Thursday, 16 February 2017

लोकगीत निरंतर बहने वाली नदी के समान : लक्ष्मण मस्तुरिया

गीतकार, लेखक, कवि और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया का जन्म 7 जून 1949 को ग्राम मस्तूरी, जिला बिलासपुर में हुआ। वे छात्र जीवन से ही लेखन कार्य में लगे हुए हैं। छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक जागरण मंच 'चंदैनी गोंदा' के सर्वाधिक गीतों के सर्जक और 'देवार डेरा', 'कारी' लोकमंच के गीतों के रचयिता। रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित धारावाहिक लोकसुर के निर्माता। उनके गीत 'मोर संग चलव रे' ने छत्तीसगढ़ में अलग पहचान बनाई है। उनसे लोकगीत को लेकर हुई बातचीत प्रस्तुत है -
लोकगीत की शुरुआत के बारे में बताइए ?
- लोकगीत की शुरुआत बहुत पहले से हुई है, जब समाज बना तभी से लोकगीत बना। तुलसी के दोहे से पहले भी लोकगीत थे। उस समय तुलसी दास ने "बन निकल चले दोनों भाई" गीत को लोकगीत कहा है। फिर इसी प्रकार लोग तुलसी और कबीर के गीतों और पदों को लोकगीत मानने लगे। इसके बाद जो संस्कार के गीत जैसे विवाह, सोहर और अन्य गीतों को लोकगीत की श्रेणी में रखे।
लोकगीत आप किस गीत को मानते है ?
- जो जनसमूह के साधारण और सरल गीत हैं, वह लोकगीत है। इसमें भाषा और व्याकरण जैसी बंदिशे नहीँ होती। लोकभाषा से ही लोकगीत बनता है। जो गीत लोगों में व्याप्त हो और अधिक प्रसिद्धि पा लेता है वही लोकगीत है। जब कोई मनोरंजन के साधन नहीँ होते थे, तब समुदाय में उत्साह और ख़ुशी के लिए गाना गाए जाते थे। इस प्रकार गीत समुदाय में व्याप्त हो जाते थे। वैसे तो लोकगीत बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी है।
लोग आपके गीतों को लोकगीत मानते है। क्या आप मानते है ?
- मैं अपने गीतों को कैसे लोकगीत कह सकता हूँ। यह तो लोक या समुदाय तय करता है। मैंने तो बस देवार डेरा के जो गीत थे उसको सुधार कर सार्थक और प्रभावी बनाया है। अगर लोग मेरे गीतों को लोकगीत मानते है, तो लोकगीत है क्योंकि लोकगीत लोगों के ऊपर निर्भर करता है। जब समुदाय के द्वारा कोई गीतों को स्वीकार लेते है वही लोकगीत है।
देवार डेरा के गीतों को सुधारने की जरूरत क्यों महसूस की ?
- पहले देवार डेरा के गीतों में भाषा और अन्य कई कमियां थी। लोगों को समझ नही आता था। जैसे 'दौना म गोंदा केजुआ मोर बारी म आबे काल रे' को सुधार कर 'चौरा म गोंदा रसिया मोर बारी म' किया। इसी प्रकार से 'चन्दर छबीला रे बघली ल' सुधार कर 'मंगनी म रे मया नई मिलय रे मंगनी म' किया।
गीत लेखन और गायन के क्षेत्र में कब से कार्य कर रहे हैं ?
- वैसे तो 1960 से गीत और कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। वही 1971 से पूर्ण रूप से इस कार्य में लगा। उस समय कृष्ण रंजन, पवन दीवान और मैं शिक्षक थे। फिर मैं शिक्षक की नौकरी छोड़कर 'चंदैनी गोंदा' मंच से जुड़ गया। इसके बाद मैंने देवार डेरा के गीतों को सुधारने का भी कार्य किया। इसके अलावा कारी लोकनाट्य में भी बहुत से गीतों का सृजन किया। उस समय सभी छत्तसगढ़ी के लिए निस्वार्थ कार्य करते थे।
आप कितने गीतों की रचना किए और गाए ?
- वैसे तो मैं गाना बहुत कम गाया हूं। मोर संग चलव रे, बखरी के तुमा नार, मे छत्तीसगढ़िया अव, चल गा किसान असाढ़ आगे, मन काबर आज तोर उदास हे और कुछेक गाना। वही लगभग 300 से ज्यादा गीतों की रचना हुई है। मेरे गीतों को कई फिल्मों में शामिल किए और कई गायकों ने गाए। 
पहले के गीतों में और अब के गीतों में क्या बदलाव देखते है ?
- बदलाव आया है। पहले के गीतों में सन्देश हुआ करते थे, लेकिन आजकल के गीतों में सन्देश तो छोड़ो कुछ समझ  नहीँ आता। आजकल व्यवसायिक ज्यादा हो गया है। गीत के नाम से कुछ भी परोसा जा रहा है।

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