काली संझा जुआर मे ह डगनिया बाजार होतव मोर घर जावत रहेंव। तब रद्दा म पीछू डाहर ले एक ठन फटफटी ह हकन के मोर फटफटी ल ठोक दिस। तब मोर दिमाग के पारा ह चढ़गे। अउ जोर से गारी देंव- कोन आय रे अंधरामन ह सोझे गाड़ी ल ठोकत हे। आंखी नइ दिखत होही त इलाज करा लय। तब पीछू डाहर ल देखथंव त एक झन जवान टूरी ह एक हाथ म बड़े मोबाइल धरे गोठियावत रहाय अउ दूसर हाथ म फटफटी के हेंडिल ल धरे रहाय। तब मोर गारी ल सुनके कहिथे- सारी सर गलती हो गई। तब मे ह ओला पियार ले समझावत कहेंव- देख वो तोर सारी कहे ले मोर गाड़ी के टूटे एंटीगेटर लाइट ह ठिक नइ हो जाए। मोबाइल म गोठियाना हे त कोनो मेर बइठ ले अउ ससन भर गोठिया। फेर बड़े जान मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल मड़माड़े चलावत हस। तहू जाबे अउ जजमानो जाही। तब ओ छोकरी ह थोकन गुस्सा म कहिथे- जरा सी बात के लिए भासन सुना रहे हो। मैं अपने मम्मी-पापा की बात नहीं सुनती। गलती हो गई तो कह रही हूं। तब अतके बेरा म सड़क म चाय दुकान लगइया कचरू कका ह आगे। अउ ओ टूरी के गोठ ल सुन के कचरू कका ह कथे- सही तो काहत हे नाेनी महूं ह तो ठेला ले बइठे-बइठे देखत हंव। कइसे मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल अलकरहा चलावत हस। थोकन बाचगे नाली म फेका जतेस अउ दांत ल निपोर देतेस। अउ ए बाबू ह बने ल तो काहत हे एक तो फटफटी चला नहीं तो नहीं तो मोबाइल म गोठिया। कचरू कका के डांट ल सुन के टूरी ह अपन गाड़ी ल चालू करके कले चूप फूर होगे। कचरू कका ह मोला कइथे- आजकल बेटा जउन मेर देखबे तउन मेर कतको भीड़ म घलो टूरा-टूरी मन बड़े-बड़े मोबाइल ल एक हाथ म धरके अउ दूसर हाथ म एक्सीलेटर अइठे गोठियावत मड़माड़े फटफटी चलावत रइथे। कोनो ह कान म इयरफोन ल खुसेर के गाना सुनत नही ते गोठियावत अंधाधून फटफटी ल चलाथे। अइसन फटफटी चलइ ह बने नोहे बेटा कभू बड़े जान अलहन हो जही रे। कचरू कका के गोठ ह सही मे गुने के आय। सही म आज मोबाइल ह जीव के काल होगे हे। मनखे ह थोकन लापरवाही करके बड़े जान दुरघटना ल नेवता देवत हे। अउ आजकल कंपनीमन ह फोकट म बात करे वाला आफर देवत हे तेकर सेती घलो मनखे दिन-रात काही काम बुता रहाय मोबाइल ल थोरकुन नइ छोड़न काहत हे। त कोनो मनखे ह रातभर जागके मोबाइल म चैटिंग करके अपन स्वास्थ ल बिगाड़त हे। त लइका मन ह मोबाइल म गेम अउ इंटरनेट म अपन पढ़ई ल बरबाद करत हे। सियान मन ह कथे ते ह सही बात आय कोनो जिनिस के उपयोग जरूरत के हिसाब ले करना चाही। अति ह दुरगति आय।
Sunday, 24 December 2017
मोबाइल के चक्कर
काली संझा जुआर मे ह डगनिया बाजार होतव मोर घर जावत रहेंव। तब रद्दा म पीछू डाहर ले एक ठन फटफटी ह हकन के मोर फटफटी ल ठोक दिस। तब मोर दिमाग के पारा ह चढ़गे। अउ जोर से गारी देंव- कोन आय रे अंधरामन ह सोझे गाड़ी ल ठोकत हे। आंखी नइ दिखत होही त इलाज करा लय। तब पीछू डाहर ल देखथंव त एक झन जवान टूरी ह एक हाथ म बड़े मोबाइल धरे गोठियावत रहाय अउ दूसर हाथ म फटफटी के हेंडिल ल धरे रहाय। तब मोर गारी ल सुनके कहिथे- सारी सर गलती हो गई। तब मे ह ओला पियार ले समझावत कहेंव- देख वो तोर सारी कहे ले मोर गाड़ी के टूटे एंटीगेटर लाइट ह ठिक नइ हो जाए। मोबाइल म गोठियाना हे त कोनो मेर बइठ ले अउ ससन भर गोठिया। फेर बड़े जान मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल मड़माड़े चलावत हस। तहू जाबे अउ जजमानो जाही। तब ओ छोकरी ह थोकन गुस्सा म कहिथे- जरा सी बात के लिए भासन सुना रहे हो। मैं अपने मम्मी-पापा की बात नहीं सुनती। गलती हो गई तो कह रही हूं। तब अतके बेरा म सड़क म चाय दुकान लगइया कचरू कका ह आगे। अउ ओ टूरी के गोठ ल सुन के कचरू कका ह कथे- सही तो काहत हे नाेनी महूं ह तो ठेला ले बइठे-बइठे देखत हंव। कइसे मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल अलकरहा चलावत हस। थोकन बाचगे नाली म फेका जतेस अउ दांत ल निपोर देतेस। अउ ए बाबू ह बने ल तो काहत हे एक तो फटफटी चला नहीं तो नहीं तो मोबाइल म गोठिया। कचरू कका के डांट ल सुन के टूरी ह अपन गाड़ी ल चालू करके कले चूप फूर होगे। कचरू कका ह मोला कइथे- आजकल बेटा जउन मेर देखबे तउन मेर कतको भीड़ म घलो टूरा-टूरी मन बड़े-बड़े मोबाइल ल एक हाथ म धरके अउ दूसर हाथ म एक्सीलेटर अइठे गोठियावत मड़माड़े फटफटी चलावत रइथे। कोनो ह कान म इयरफोन ल खुसेर के गाना सुनत नही ते गोठियावत अंधाधून फटफटी ल चलाथे। अइसन फटफटी चलइ ह बने नोहे बेटा कभू बड़े जान अलहन हो जही रे। कचरू कका के गोठ ह सही मे गुने के आय। सही म आज मोबाइल ह जीव के काल होगे हे। मनखे ह थोकन लापरवाही करके बड़े जान दुरघटना ल नेवता देवत हे। अउ आजकल कंपनीमन ह फोकट म बात करे वाला आफर देवत हे तेकर सेती घलो मनखे दिन-रात काही काम बुता रहाय मोबाइल ल थोरकुन नइ छोड़न काहत हे। त कोनो मनखे ह रातभर जागके मोबाइल म चैटिंग करके अपन स्वास्थ ल बिगाड़त हे। त लइका मन ह मोबाइल म गेम अउ इंटरनेट म अपन पढ़ई ल बरबाद करत हे। सियान मन ह कथे ते ह सही बात आय कोनो जिनिस के उपयोग जरूरत के हिसाब ले करना चाही। अति ह दुरगति आय।
Tuesday, 5 December 2017
आडंबर के मिटइया गुरु घासीदास
मंदिरवा म का करे ल जइबो, अपन घट के देव ल मनइबो, पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत, अपन मन ल काबर भरमइबो... ए बात ल घासीदास जी ह तब कहिस हे जब ओ ह जगन्नाथ पुरी के यातरा म जावत रहिस ताहन आधा बीच म सारंगगढ़, रायगढ़ ले लहुट के आगे। अउ कहिस कि मंदर म का करे बर जाबो। जेन ह अपन खुद के रकछा नइ कर सकय वो ह काय मनखे के सुनही। हमन कतेक बड़ मूरख आन पखरा के पूजा करथन जे ह न बोल सकय, न चल सकय, न खा सकय, न पी सकय अउ न उठ-बइठ सकय। तेकर तीर जाके हमन हमर समय अउ धन के नास करत हन। ए परकार के अंधबिसवास, रूढ़ीवाद अउ परंपरावाद के खिलाफ जोरदार बिरोध करिस। घासीदास जी ह मूरति पूजा कभू मत करव कहिन। अउ लोगन मन ल अपन मनोबल ल बढ़ाय के अपील करिस। एकर बर कहिस कि अपन घट के देव ल मनइबो। मन ले बढ़ के देवता कुछू नोहे। हमन ह पखरा के पूजा करथन। ए ह हमर मानसिक बीमारी आय। मन ल पूजा पाठ अउ पाखंड ले दूर रखके करम अउ मेहनत म बिसवास करव।
घासीदासजी ह समानता के बात घलो कहे हे। वोकर कहना हे कि मनखे-मनखे एक समान। अरे भइया सबे मनखे ह बराबर आय जाति-धरम के भेद ल बना के काबर लड़त-मरत हन। घासीदास ह ए सब एकर सेती कहिस कि ओ ह खुद अइसन पीड़ा ल भोग चुके रहिस। काबर घासीदास जी के जनम 18 दिसंबर 1756 म रइपुर जिला के गिरोधपुरी गांव म एक गरीब किसान परिवार म होय रहिस। ओ समय म गरीब कमजोरहा रहाय ओकर उपर बड़ सोसन अउ अत्याचार होय। अपन आप ल उच जात कहइया पाखंडी मन ह कमजोरहा मनखे मन ल सिकछा अउ सारवजनिक जगह ले दूरीहा रखके अपमानित करे बर नीच जात कहाय। ए पीरा ल देखके घासीदास जी ह सतनामी पंथ बनइस। दबे कुचले मनखे ल सेेेकेलिस। अउ कहिस कि ए सब अपन आप ल उच जाति समझइया जात-धरम के धंधा करइया मन के चाल आय। जउन ह आडंबर म फंसा के सोसन अउ अत्याचार करत हे। तेकर सेती तुमन ह पोथी-पुरान अउ पखना पूजा म मत अरझव। अउ सत ल जानव-मानव। जउन दिखत हाबय ओकर उपर भरोसा करव। कालपनिक बात के खुल के बिरोध करव। जउन ह यथारत ल मानही उही ह सतनामी कहलाही। ए परकार के दलित सोसित वर्ग ल एकट्ठा करके समाज म बड़ बदलाव करिस। तब जाके सोसित-पीड़ित मन ल सम्मान मिल पइस। पिछड़ा वर्ग के मनखे बर घासीदास जी ह मसीहा आय। जउन ह वैज्ञानिक सोच अउ प्रगतिसील बिचार ल फैला के आंडबर के पेड़ म टंगिया चलइस। घासीदास जी ह अंधबिसवास अउ रूढ़ीवाद के कुलूप अंधियारी म गियान के परकास करके नवा बिहान लइस।
Sunday, 3 December 2017
शिक्षाकर्मी, शिक्षा और स्कूल को मिटाना चाहती है सरकार
शिक्षाकर्मियों का आंदोलन को खत्म करने के लिए सरकार पुलिस और मिल्ट्री की ताकत लगा दी है। फिर भी शिक्षाकर्मी पूरे मनोबल के साथ आंदोलनरत है। पिछले दिनों कई शिक्षाकर्मियों को बर्खास्तगी का आदेश देना सरकार की बहुत तानाशाही कार्रवाई थी। साथ ही शिक्षाकर्मी नेताओं को उनके घर से उठा ले जाना भी लोकतंत्र की हत्या है। प्रदेश के मुख्या डा. रमन सिंह बार-बार शिक्षाकर्मियों को लताड़ते हुए उनकी एक भी मांगे पूरी नहीं होने की बात कह रहे है। वह शिक्षाकर्मी, शिक्षा और स्कूल के प्रति उदासिनता को दिखाती है।
शिक्षाकर्मी की मांगों पर गौर करे तो सभी मांगे जायज है। क्या इतनी महंगाई में भी कम वेतन और ज्यादा काम कोई करेगा। आज पूरी तरह से शिक्षाकर्मियों का शोषण हो रहा है। उन्हें शिक्षाकर्मी भले कहा जाता है, लेकिन न जाने वह क्या-क्या कर्मी है। कभी गांव में मतदाता सूची का काम दे दिया जाता है, तो कभी शौचालय अन्य सर्वे का, कभी चुनाव ड्युटी और शासन-प्रशासन के कामों में भीड़ा दिया जाता है। तो शिक्षाकर्मी स्वतंत्र होकर बच्चों को पढ़ाएगा क्या। वही बात शासकीकरण की है अभी तक लगातार 15 सालों से शिक्षकों की नियुक्ति कही भी नहीं हो रही है। जिस प्रकार कम पैसे और ठेकेदारी में शिक्षा का काम हो रहा है, यह शिक्षा के प्रति सरकार की उदासिनता है।
आज प्रदेश में शिक्षा की स्थिति बद से बददतर होती जा रही है, फिर भी भाजपा सरकार वाहवाही बटोरने में पीछे नहीं हट रही है। सरकार आज पूरी तरह से सरकारी स्कूलों को बंद कर शिक्षा को निजी स्कूलों के हाथों में बेचने का काम कर रही है। मंत्री, विधायक और सांसद अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते इसलिए उन्हें आम जनता के बच्चों और शिक्षाकर्मियों की कोई चिंता नहीं है। क्योंकि उनके बच्चों की पढ़ाई प्रभावित
Wednesday, 29 November 2017
टोनही आैर बैगा के खेल में जा रही जानें
आज अंधविश्वास के चलते लोग अपने ही घरवाले का खून कर रहे हैं। वही कई लोग डर-डर के जी रहे हैं। गांव हो या शहर बैगा और टोनही के खेल में अंधविश्वासी लोग मर और मार रहे हैं। हाल ही में पलारी के अमेरा गांव के एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है, जिसमें एक अंधविश्वासी पिता ने बैगा के कहने पर भूत भगाने के लिए अपने ही 12 वर्षीय बेटे की बलि चढ़ा दी। वहीं पिछले महीनों रायपुर के पुरानी बस्ती में एक युवक ने अपनी ही मां को टोनही होने के संदेह में तावा से पीट-पीट कर हत्या कर दी।
यह घटनाएं हमारे समाज काे आइना दिखाती है कि हम आज कितनों भी आधुनिक होने का ढोंग करे फिर भी बहुत ज्यादा आडंबर, अंधविश्वास, अवैज्ञानिक सोच और रूढ़ीवादी की चादर ओढ़े हुए हैं। देश में जब तक अंधविश्वास और अंधविश्वास फैलाने वाले बैगा, ओझा और ढाेंगी बाबाओं पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई नहीं होगी तब तक यह समस्याएं जस के तस बनी रहेगी। वही लोगों में जब तक वैज्ञानिक सोच नहीं होगी तब तक बदलाव की कोई कल्पणा नहीं की जा सकती।
आज तो स्थिति ऐसी है कि आदमी अपनी मोटरसाइकिल, कार, घर और अन्य चीजों को भूत और टोनही की नजर लगने से बचाने के लिए कई तरह के उपाय
इस देश में अंधविश्वास की बीमारी से ग्रसित लोग भले जान दे दें या अपने ही घरवालों को मौत के घाट उतार दे, लेकिन इस बीमारी से लड़ने के लिए कोई कोशिश नहीं करेगा। हमें चाहिए कि इस बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को उनके मनोबल से परिचित कराए और काल्पनिक भूत-प्रेत, देवी-देवताओं, ताबीज-कंडे, बैगा-बाबा और अंधविश्वास के ठेकेदारों से दूर रखे। तभी परिर्वतन संभव है।
Tuesday, 28 November 2017
आवव गरब ले बोलव छत्तीसगढ़ी
छत्तीसगढ़ ल भले अलग राज बने 17 साल होगे अउ छत्तीसगढ़ी भासा ल लेके भले अलग आयोग बनगे फेर अभी ले छत्तीसगढ़ी कोनो मेरा लागू नई होहे। अउ एकर कारन हमी मन हरन। काबर छत्तीसगढ़ म रही के हमन ह छत्तीसगढ़ी बोले बर लजाथन-सरमाथन त दूसर भासा के बोलइया मन ले हमन कइसे छत्तीसगढ़ी के आस लगा सकथन। सोचे के बात तो ए हरे कि आज छत्तीसगढ़िया मन ह मानसिकता बना ले हे कि छत्तीसगढ़ी बोलइया मन ह गवांर होथे। अउ एकर बर एक पैमाना घलो तय कर डारे हे कि जउन ह अंगरेजी बोलथे हो ह मंडल, हिंदी बोलइया गरीब अउ छत्तीसगढ़ी बोलइया भिखारी। अइसन मानसिकता ह महतारी भासा बर खतरनाक आय। कही अइसे मत हो जाए कि छत्तीसगढ़ी भासा ह नंदा जही। अब बेरा आगे हे ए भासा ल जतन के रखे के तभे हमर संस्कृति अउ पहचान ह बचे रही।
आज के नेता अउ अभिनेता मन ह अपन काम साधे बर दू-चार लाइन छत्तीसगढ़ी बोल देथे। कोनो मंत्री अउ विधायक ह छत्तीसगढ़िया मन कर दू लाइन छत्तीसगढ़ी बोल के अइसे दिखाथे कि जानो-मानो ओ ह छत्तीसगढ़ी भासा के बोलइया आय। ओकर आफिस म मिले बर कोनो मनखे ह चल देथे त हिंदी अइसन बोलही अउ रोब दिखाही जानोमानो उही ह हुसीयार आय बाकी सब भोकवा। छालीवुड के बात करे जाय तो निर्माता-निर्देशक अउ हीरो-हिरोइन ह घलाे अपन असल जिनगी म छत्तीसगढ़ी म नइ गोठियाय। भले पूरा ढाई घंटा के
छत्तीसगढ़ी भासा के साथ अन्याय करे म छत्तीसगढ़िया मन के घलो हाथ हाबय। अब तो गांव के मनखे सहर म का आ जथे पूरा अपन महतारी भासा ल भूला जथे। अउ कोनो गांव देहात के संगवारी मिलथे ओकरो ले छत्तीसगढ़ी म नइ गोठियाय। इहा के मनखे ह जब तक ले छत्तीसगढ़ी बोले म गरब नइ करही अउ अधिकार के साथ नह बोलही तब तक कतको छत्तीसगढ़ी ल लेके संगठन बनही अउ आयोग बनही फेर पोठलगहा काम नइ होवय। आज तो होवत लइका ल अंगरेजी के रंग म रंगे बर ओकर दाई-ददा ह पूरा ताकत ल लगा दे हे। वइसे भासा सिखना कोई गलत बात नोहे। ए तो अउ बढ़िसा आय। फेर दूसर भासा ल सिखे बर अपन महतारी भासा ल भुला देना कतका खराब आय। आज कोनो अपन लइका ल छत्तीसगढ़ी सिखाय-बताय के कोसिस नई करय। सबे झन ह अपन लइका ल महंगा ले महंगा इंगलिस इसकूल म भरती कराथे। ताहन लइका ह न तो ढंग से छत्तीसगढ़ी सिख पाय न हिंदी अउ अंगरेजी तो बस रटे रूटाय रइथे। ताहन लइका के न घर के न घाट के जइसन हो जथे। अब ओला अंगरेजी नइ आय न हिंदी अउ छत्तीसगढ़ी। ए कतेक जायज हे हमर संस्कृति ल भूला के दूसर के ल अपनाय बर मूड़ी-पूछी एक कर देना। कहू अइसे मत हो जाए छत्तीसगढ़ी भासा मर जही। अब बेरा आ गे हमन ह अभी ले अपन महतारी भासा ल लेके जागरूक हो जावन। हमर अवइया पीढ़ी ल घलो सिखावन अउ गरब ले बोलन छत्तीसगढ़ी भासा ल।
Monday, 20 November 2017
बियारा-बारी के जिमीकांदा
Sunday, 19 November 2017
काश ! मंदिर-मस्जिद छोड़ देश की वर्तमान स्थिति पर होती बहस
Wednesday, 15 November 2017
जाति समाज लोगों को प्रताड़ित करने का साधन
झुमकी तरोई रे भइया
Tuesday, 14 November 2017
नोटबंदी नाग तो जीएसटी अजगर
का साग ए ढेलिया-फोटू रमकेलिया
भाजपा की ओछी मानसिकता
नोटबंदी से परेशानी हजार, लाभ एक भी नहीं
बेहतर शिक्षा नहीं होने से अंधकार में देश
हमारी जिंदगी में तालीम की अहमियत बहुत होती है। शिक्षा से ही हम उचित-अनुचित, अच्छाई-बुराई, यर्थाथ-काल्पनिक
छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया के कदर नही अउ मनावत हे राज उछाह
जबले छत्तीसगढ राज ह बने हे तब ले सरकार ह लगातार राज उछाह मनावत हे। भले किसान मन आत्महत्या करे, लइका मन ह भोकवा राहय, जवान टूरा-टूरी मन बेरोजगार घुमय, रसपताल म मरीज ह इलाज बिना तरस के मर जाय, मजदूर अउ किसान ल ओकर मेहनत के पइसा मत मिलय, इस्कूल कालेज म गुरुजी मत रहाय, भले सरकारी स्कूल अउ कालेज ल बंद करके प्राइवेट स्कूल कालेज के दलाली करे अउ कतेक समस्या ल आेरयाबे। इहा तो सरकार ह छत्तीसगढ़िया मन ल ठग के छत्तीसगढ़ ल बेचे म पूरा ताकत ल लगा देहे। जनता ल भुलवारे बर आनीबानी के जाल ल बिछावत हे। अब राज उछाह ल लेके रमन कका ह पइसा ल पानी कस बोहाही अतका खर्चा म तो छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़िया मन के तसवीर अउ तकदीर दूनो बदल जतीस। ए बखत तो मे ह सुनत हव कि फेर नवा रइपुर म पांच दिन के उछाह मनाही। जेमा बालीवुड के सिंगर सुखबिंदर सिंह अउ केके ह आके दू ठन गाना सुनाही अउ करोड़ों रुपया ल समेट के ले जाही। भले हमर छत्तीसढ़िया कलाकार मन ह टुकुर टुकुर देखत रही।
राज उछाह बर एक महिना पहिली ले तियारी शुरू हो जथे लेकिन धान खरीदी बर काही तियारी नइ होय। तेकर सेती किसान मन ल अपने कमइ के धान ल बेचे बर अउ पइसा बर घलो लाइन म लगे ल परथे। कभू सरवर ह ठप हो जथेे त कभू किसान मन ल धान भरे बर बोरा नइ मिलय। सरकार ह हर बखत चुनाव म किसान मन के धान ल 2100 रुपया म लेबो कही के भुलवारत आवत हे। फेर धान के रेट ह नइ बढ़हीस उही 11
ए बखत एक ठोक अउ बात सुनत हव कि गुजरात के 18 ठोक इसटाल लगही कहीके मतलब छत्तीसगढ़ी संसकिरति ह तो पूरा नंदा गेहे जउन ह बाचे हे वहू ल गुजराती रंग म रंगे के कोसिस होवत हे। अउ छत्तीसगढ़ी भाखा ल लेकेे भासा आयोग बनाय अबड़ साल होगे फेर छत्तीसगढ़ी कोनो मेर लागू नइ होहे। तेकर सेती हमर भाखा अउ माटी के सुगंध ह सिरावत नजर आवत हे। जउन दिन छत्तीसढ़, छत्तीसगढ़िया अउ छत्तीसढ़ी के कदर होही उही दिन हमर छत्तीसगढ़ के नवा बिहान आही।
कलम पर चहुंमुखी हमले
अकबर इलाहाबादी ने कहा था कि 'खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो' मतलब उस दौर में पत्रकारिता की ताकत कमान और तलवार से भी अधिक थी। देश और समाज को बदलने और राह दिखाने में अखबारनविसों की बड़ी भूमिका रहती थी। अब इस ताकत को मिटाने और दबाने के लिए चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अखबार पर बंदिश लगाने वाले काला कानून पिछले दिनों पेश कर मीडिया आैर लोकतंत्र पर थपड़ मारी है। जिसका विरोध की आवाज कहीं भी नहीं सुनाई दे रही है। भाजपा सरकार और भाजपा कार्यकर्ता और उनके चमचे को छोड़ दिजिए, लेकिन देश के युवा भी मौन हैं। क्या हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कलम की ताकत को मरते हुए देखना चाहते हैं। अब राजस्थान में ही नहीं पूरे देश भर में पत्रकारिता और पत्रकारों की स्थित बहुत ही खराब है। मीडिया अब पूंजीपतियों, सरकार, गुंडो फर्जी बाबा और धर्म के धंधा करने वालों के कब्जे में है। लगातार कुछ घटनाएं पत्रकार और पत्रकारिता को चोट पहुंचाई है। बाबा राम रहीम की असलियत को प्रकाशित करने वाले रामचंद्र छत्रपति को उनके घर के सामने हत्या कर दी गई। बंगलौर की निडर पत्रकार गौरी लंकेश को उनके घर घुंसकर गोली मर दी गई। वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर में देखे तो पनामा पेपर का खुलासा करने वाली माल्टा की जर्नलिस्ट डैफने कारूआना को उनकी कार के साथ बम से उड़ा दिया गया। देश और विदेश में पूंजीपतियों द्वारा पत्रकार और पत्रकारिता को खरीदा जा रहा है। चाहे वह धन बल से हो या बाहुबल से। इतनी भयावह स्थिति होने के बाद भी देश के कुछ साहसी पत्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर लिख रहे हैं। जिससे भ्रष्टचार के रस में डुबे लोग और सरकार पूरी तरह से डरे हुए हैं। देश के केंद्र सरकार मीडिया को खरीदने में लगी है, वहीं पूंजीपति द्वारा संचालित मीडिया भी बिकने और सरकार के हाथों में नाचने के लिए व्याकुल है। जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। वैसे तो टीवी और अखबाराें में गांव, ग्रामीण, खेती, किसानी
जेठवउनी : का कोनो मनखे ह लगातार चार महिना ले सुत सकथे
अब मे ह दूसर ढाहर बात ल नइ लमा के 31 अक्टूबर के अवइया जेठउवनी या देवउठनी ल लेके आप मन से थोकन गोठियाहू। लोगन ल कहानी अउ कालपनिक बात म उलझइया मनखे मन कथे कि देवसयनी एकादशी ले देवउठनी एकादसी तक यानी चार महीना भगवान बिष्णु ह सयनकाल के अवसथा म होथे अउ ए समय म कोई सुभ काम ल नइ करे जाय कथे। त भइया हो आपे मन बतावव कि जम्मो तिहार पूजापाठ अउ धारमिक काम बुता ह इही बेरा म होथे। जइसे गनेस पूजा, नवरातरी म दुरगा पूजा, देवारी म लछनी पूजा अउ बीच बीच म काय काय पूजा नइ होय। तब तो फेर ये पूजाउजा मन ह असुभ काम आय काबर पंडित मन ह कइथे कि ए समय म देवी-देवता मन सुते रइथे। अव इकर सुते के समय म कोनो परकार के डिस्टर्ब नइ होना चाही। तब तो हमन ह बड़े जान पापी हरन काबर गनेस, दुरगा अउ लछनी पूजा म मड़माड़े आवाज म लाउंड स्पीकर बजा-बजा के भगवान ल अउ आस पास के मनखे ल जगाथन अउ परेसान करथन। बड़े-बड़े फटाका फोड़ के सुते देवधामी अउ इस्कूल म पढ़त लइका, रसपताल म परे मरिज ल झझकाथन चमकाथन। अउ अतको नही गनेस अउ दुरगा ल पानी म बोर बोर के उबुक चुबुक डूबो देथन जेकर ले ओ भगवान ल कतेक तकलीफ होवत होही अउ धरती के जीयत परानी, जीव अउ जानवर मन ल घलो पीए के पानी मिलत रिहिस उहू ह परदूसित होगे। जतका नदिया, नरवा, तरिया, डबरी रिहिस ओला हमन भगवान के नाम म पाट डरेन। का हमन अइसन करके देवी-देवता के नींद म अउ आस पास के मनखे अउ जीव जानवर के जिनगी म दखल नइ देवत हन।
लोकतंत्र का गला घोटने की हो रही साजिश
मोहब्बत की निशानी ताजमहल पर नफरत की निगाहें
लक्ष्मी पूजा से धन मिलता है तो देश गरीब क्यों?
हमारा भारत देश में ज्यादातर समय पूजा-पाठ में व्यतित होता है। कहा जाता है कि लक्ष्मी की पूजा करने से धन-संपत्ति की बारिश होती है। इसलिए दीपावली त्योहार में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, शहरी-ग्रामीण और सभी वर्ग के लोग तल्लीन होकर मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं, लेकिन अभी तक भारत देश को गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं से मुक्ति नहीं पाई। बल्कि यहां की जनता गुलाम मानसिकता के शिकार हो गई। अब सोचने की बात यह है कि समाज अपनी अगली पीढ़ी को किस ओर ढंकेल रहा है। लोगों को मेहनत में कम और पूजा-पाठ में ज्यादा विश्वास होने लगा है, जिससे आत्मविश्वास कमजाेर पड़ता जा रहा है। अब आधुनिक युग में शिक्षित लोग भी विज्ञान पर कम और चमात्कार पर ज्यादा विश्वास करने लगा है। अगर पूजा-पाठ से मनोकामना पूरी होती तो यहां कोई इंसान असंतुष्ट नहीं होते। इतनी बड़ी आबादी सुबह से शाम और देर रात तक लाउंड स्पीकर बजा-बजा कर भगवान को याद करते हैं, लेकिन उनकी समस्याएं जस के तस बनी रहती है। हमें भेड़ धसान चाल चलने से पहले साेचना होगा कि हम और हमारा समाज कहा जा रहे हैं ? क्या लक्ष्मी पूजा करने से रुपयों की बारिश होती है ? क्या दुर्गा पूजा करने से शक्ति मिलती है? क्या सरस्वती पूजा रकने से ज्ञान मिलता है ? तो भारत देश को विश्व में सबसे धनवान, सर्वशक्तिमान और बहुत ही ज्ञानवान होना चाहिए। इस वक्त मुझे भगत सिंह की कही गई बात याद आती है, 'अपने बच्चों को यह कहना कि तुम छनभंगुर और कमजोर हो, जो भी कर्ता-धर्ता ईश्वर है, इससे बच्चों की आत्मशक्ति खत्म हो जाती है।' यह बात सत प्रतिशत सहीं है
किसानों की चिंता या चुनाव की
त्याेहारों पर पर्यावरण व खुद से खिलवाड़ तो नहीं ?
Sunday, 12 March 2017
होलिका दहन या पर्यावरण दोहन
देश भर में परम्परा के नाम पर पर्यावण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। जागरूक नागरिक भी होलिका दहन के लिए जंगल और अन्य जगहों से लकड़ी इकठ्ठा कर जलाते हैं। आज धीरे-धीरे जंगल का नाश होता जा रहा है। वहीँ कई प्रकार के जीव-जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं। पेड़-पौधे और हरियाली का नामो निशान नहीँ है। फिर भी हम क्यों पर्यावरण और खुद का नुकसान करने के लिए अड़े हुए है। गांव हो या शहर सभी गली चौक चौराहों पर होलिका दहन करके हम खुशियां मनाते हैं। जिसके लिए कई पेड़ों की बलि देनी पड़ती है। वही लकड़ी जलने से वायु भी दूषित होती है। जिससे फेफड़ो से सम्बंधित कई बीमारी का खतरा होता है। वही जली हुई राख तालाब और नदी में जाकर पानी को भी खराब करती है।
एक बात और समझ नहीँ आती कि हम कुछ दिन पहले 8 मार्च को महिला दिवस मना कर महिलाओं का सम्मान की बात करते है। लेकिन होलिका (महिला) को जला कर हम ख़ुशी मनाते हैं। ये कैसा समाज है ? इससे आने वाली पीढ़ी को हम महिलाओं के प्रति नफरत का संदेश देते हैं। हमे इस पुरानी रूढ़ि-परम्परा को खत्म कर पर्यावरण और समाज को बचाना होगा। क्यों न हम अब होलिका दहन बन्द करके होलिका चमन के नाम से पेड़ लगाए और महिलाओं के लिए प्रेम का संदेश दे कर हरियाली फैलाए।
Tuesday, 7 March 2017
आवाज
सभी जगह हो रहे हैं महिलाओं पर अत्याचार
कही भी सुरक्षित नहीँ
स्कूल, कालेज, गली, मोहल्ले, बाजार
कही दहेज की मांग
कही शोषण और बलात्कार
अब आ रही है आवाज
मांग रही है महिलाएं अपना अधिकार
महिलाओं ने खाई है कसम
पूरा हक लेकर ही लेगा दम
ये लड़ेगी नहीं रूकेगा कदम
बुराई का दुश्मन, अच्छाई का हमदम
अब आ रही है आवाज
मांग रही है महिलाएं अपना अधिकार।
Friday, 3 March 2017
आजादी
हमको चाहिए आजादी
देश के दलालों से
मजदूर-किसान के
खून चूसने वालों से
अशांति और दंगा से
जाति-धर्म के पंगा से
भ्रष्ट सरकार से
महंगाई की मार से
भक्षक हवलदारों से
देश के गद्दारों से
हमको चाहिए आजादी
गरीबों की भूख से
अशिक्षा के दुःख से
युवाओं की बेरोजगारी से
नफरत की बमबारी से
हमको चाहिए आजादी।
स्कूल बंद, दारू दुकान चालू
सरकार को शर्म आनी चाहिए दो साल पहले 3000 स्कूलों को युक्तियुक्तकरण के तहत बन्द कर दिए। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में जन आक्रोश देखने को मिला लेकिन सरकार ने इस पर कोई सुध नहीँ ली। अब शराबबन्दी की मांग प्रदेश भर में उठ रही है लेकिन सरकार 700 शराब दुकान को बंद करने के लिए तैयार नहीँ है।
अब राज्य में रमन ब्रांड शराब बिकेगी। इस बात को लेकर रमन और उनके मंत्री अपने आप को गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं। जबकि जनता इस बात को लेकर शर्मसार है। लोग चिंतित है कि 'धान के कटोरा' कही 'दारू के बोतल' न बन जाए। सरकार जनता की मौत से राजस्व कमाना चाहती है। इस राजस्व का मोह छोड़ने के लिए तैयार ही नहीँ है। मुख्यमंत्री लोगों को बैकुफ बनाने के लिए बार-बार कह रहे हैं कि सरकार शराबबन्दी की ओर बढ़ रही है। तो मैं पूछता हूं क्या शराब बिकना बन्द हुई ? क्या शराब दुकान बंद हुई ? और न ही शराब की दुकान में कटौती हुई है राजमार्ग की दुकान को आबादी क्षेत्र में लगाने के लिए और सरकार खुद शराब बेचने के लिए अड़ी है। सरकार कह रही है उचित समय में शराबबन्दी करेंगे तो क्या जनता मौत के मुँह में समा जायेगी तब उचित समय आएगा। जनता को मारकर विकास की बात करना शोभा नहीँ देती। आज सभी पार्टी जनता की भलाई छोड़ कर अपनी राजनीति की रोटी सेकने में लगी हुई है, एक-दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालने में पूरी ताकत झोंक दी है। अगर यही ताकत जमीनी स्तर में काम करने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी और अन्य मूलभूत सुविधा के लिए लगाते तो निश्चित ही छत्तीसगढ़ की तस्वीर बदल जाती। गांव में एक अच्छा नियम है जो शराब बेचता है, तो उसे ग्रामीण बहिष्कृत कर गांव से बाहर निकाल देते हैं। इसी प्रकार अब जनता को सोचना है कि जो सरकार पुरे छत्तीसगढ़ में दारू बेच रही है उसको क्या सजा देनी है ?
Sunday, 19 February 2017
लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज : ममता
लोकगीत के बारे में जानने के लिए छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला लोकगायिका पद्मश्री ममता चन्द्राकर से बातचीत की गई। वे छत्तीसगढ़ की पहली हस्ती हैं जिन्हें लोकगायन के क्षेत्र में पद्मश्री सम्मान मिला। वर्तमान में ममता चन्द्राकर आकाशवाणी रायपुर में निदेशक के पद पर पदस्थ हैं। वे चार दशक से ज्यादा समय से छत्तीसगढ़ी लोकगीत गा रही हैं। वे लोकगीत के लिए मशहूर हैं। जब भी सुआ, गौउरा-गउरी, बिहाव, करमा, और ददरिया कही बजता है तो उसमें ममता चन्द्राकर के गीत जरूर सुनाई पड़ते हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत -
- लोकगीत आप किस गीत को मानते हैं ?
पारम्परिक गीत जो लिखित न हो, वहीँ लोकगीत है। ये गीत जन-जन में व्याप्त होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले होते हैं। यह ज्यादातर मौखिक होते हैं, लिपिबद्ध नहीँ होते हालांकि अब लिपिबद्ध करने लगे हैं।
- लोकगीतों की उतपत्ति के विषय में अपने विचार बताइए ?
लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज है। यह गीत जब लोक या समूह में व्याप्त हो जाए और परम्परागत चलते रहे। लोकगीत की उत्पत्ति जनसमूह में गुनगुनाया जाने वाले गीत ही लोकगीत का रूप धारण कर लेते हैं।
- लोकगीतों से सामाजिक जीवन कितना प्रभावित हुआ है ?
लोकगीत हमेशा से लोगों के जीवन में खुशियां और सकारात्मक विचार पहुंचाने में सक्षम रहे हैं। लोकगीत के माध्यम से लोग जागरूक भी हुए हैं। इस प्रकार आज भी इसे संचार के प्रभावी और सशक्त माध्यम मान सकते हैं।
- क्या लोकगीतों में बदलाव आते हैं ?
हां, बिलकुल, लोकगीत समूह के गीत होते हैं और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले गीत है। जब समूह की भाषा या बोली और जीवन शैली में परिवर्तन आते हैं, तो लोकगीत में बदलाव होना स्वभाविक है।
- लोकगीतों को बचाए रखने के लिए क्या करना चाहिए ?
लोकगीतों के संग्रहन करने की आवश्यकता है। लोकगीतों को स्कूली शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में शोध कार्य से भी इसके बारे में समझा और जाना जा सकता है।
Thursday, 16 February 2017
दारू ह लिही परान
ये भइया मोर बात ल तै मान
दारू ह लिही एक दिन तोर परान
डउकी-लइका मरत हे भूख म
सुते हस गली म, घर के कईसन सियान
कुकुर सुंघत अउ मुँहू म मूतत हे
सूरा बरोबर सुते हस, नई हे तोला धियान
कइसे घर-बार चलही
कइसे नोनी-बाबू ह पढ़ी
कइसे जिनगी सम्हरही नइहे तोला ग्यान
घर के जम्मो खेत ल बेचेस
बेच डरेस महतारी के जेवर-गहना ल
ददा रोज दिन बरजत हे
फेर नई मानस ओकर कहना ल
अतका सुघ्घर जांगर हे
बुता-काम करे बर काबर पड़त हे जियान
अब आज ले किरिया खाले संगवारी
नई पियन कभू दारू ल
तभे होही तोर नवा बिहान।
लोकगीत निरंतर बहने वाली नदी के समान : लक्ष्मण मस्तुरिया
- लोकगीत की शुरुआत बहुत पहले से हुई है, जब समाज बना तभी से लोकगीत बना। तुलसी के दोहे से पहले भी लोकगीत थे। उस समय तुलसी दास ने "बन निकल चले दोनों भाई" गीत को लोकगीत कहा है। फिर इसी प्रकार लोग तुलसी और कबीर के गीतों और पदों को लोकगीत मानने लगे। इसके बाद जो संस्कार के गीत जैसे विवाह, सोहर और अन्य गीतों को लोकगीत की श्रेणी में रखे।
- जो जनसमूह के साधारण और सरल गीत हैं, वह लोकगीत है। इसमें भाषा और व्याकरण जैसी बंदिशे नहीँ होती। लोकभाषा से ही लोकगीत बनता है। जो गीत लोगों में व्याप्त हो और अधिक प्रसिद्धि पा लेता है वही लोकगीत है। जब कोई मनोरंजन के साधन नहीँ होते थे, तब समुदाय में उत्साह और ख़ुशी के लिए गाना गाए जाते थे। इस प्रकार गीत समुदाय में व्याप्त हो जाते थे। वैसे तो लोकगीत बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी है।
- मैं अपने गीतों को कैसे लोकगीत कह सकता हूँ। यह तो लोक या समुदाय तय करता है। मैंने तो बस देवार डेरा के जो गीत थे उसको सुधार कर सार्थक और प्रभावी बनाया है। अगर लोग मेरे गीतों को लोकगीत मानते है, तो लोकगीत है क्योंकि लोकगीत लोगों के ऊपर निर्भर करता है। जब समुदाय के द्वारा कोई गीतों को स्वीकार लेते है वही लोकगीत है।
- पहले देवार डेरा के गीतों में भाषा और अन्य कई कमियां थी। लोगों को समझ नही आता था। जैसे 'दौना म गोंदा केजुआ मोर बारी म आबे काल रे' को सुधार कर 'चौरा म गोंदा रसिया मोर बारी म' किया। इसी प्रकार से 'चन्दर छबीला रे बघली ल' सुधार कर 'मंगनी म रे मया नई मिलय रे मंगनी म' किया।
- वैसे तो 1960 से गीत और कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। वही 1971 से पूर्ण रूप से इस कार्य में लगा। उस समय कृष्ण रंजन, पवन दीवान और मैं शिक्षक थे। फिर मैं शिक्षक की नौकरी छोड़कर 'चंदैनी गोंदा' मंच से जुड़ गया। इसके बाद मैंने देवार डेरा के गीतों को सुधारने का भी कार्य किया। इसके अलावा कारी लोकनाट्य में भी बहुत से गीतों का सृजन किया। उस समय सभी छत्तसगढ़ी के लिए निस्वार्थ कार्य करते थे।
- वैसे तो मैं गाना बहुत कम गाया हूं। मोर संग चलव रे, बखरी के तुमा नार, मे छत्तीसगढ़िया अव, चल गा किसान असाढ़ आगे, मन काबर आज तोर उदास हे और कुछेक गाना। वही लगभग 300 से ज्यादा गीतों की रचना हुई है। मेरे गीतों को कई फिल्मों में शामिल किए और कई गायकों ने गाए।
- बदलाव आया है। पहले के गीतों में सन्देश हुआ करते थे, लेकिन आजकल के गीतों में सन्देश तो छोड़ो कुछ समझ नहीँ आता। आजकल व्यवसायिक ज्यादा हो गया है। गीत के नाम से कुछ भी परोसा जा रहा है।