसंख्या तक रेडिया के पहुंच हाबे। ये ह जानकारी पाय बर सस्ता अउ बढ़िया साधन आय। आजकल अतेक संचार के नवा-नवा माध्यम होय के बाद भी रेडिया के दीवानगी म कोनो कमी नई आय हे। अउ एफएम आ जाय ले युवा पीढ़ी ह एकर डाहन मड़माड़े मोहाय हे। दुनिया के कोनो कोंटा म बईठ के रेडिया सुने जा सकत हे।

देशद्रोही

अधिकार की बात करे
तो देशद्रोही
रोजगार की बात करे
तो देशद्रोही
सरकार के खिलाफ आवाज उठाओ
शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा की मांग की
तो देशद्रोही
समानता और सम्मान के लिए लड़ो
झूठ को झूठ और सच को सच कहो
तो देशद्रोही
अगर तुझे देशभक्त बनना है
तो भेड़ चाल चलना है
मुँह को सी कर
आँख़े बंद करना है
देश को बेचने वालों के
तलवे चाटना है
तभी तुम सच्चे देशभक्त कहलाओगे।

Saturday, 11 February 2017

छत्तीसगढ़िया लोक कलाकारों की शहरों में कद्र नहीं: सीमा कौशिक

छत्तीसगढ़ के शहरों में स्थानीय लोक कलाकारों की कोई कद्र नहीं है। यहां कलाकारों को जो भी सम्मान मिलता है,गांवों में मिलता है। ग्रामीण ही लोककला और संस्कृति को बचाकर रखे हैं, नहीं तो लोककला और लोकसंगीत कब के विलुप्त हो जाते।

यह कहना है छत्तीसगढ़ की सुप्रसिद्ध लोकगायिका सीमा कौशिक का। कुछ बरस पहले उनके छत्तीसगढ़िया गीत “टूरा नई जानय रे नई जानय, बोली-तोली मया के” ने धूम मचाते हुए बेहद लोकप्रियता हासिल की थी. सीमा कौशिक  से प्रदेश की लोककला और कलाकारों के बारे में हुई बातचीत प्रस्तुत है।
उनका कहना है कि शहर के लोग अपने आप को छत्तीसगढ़िया नहीं कहते। न ही छत्तीसगढ़ी गीतों और फिल्मों को देखते, सुनते हैं। वे अपने बच्चों को भी छत्तीसगढ़ी बोलने के लिए मना करते हैं। यहाँ के कलाकारों को जो भी सम्मान मिलता है वह गांवों में मिलता है। गांव के लोग खुद को छत्तीसगढ़िया कहने में गर्व महसूस करते हैं। छत्तीसगढ़ की संस्कृति को गांव के लोगों ने संरक्षित रखा है।  

वे कहती हैं कि हम कलाकार ग्रामीणों से मिले प्रतिसाद के कारण ही छत्तीसगढ़ी गीत लिख और गा पा रहे हैं। गांव में सुनने वाले अच्छे कान और देखने वाली अच्छी आंखें है। शहर में यहां के कलाकारों को उतना सम्मान नहीं मिल पाता, जितना मिलना चाहिए। यहां तो बाहर के कलाकारों के आयोजन में करोड़ों रूपये खर्च किए जाते हैं, लेकिन स्थानीय कलाकारों को मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रहना पड़ता है। यहां तक कि कलाकारों को कार्यक्रम के लिए उचित मेहनताना भी नहीं दिया जाता है। 

 

तालियाँ सुनकर शरमा जाती थी ...

 

पूरे प्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, बिहार, बैंगलूरू, ओडिशा और महाराष्ट्र समेत अन्य राज्यों में कई कार्यक्रम दे चुकीं लोकगायिका सीमा कौशिक बताती हैं कि वे बचपन से ही आकाशवाणी रायपुर की दीवानी हैं। जब रेडियो सुनते-सुनते सो जाती थी, तो मां-पिताजी खूब डांटते थे। रेडियो पर साधना यादव, कुलवंतिन और जयंती यादव के गीतों को सुना करती थी, साथ ही गाती भी थी। जब रेडियो के गीत और मेरी आवाज बंद हो जाती थी, तो आस-पड़ोस के लोग घर से निकलकर खूब तालियां बजाते थे. मैं बहुत छोटी थी, शरमा जाती थी। तब लोग कहते थे कि बहुत सुंदर गाती है। रेडियो की आवाज और तुम्हारी आवाज तो एक जैसी लगती है। दोनों में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। स्कूल में गीत गाने पर प्रोत्साहन मिला। 13 वर्ष की उम्र से गा रही हूँ। उसके बाद रजनी और कुलवंतिन के साथ मंच पर गाने लगी। इसी दौरान गीतों की रचना भी करने लगी। सबसे पहला लोकमंच ‘आरो गजरा’ बनाया था। यह 35 कलाकारों की टीम थी। ‘बाली उमर’ एलबम बनाया। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर मेरे गीत प्रसारित होने लगे। फिर मैंने 1998 में ‘मोंगरा के फूल’ के नाम से लोकमंच संस्था तैयार की। आज भी इसी बैनर तले कार्यक्रम करती हूं। मुझे सभी जगहों पर दर्शकों का बहुत प्यार और आशीर्वाद  मिला। श्रोताओं से मिला सम्मान ही किसी कलाकार की जिन्दगी होती है, यह जब तक मिलेगा, तब तक गाती रहूंगी।

Friday, 10 February 2017

भुलवारे के ओखी

ये ले अउ चालू होगे महा कुंभ मेला अउ महा उतसाह। वाह रे परलोखिया सरकार। किसान के दूरदसा अउ पीरा ह दिखत नई हे। जनता ल मेला अउ उतसाह म भूलवारत हस। का उतसाह मनाय ले काकरो पेट भरही? इहा मजदूर अउ किसान ह करजा अउ भूख के मारे आत्महत्या करत हे। खेती बाड़ी म लागत अतका पइसा ह नई आवत हे। बारी-बियारा वाला मन साग-भाजी ल फोकट म दे बर अउ सड़क म फेके बर मजबूर हे। किसान मन केंद्र सरकार के बजट ल लेके आस लगाय रहिस फेर उहू ह पानी फेर दिस। न तो धान के कीमत म बढ़ोतरी करिस न बोनस देय के। अउ उल्टा काहत हे किसान ल दुगुना करजा दे जाही। ये तो अइसन आय जइसे मरत तेकर ऊपर अउ पखरा ल लदकना। भाई किसान करजा के मारे मरत हे। त ओला करजा ले छुटकारा बर उदिम करना चाही फेर नही।
छत्तीसगढ़ ल धान के कटोरा कहे जाथे अउ अइसन मत हो जाये किसान अउ धान ह नदा जहि अउ दुच्छा कटोरा बस बाच जहि ये संसो के बिसय आय। अब इहा के सरकार ल जनता अउ हित से कोई मतलब नइहे। बस लोगन ल तमासा दिखाना हे अउ मजा लूटना हे। राज उतसाह म हफ्ता दिन म करोड़ो पइसा के बरबादी। का बात के ख़ुशी अउ उतसाह? का इहा के जनता मन खुस हे? अब देख लव फेर राजिम महाकुंभ, सिरपुर महा उतसाह, मैनपाट महा उतसाह अउ काय काय उतसाह मनावत हे। भले किसान, मजदूर, शिक्षाकर्मी अउ स्कूल कॉलेज के स्थिति ल सुधारे बर नई सकत हे। धान के कीमत ह 12 रुपिया किलो साग सब्जी के तो मत पूछ 2 रुपिया ले 10 रुपिया अउ एक ठन पानी बाटल ह 20 से 30 रुपया लीटर मतलब किसान के धान अउ सब्जी ह पानी के कीमत के बरोबर नई हे साल भर मेहनत करके किसान ह दुच्छा के दुच्छा रही जथे। ओकर पेट ह भूख म उन्ना के उन्ना रही जथे। फेर सरकार ल कभू इकर पीरा अउ समस्या ह नई दिखय। ये समस्या ल छिपाय बर सरकार ह आनी-बानी के कोसिस करथे। छत्तीसगढ़िया मन बड़ सीधा-साधा होथे। एकर फायदा ल उठा के साल भर तमासा देखावत रथे। जेकर से दरद म काहरत मजदूर, किसान, बेरोजगार नवजवान मन ह ओकर खिलाफ झन बोल सके। छत्तीसगढ़ सरकार ह जनता के हित बर नही अपन स्वारथ ल साधे बर भकम्प कोसिस करत हे। विज्ञापन अउ जनसम्पर्क म कतको पइसा ल लुटावत हे। "हमर छत्तीसगढ़ योजना" के नाम से पंचायत के प्रतिनिधि मन ल राजधानी बुलावत हे अउ एकर बर कतको पइसा के बंदरबाट करत हे। करोड़ो रुपया ल ये योजना म फुकत हे। ओतका म तो पूरा छत्तीसगढ़ के तसवीर ह बदल जातिस। फेर का करबे सरकार ल बिकास नई करना हे बस वाहवाही लूटाना हे।

Tuesday, 7 February 2017

अन्धविश्ववास की बेड़ी तोड़ो

पुरानी खोखली सड़ी हुई
परंपराओ और अंधविश्वास की बेड़ियां तोड़कर
नए रूप में तुम जीना सीखो
इस दुनिया में अब एक नई शुरूआत लिखो।
इसके लिए क्यो हम लड़ते और मरते रहे
एक दूसरे का कत्ल करते रहे।
बंद करो तुम अब लड़ना
अब सभी से प्यार करो
समानता हो जहां वो नया समाज तैयार करो।

पूजते रहते तुम पत्थर को
जिसमें कोई जान नहीं
खुद को जो बचा न सके
वो हमारा भगवान नहीं।
मत ठोको सिर को पत्थर पर
क्यों भटकते तुम काबा काशी के दर पर।

जहां पैसे बने है पुजारी का भोग
भगवान के नाम पर लूटे जाते है लोग
भीड़ जो करती है हम क्यों करे
भीड़ के पीछे हम क्यों मरे

हमें निकलना होगा इस आज से
जिसमें ऊच-नीच हो ऐसे समाज से
सोचो कि एक विशाल सुंदरतम दुनिया हो
जहां जाति-पाति नहीं मेहनत और ज्ञान की पहचान हो
नए रूप में तुम जीना सिखो
अब एक नई शुरूआत लिखो।

नई सुबह अब दूर नहीं

शिक्षा गरीब के बच्चों की पहुंच से दूर है
जिस उम्र में उन्हें पढ़ना चाहिए
उस उम्र में वे काम करने को मजबूर है
इस भ्रष्ट सरकार को इससे क्या लेना-देना
शिक्षा को बेचने और जेब भरने में चूर है।

सरकार की दोगली शिक्षा नीति ने
शिक्षा को इतना महंगा कर दिया
सिर्फ अमीरजादों के बच्चे आगे बढ़ सकते है
गरीब के बच्चों के सपने हुए चकनाचूर है।

इस देश को आगे बढ़ाने वाला
गरीब किसान मजदूर है
इसकी देखभाल और विकास तो दूर की बात
अपनी सरकार तो मजदूर के बच्चे को
मजबूर बनाने के लिए मशहूर है।

समान शिक्षा की बात कहकर
शिक्षा को ही सामान बना दिया
इस देश के दलाल बनकर
उसे बाजार में बेच दिया।
असमान शिक्षा पाकर ही देश में
असमानता की बढ़ रही लकीर है

भेदभाव शोषण अन्याय अत्याचार
जब हो समाज में
तो समझ लो यह आजादी नहीं
गुलामी की जंजीर है।

आओ हम सब मिलकर इस जंजीर को तोड़े
जब सभी की ताकत मिले साथ में
एक नई सुबह नहीं अब ज्यादा दूर है।

सुख मां-बाप के चरन म

सुख पाय बर कहां भटकत हस संगी,
सबे सुख मां बाप के चरन म समाय हे।
कतको कमाले, कतको घर बनाले,
कतको पूजा अउ तिरथ करले,
भगवान तो उही आय
तोर सुख बर कतको दुख ल उठाय हे।

मां-बाप नई रतिस त दुनिया म नई रतेस,
आज कोन ल मां-बाप कतेस,
मां तो ममता के सागर आय,
जेमा सबे मया-दुलार समया हे,
धूप म रहिके भूख ल सहिके
तोर भूख ल मिटाय हे।

काय नई देखे हे तोर बर सपना,
जेन ल मागथस ओला लाके देथे,
जिनगी भर के सुख देवईया ल झन भुलाबे,
जे ह कतको घाम-प्यास म
पसीना बहाके पढाय हे।

मां-बाप के साथ रहई ह तो सरग आय,
जिहां मया-दूलार म हृदय भर जाय।
कछू बात के संसो नई रहाय,
जिंहा खुशी से रोटी खाय,
जे ह सही रद्दा ल बताय हे।

जउन ह मां-बाप के कहे ल नई मानय,
हर रद्दा म दुख ल पाय हे।
जे ह अपन मां-बाप ल गारी देथे,
जगा-जगा म मार-गारी खाय हे।
कभू ऐकर आत्मा ल झन दुखाबे,
जे ह तोर रद्दा ल सुघ्घर बनाय हे।

सब ल भूलाबे त भूला जबे,
मां-बाप ल झन भूलाबे।
तभे संगी मन भर के सुख ल पाबे,
बढ़िया कमाबे अउ बढ़िया खाबे।
जिनगी ल बिता दे ऐकर चरण म,
जे ह तोर जिनगी ल सुघ्घर बनाय हे।