Sunday, 24 December 2017

मोबाइल के चक्कर


काली संझा जुआर मे ह डगनिया बाजार होतव मोर घर जावत रहेंव। तब रद्दा म पीछू डाहर ले एक ठन फटफटी ह हकन के मोर फटफटी ल ठोक दिस। तब मोर दिमाग के पारा ह चढ़गे। अउ जोर से गारी देंव- कोन आय रे अंधरामन ह सोझे गाड़ी ल ठोकत हे। आंखी नइ दिखत होही त इलाज करा लय। तब पीछू डाहर ल देखथंव त एक झन जवान टूरी ह एक हाथ म बड़े मोबाइल धरे गोठियावत रहाय अउ दूसर हाथ म फटफटी के हेंडिल ल धरे रहाय। तब मोर गारी ल सुनके कहिथे- सारी सर गलती हो गई। तब मे ह ओला पियार ले समझावत कहेंव- देख वो तोर सारी कहे ले मोर गाड़ी के टूटे एंटीगेटर लाइट ह ठिक नइ हो जाए। मोबाइल म गोठियाना हे त कोनो मेर बइठ ले अउ ससन भर गोठिया। फेर बड़े जान मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल मड़माड़े चलावत हस। तहू जाबे अउ जजमानो जाही। तब ओ छोकरी ह थोकन गुस्सा म कहिथे- जरा सी बात के लिए भासन सुना रहे हो। मैं अपने मम्मी-पापा की बात नहीं सुनती। गलती हो गई तो कह रही हूं। तब अतके बेरा म सड़क म चाय दुकान लगइया कचरू कका ह आगे। अउ ओ टूरी के गोठ ल सुन के कचरू कका ह कथे- सही तो काहत हे नाेनी महूं ह तो ठेला ले बइठे-बइठे देखत हंव। कइसे मोबाइल म गोठियावत फटफटी ल अलकरहा चलावत हस। थोकन बाचगे नाली म फेका जतेस अउ दांत ल निपोर देतेस। अउ ए बाबू ह बने ल तो काहत हे एक तो फटफटी चला नहीं तो नहीं तो मोबाइल म गोठिया। कचरू कका के डांट ल सुन के टूरी ह अपन गाड़ी ल चालू करके कले चूप फूर होगे। कचरू कका ह मोला कइथे- आजकल बेटा जउन मेर देखबे तउन मेर कतको भीड़ म घलो टूरा-टूरी मन बड़े-बड़े मोबाइल ल एक हाथ म धरके अउ दूसर हाथ म एक्सीलेटर अइठे गोठियावत मड़माड़े फटफटी चलावत रइथे। कोनो ह कान म इयरफोन ल खुसेर के गाना सुनत नही ते गोठियावत अंधाधून फटफटी ल चलाथे। अइसन फटफटी चलइ ह बने नोहे बेटा कभू बड़े जान अलहन हो जही रे। कचरू कका के गोठ ह सही मे गुने के आय। सही म आज मोबाइल ह जीव के काल होगे हे। मनखे ह थोकन लापरवाही करके बड़े जान दुरघटना ल नेवता देवत हे। अउ आजकल कंपनीमन ह फोकट म बात करे वाला आफर देवत हे तेकर सेती घलो मनखे दिन-रात काही काम बुता रहाय मोबाइल ल थोरकुन नइ छोड़न काहत हे। त कोनो मनखे ह रातभर जागके मोबाइल म चैटिंग करके अपन स्वास्थ ल बिगाड़त हे। त लइका मन ह मोबाइल म गेम अउ इंटरनेट म अपन पढ़ई ल बरबाद करत हे। सियान मन ह कथे ते ह सही बात आय कोनो जिनिस के उपयोग जरूरत के हिसाब ले करना चाही। अति ह दुरगति आय।

Tuesday, 5 December 2017

आडंबर के मिटइया गुरु घासीदास


मंदिरवा म का करे ल जइबो, अपन घट के देव ल मनइबो, पथरा के देवता ह हालत ए न डोलत, अपन मन ल काबर भरमइबो... ए बात ल घासीदास जी ह तब कहिस हे जब ओ ह जगन्नाथ पुरी के यातरा म जावत रहिस ताहन आधा बीच म सारंगगढ़, रायगढ़ ले लहुट के आगे। अउ कहिस कि मंदर म का करे बर जाबो। जेन ह अपन खुद के रकछा नइ कर सकय वो ह काय मनखे के सुनही। हमन कतेक बड़ मूरख आन पखरा के पूजा करथन जे ह न बोल सकय, न चल सकय, न खा सकय, न पी सकय अउ न उठ-बइठ सकय। तेकर तीर जाके हमन हमर समय अउ धन के नास करत हन। ए परकार के अंधबिसवास, रूढ़ीवाद अउ परंपरावाद के खिलाफ जोरदार बिरोध करिस। घासीदास जी ह मूरति पूजा कभू मत करव कहिन। अउ लोगन मन ल अपन मनोबल ल बढ़ाय के अपील करिस। एकर बर कहिस कि अपन घट के देव ल मनइबो। मन ले बढ़ के देवता कुछू नोहे। हमन ह पखरा के पूजा करथन। ए ह हमर मानसिक बीमारी आय। मन ल पूजा पाठ अउ पाखंड ले दूर रखके करम अउ मेहनत म बिसवास करव।
घासीदासजी ह समानता के बात घलो कहे हे। वोकर कहना हे कि मनखे-मनखे एक समान। अरे भइया सबे मनखे ह बराबर आय जाति-धरम के भेद ल बना के काबर लड़त-मरत हन। घासीदास ह ए सब एकर सेती कहिस कि ओ ह खुद अइसन पीड़ा ल भोग चुके रहिस। काबर घासीदास जी के जनम 18 दिसंबर 1756 म रइपुर जिला के गिरोधपुरी गांव म एक गरीब किसान परिवार म होय रहिस। ओ समय म गरीब कमजोरहा रहाय ओकर उपर बड़ सोसन अउ अत्याचार होय। अपन आप ल उच जात कहइया पाखंडी मन ह कमजोरहा मनखे मन ल सिकछा अउ सारवजनिक जगह ले दूरीहा रखके अपमानित करे बर नीच जात कहाय। ए पीरा ल देखके घासीदास जी ह सतनामी पंथ बनइस। दबे कुचले मनखे ल सेेेकेलिस। अउ कहिस कि ए सब अपन आप ल उच जाति समझइया जात-धरम के धंधा करइया मन के चाल आय। जउन ह आडंबर म फंसा के सोसन अउ अत्याचार करत हे। तेकर सेती तुमन ह पोथी-पुरान अउ पखना पूजा म मत अरझव। अउ सत ल जानव-मानव। जउन दिखत हाबय ओकर उपर भरोसा करव। कालपनिक बात के खुल के बिरोध करव। जउन ह यथारत ल मानही उही ह सतनामी कहलाही। ए परकार के दलित सोसित वर्ग ल एकट्ठा करके समाज म बड़ बदलाव करिस। तब जाके सोसित-पीड़ित मन ल सम्मान मिल पइस। पिछड़ा वर्ग के मनखे बर घासीदास जी ह मसीहा आय। जउन ह वैज्ञानिक सोच अउ प्रगतिसील बिचार ल फैला के आंडबर के पेड़ म टंगिया चलइस। घासीदास जी ह अंधबिसवास अउ रूढ़ीवाद के कुलूप अंधियारी म गियान के परकास करके नवा बिहान लइस। 

Sunday, 3 December 2017

शिक्षाकर्मी, शिक्षा और स्कूल को मिटाना चाहती है सरकार

शिक्षाकर्मी अपनी मांगों को लेकर अब आर-पार की लड़ाई में उतर आए हैं। उनके आंदोलन को रोकने के लिए सरकार पूरी तरह से बर्बरता और दमनात्मक कार्रवाई कर रही है। इसके बाद भी शिक्षाकर्मी संविलियन, सातवें वेतनमान, शासकीकरण समेत 9 सूत्रीय मांगों को लेकर पूरे परिवार के साथ डटे हुए हैं। भाजपा सरकार शिक्षाकर्मियों के साथ अब अंग्रेस सरकार से भी घटिया और अमानवीय व्यवहार कर रही है। राजधानी के धरना स्थल और ईदगाह भाठा पर धारा 144 लगाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी है। इस प्रकार संविधान और कानून की धज्जियां उड़ा रही है। लगातार पुलिस शिक्षाकर्मियों को अपराधाी की भांति पकड़-पकड़ कर जेल में डाल रही है। तो शिक्षाकर्मियों के साथ आए उनके बच्चे को पकड़ कर घसीट रही है। इस प्रकार अमानवीय कार्रवाई सरकार की असली चेहरा को सामने लाती है।
शिक्षाकर्मियों का आंदोलन को खत्म करने के लिए सरकार पुलिस और मिल्ट्री की ताकत लगा दी है। फिर भी शिक्षाकर्मी पूरे मनोबल के साथ आंदोलनरत है। पिछले दिनों कई शिक्षाकर्मियों को बर्खास्तगी का आदेश देना सरकार की बहुत तानाशाही कार्रवाई थी। साथ ही शिक्षाकर्मी नेताओं को उनके घर से उठा ले जाना भी लोकतंत्र की हत्या है। प्रदेश के मुख्या डा. रमन सिंह बार-बार शिक्षाकर्मियों को लताड़ते हुए उनकी एक भी मांगे पूरी नहीं होने की बात कह रहे है। वह शिक्षाकर्मी, शिक्षा और स्कूल के प्रति उदासिनता को दिखाती है।
शिक्षाकर्मी की मांगों पर गौर करे तो सभी मांगे जायज है। क्या इतनी महंगाई में भी कम वेतन और ज्यादा काम कोई करेगा। आज पूरी तरह से शिक्षाकर्मियों का शोषण हो रहा है। उन्हें शिक्षाकर्मी भले कहा जाता है, लेकिन न जाने वह क्या-क्या कर्मी है। कभी गांव में मतदाता सूची का काम दे दिया जाता है, तो कभी शौचालय अन्य सर्वे का, कभी चुनाव ड्युटी और शासन-प्रशासन के कामों में भीड़ा दिया जाता है। तो शिक्षाकर्मी स्वतंत्र होकर बच्चों को पढ़ाएगा क्या। वही बात शासकीकरण की है अभी तक लगातार 15 सालों से शिक्षकों की नियुक्ति कही भी नहीं हो रही है। जिस प्रकार कम पैसे और ठेकेदारी में शिक्षा का काम हो रहा है, यह शिक्षा के प्रति सरकार की उदासिनता है।
आज प्रदेश में शिक्षा की स्थिति बद से बददतर होती जा रही है, फिर भी भाजपा सरकार वाहवाही बटोरने में पीछे नहीं हट रही है। सरकार आज पूरी तरह से सरकारी स्कूलों को बंद कर शिक्षा को निजी स्कूलों के हाथों में बेचने का काम कर रही है। मंत्री, विधायक और सांसद अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते इसलिए उन्हें आम जनता के बच्चों और शिक्षाकर्मियों की कोई चिंता नहीं है। क्योंकि उनके बच्चों की पढ़ाई प्रभावित नहीं हो रही है। क्यों न सरकारी कर्मचारी, अधिकारी, मंत्री, विधायक और सांसद के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य  कर दिया जाए और निजी स्कूलाें को पूरी तरह बंद किया जाए। स्कूलों और यहां कार्यरत शिक्षक-शिक्षाकर्मी की स्थिति में सुधार किया जाए। जब तक जनता को एक समान शिक्षा नहीं मिलेगी तब तक शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं होगी। सरकार को चाहिए कि मंत्री, विधायक और सांसद की मोटी सैलरी में कटौती कर वह राशि शिक्षा, शिक्षक और स्कूल में लगानी चाहिए। साथ ही मंत्री, विधायक और सांसद को भारी-भरकम पेंशन न देकर देश और प्रदेश के विकास कार्यों में यह पैसा खर्च करना चाहिए। देश में नेताआें की कमी नहीं है, इसके लिए बहुत भारी राशि खर्च करना कितना जायज है। शिक्षाकर्मियों का आंदोलन तब तक नहीं रूकना चाहिए जब तक उन्हें सम्मानजनक वेतन और सम्मानजनक कार्य न मिल जाए। वहीं शिक्षाकर्मियों की भी जिम्मेदारी हो कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही भर्ती कराए। साथ ही सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को पूरी इम्मानदारी के साथ शिक्षा दें। जिससे देश के उज्जवल भविष्य को गढ़ा जा सके।

Wednesday, 29 November 2017

टोनही आैर बैगा के खेल में जा रही जानें



आज अंधविश्वास के चलते लोग अपने ही घरवाले का खून कर रहे हैं। वही कई लोग डर-डर के जी रहे हैं। गांव हो या शहर बैगा और टोनही के खेल में अंधविश्वासी लोग मर और मार रहे हैं। हाल ही में पलारी के अमेरा गांव के एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है, जिसमें एक अंधविश्वासी पिता ने बैगा के कहने पर भूत भगाने के लिए अपने ही 12 वर्षीय बेटे की बलि चढ़ा दी। वहीं पिछले महीनों रायपुर के पुरानी बस्ती में एक युवक ने अपनी ही मां को टोनही होने के संदेह में तावा से पीट-पीट कर हत्या कर दी।
यह घटनाएं हमारे समाज काे आइना दिखाती है कि हम आज कितनों भी आधुनिक होने का ढोंग करे फिर भी बहुत ज्यादा आडंबर, अंधविश्वास, अवैज्ञानिक सोच और रूढ़ीवादी की चादर ओढ़े हुए हैं। देश में जब तक अंधविश्वास और अंधविश्वास फैलाने वाले बैगा, ओझा और ढाेंगी बाबाओं पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई नहीं होगी तब तक यह समस्याएं जस के तस बनी रहेगी। वही लोगों में जब तक वैज्ञानिक सोच नहीं होगी तब तक बदलाव की कोई कल्पणा नहीं की जा सकती।
आज तो स्थिति ऐसी है कि आदमी अपनी मोटरसाइकिल, कार, घर और अन्य चीजों को भूत और टोनही की नजर लगने से बचाने के लिए कई तरह के उपाय करते दिखते हैं। गांव हो या शहर अंधविश्वास में जकड़े लोग मोटरसाइकिल में ताबिज कंडा बांधे रहते हैं। वही कार में नारियल या नींबू-मिर्च लगा कर घूमते हैं। तो कई अंधविश्वासी लोग अपने घर में नारियल और नींबू-मिर्च और भयानक देवी-देवताओं की तस्वीर लगाकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। इसके चलते सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं होती है। लोग बुरी नजर से अपनी दुकान को बचाने के लिए नींबू-मिर्च लगाते हैं और सड़क पर फेक देते हैं। जिससे भयभीत और कमजोर लोग अपनी गाड़ी को इस नींबू-मिर्च से बचाने के चक्कर में गिर कर हाथ-पैर तोड़ डालते हैं। तो कभी बड़ी घटना भी हो जाती है। वही चौक-चौराहों में मंदिर होने से लोग गाड़ी का हैंडिल छोड़ कर भगवान को नमस्ते करने के चक्कर में ध्यान भटकने से दुर्घटना हो जाती है।
इस देश में अंधविश्वास की बीमारी से ग्रसित लोग भले जान दे दें या अपने ही घरवालों को मौत के घाट उतार दे, लेकिन इस बीमारी से लड़ने के लिए कोई कोशिश नहीं करेगा। हमें चाहिए कि इस बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को उनके मनोबल से परिचित कराए और काल्पनिक भूत-प्रेत, देवी-देवताओं, ताबीज-कंडे, बैगा-बाबा और अंधविश्वास के ठेकेदारों से दूर रखे। तभी परिर्वतन संभव है। 

Tuesday, 28 November 2017

आवव गरब ले बोलव छत्तीसगढ़ी


छत्तीसगढ़ ल भले अलग राज बने 17 साल होगे अउ छत्तीसगढ़ी भासा ल लेके भले अलग आयोग बनगे फेर अभी ले छत्तीसगढ़ी कोनो मेरा लागू नई होहे। अउ एकर कारन हमी मन हरन। काबर छत्तीसगढ़ म रही के हमन ह छत्तीसगढ़ी बोले बर लजाथन-सरमाथन त दूसर भासा के बोलइया मन ले हमन कइसे छत्तीसगढ़ी के आस लगा सकथन। सोचे के बात तो ए हरे कि आज छत्तीसगढ़िया मन ह मानसिकता बना ले हे कि छत्तीसगढ़ी बोलइया मन ह गवांर होथे। अउ एकर बर एक पैमाना घलो तय कर डारे हे कि जउन ह अंगरेजी बोलथे हो ह मंडल, हिंदी बोलइया गरीब अउ छत्तीसगढ़ी बोलइया भिखारी। अइसन मानसिकता ह महतारी भासा बर खतरनाक आय। कही अइसे मत हो जाए कि छत्तीसगढ़ी भासा ह नंदा जही। अब बेरा आगे हे ए भासा ल जतन के रखे के तभे हमर संस्कृति अउ पहचान ह बचे रही। 
आज के नेता अउ अभिनेता मन ह अपन काम साधे बर दू-चार लाइन छत्तीसगढ़ी बोल देथे। कोनो मंत्री अउ विधायक ह छत्तीसगढ़िया मन कर दू लाइन छत्तीसगढ़ी बोल के अइसे दिखाथे कि जानो-मानो ओ ह छत्तीसगढ़ी भासा के बोलइया आय। ओकर आफिस म मिले बर कोनो मनखे ह चल देथे त हिंदी अइसन बोलही अउ रोब दिखाही जानोमानो उही ह हुसीयार आय बाकी सब भोकवा। छालीवुड के बात करे जाय तो निर्माता-निर्देशक अउ हीरो-हिरोइन ह घलाे अपन असल जिनगी म छत्तीसगढ़ी म नइ गोठियाय। भले पूरा ढाई घंटा के फिलिम म बनावटी छत्तीसगढ़ी बोलही। सुटिंग के बेरा तो अइसे हिंदी अउ इंगलिस बोलथे कि छत्तीसगढ़ी के सुध घलो नइ रहाय। अब अइसन मनखे ह कोनो फिलिम बनाही त का छत्तीसगढ़ के कला-संस्कृति ह दिख पाही। अउ का अइसन फिलिम ह चल पाही।
छत्तीसगढ़ी भासा के साथ अन्याय करे म छत्तीसगढ़िया मन के घलो हाथ हाबय। अब तो गांव के मनखे सहर म का आ जथे पूरा अपन महतारी भासा ल भूला जथे। अउ कोनो गांव देहात के संगवारी मिलथे ओकरो ले छत्तीसगढ़ी म नइ गोठियाय। इहा के मनखे ह जब तक ले छत्तीसगढ़ी बोले म गरब नइ करही अउ अधिकार के साथ नह बोलही तब तक कतको छत्तीसगढ़ी ल लेके संगठन बनही अउ आयोग बनही फेर पोठलगहा काम नइ होवय। आज तो होवत लइका ल अंगरेजी के रंग म रंगे बर ओकर दाई-ददा ह पूरा ताकत ल लगा दे हे। वइसे भासा सिखना कोई गलत बात नोहे। ए तो अउ बढ़िसा आय। फेर दूसर भासा ल सिखे बर अपन महतारी भासा ल भुला देना कतका खराब आय। आज कोनो अपन लइका ल छत्तीसगढ़ी सिखाय-बताय के कोसिस नई करय। सबे झन ह अपन लइका ल महंगा ले महंगा इंगलिस इसकूल म भरती कराथे। ताहन लइका ह न तो ढंग से छत्तीसगढ़ी सिख पाय न हिंदी अउ अंगरेजी तो बस रटे रूटाय रइथे। ताहन लइका के न घर के न घाट के जइसन हो जथे। अब ओला अंगरेजी नइ आय न हिंदी अउ छत्तीसगढ़ी। ए कतेक जायज हे हमर संस्कृति ल भूला के दूसर के ल अपनाय बर मूड़ी-पूछी एक कर देना। कहू अइसे मत हो जाए छत्तीसगढ़ी भासा मर जही। अब बेरा आ गे हमन ह अभी ले अपन महतारी भासा ल लेके जागरूक हो जावन। हमर अवइया पीढ़ी ल घलो सिखावन अउ गरब ले बोलन छत्तीसगढ़ी भासा ल।

Monday, 20 November 2017

बियारा-बारी के जिमीकांदा

जब जिमीकांदा साग के नाम ल कोनो सुनथे त ओकर मुंहू ले लार टपकना सवभाविक बात आय। ए जिमीकांदा ह उपर ले माटी असन दिखथे अउ चाने म थोकन ललमुहा होथे। ए ह गांव-गांव म पाए जाथे। कोनो ह अपन बारी, म त कोनाे ह बियारा म अउ जेकर घर जगा नई हे ओमन ह अंगना म जिमीकांदा ल लगाथे। वइसे तो जिमीकांदा ल छत्तीसगढ़ी साग के राजा कहे जाथे। एला अम्मट म रांध ले, चाहे मसलहा म अबड़ मिठाथे। गांव के सियान मन ह जिमीकांदा साग ल बड़ गुनकारी मानथे। गांव के डोकरी-डोकरा मन ह बताथे कि जिमीकांदा साग खाय ले केंसर असन बड़का बीमारी ले घलो बचे जा सकत हे। फेर एक ठन गोठ घलो सुने ल मिलथे ए साग ल खाज-खजरी वाले मनखे ल नइ खाना चाही। बाकि सबे मनखे ह जिमीकांदा साग के सुआद ल चाट-चाट के ले सकत हे।
घर के माईलोगिन मन ह बताथे कि ए साग ल बनाय बर पहली जिमीकांदा ल बियारा ले खन के ले आना चाही। तेकर बाद बने तरिया म खलखल ले धोके सुखो दे। सुखाय के बाद बने गरम पानी म उसन के साग म रांधे के लइक चानी-चानी पउले बर लागथे। ताहन चनाय जिमीकांदा ल पर्रा म रख के छानी उपर बढ़िया घाम म सुखाय जाथे। कड़कड़ ले सुखाय के बाद एेला साग रांधे जाथे। साग रांधे बर पहली तेल म मेथी-सरसो के फोरन देके मही म बनाय ल पड़थे। ताहन मत पूछ रे भइया एकर सुवाद ल। रांधत ले पारा-परोस के मन घलो जान जाथे कि आज इकर घर जिमी कांदा के साग चुरत हे कही के। ताहन परोसी मन ह अपन-अपन घर ले कटोरी ल धर-धर के साग मांगे ल आ जथे।
ए जिमी कांदा के साग के देवारी तिहार म बड़ महत्ता हे। ए दिन तो मनखे ले पहली गाय-गरवा मन ल भात-साग खवाय जाथे। एकर बाद घर के सियान अउ लइका मन ह अमटाहा जिमीकांदा अउ कुम्हड़ा (मखना) के मड़माड़े मजा लेथे। देवारी के दिन घरो-घर जिमीकांदा अउ कुम्हड़ा के साग ह चुरे रहीथे। तेकर सेती ए दिन कोनो ल का साग ए कही के पूछे के जरूरत नइ पड़े। वइसे तो हर दिन हमर छत्तीसगढ़ म कोनो मनखे ह मिलथे त गोठ-बात के सुरूआत ह खलो का साग ए फलानिन कही के सुरू होथे। फेर ए दिन ए प्रश्न के छुट्टी हो जथे। काबर सबे झन ह तो जानत हे जी इकर घर घलो जिमीकांदा अउ मखना के अमटाहा साग बने हे कही के।

Sunday, 19 November 2017

काश ! मंदिर-मस्जिद छोड़ देश की वर्तमान स्थिति पर होती बहस


देश में लगातार मंदिर-मस्जिद की बहस चली आ रही है। इसके लिए कई लोंगों ने जान भी दी है तो कई लोगाें ने जान भी ली है। देखा जाए तो सभी राजनीतिक पार्टी हमेशा से ही मंदिर-मस्जिद और जाति-धर्म को लेकर जनता को तबाह करने में लगी हुई है। आयोध्या में 1992 में दो हजार से अधिक लोगों को मारकर मस्जिद को ढहाना बहुत ही बर्बतापूर्ण कार्य था। यह कैसा धर्म है जो एक दूसरे के प्रति नफरत का जहर फैलाता है। इस विष को पीने से डेढ़ लाख की हिंसक रैली मरने-मारने को उतारू हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोध्या के मस्जिद को किसी भी प्रकार के नुकसान नहीं पहुंचाने की वचनबद्धता के बावजूद भी कट्टरपंथी ने विवेकशून्य होकर देश में दंगा कर राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करने में जूट जाते हैं। क्या यही सहिष्णुता है ? बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवानी धर्म रैली निकालकर जिस प्रकार लोगों को भड़काने का काम किया यह बहुत ही निंदनीय है। किसी भी नेता को इस प्रकार के मजहब और धर्म के नाम पर जनता को गलत राह पर ले जाना उचित नहीं है। भले ही कोई भी धर्म बहुत सहिष्णुता, प्रेम और भाईचारा का दिखावा करे, लेकिन धर्म के नाम पर हजारों-लाखों की हत्या करने में पीछे नहीं हटते।
आयोध्या में लगातार मंदिर-मस्जिद का मसला गरमाता रहा है। वहीं जब देश में भगवा सरकार आई तो फिर स्कूल, कालेज,हास्पिटल, रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं को छोड़कर जनता को धर्म और मजहब के भयानक कुंआ में ढंकेल रही है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बार-बार सीना ठोकर कह रहे हैं कि आयोध्या में राम मंदिर बनाने से कोई भी ताकत नहीं रोक सकती। अगर योगी अपनी यही ताकत राज्य के विकास कार्यों में लगाया होता तो आज यूपी की तस्वीर कुछ और होती। लोगों को जीने की कला सीखाने वाले रविशंकर ने आयोध्या में जाकर और सीएम योगी से मिलकर मंदिर-मस्जिद मसला की आग में फिर घी डाल दिया है। अब इस रविशंकर को कौन जीने की कला सीखाएं। चुनाव की तारीख घोषित होते ही राजनेता और उनके चेले संत-बाबा ऐसे ही मुद्दों में वोटरों को उलझा कर रख देते हैं। ऐसे मामलों में कोर्ट का समय और धन बर्बाद होता ही है। साथ ही जनता को विकास कार्यों का भी लाभ नहीं मिल पाता। लगातार ऐसे मसले उठते रहे और इनसे आम जनता को कुछ मिला नहीं सिवाय बर्बादी।
अब भगवा बीजेपी ही नहीं बल्कि कांग्रेस के राहुल भी चुनाव देख मंदिर के शरण लेने लगे हैं। उन्हें वोटरों को रिझाने के लिए मंदिर की घंटी बजाने की जरूरत पड़ रही है। इस प्रकार की छोटी सोच ने ही हमेशा से राजनेताओं को जनता की वास्तविक विकास एजेंडे से दूर रखता है। बीजेपी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भी राम मंदिर को लेकर बहुत जाेर दे रहे हैं। बीजेपी के सांसद साक्षी महाराज ने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी मंदिर निर्माण शुरू करने के बाद ही उतरेगी। आज पूरी तरह देश को मजहब और धर्म के नाम पर बांटने और विनाश करने की बड़ी भूमिका सभी राजनैतिक दल निभा रही है। अब सोचना जनता को ही है कि इस प्रकार की ओछी राजनीतिक करने वालों को क्या सबक सिखाया जाए। 

Wednesday, 15 November 2017

जाति समाज लोगों को प्रताड़ित करने का साधन


देश में लिखित संविधान होने के बाद भी सभी जातियों ने अपने-अपने ढंग से अलग से संविधान बना कर देश के कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं। जाति समाज अपनी ही जाति के लोगों को प्रताड़ित कर मरने के लिए मजबूर कर रहे हैं। अंतरजातिय विवाह, प्रेम विवाह, मृत्यु भोज, मुंडन और न जाने क्या-क्या पैसे वसूली करने का हथियार भी बना लिया है। पिछले दिनों 9 नंवबर को धरसींवा के खैरखुट की एक महिला बिसाहिन साहू को सामाजिक बहिष्कार से त्रस्त होकर आत्मदाह करने को मजबूर होना पड़ा। महिला के बेटे दशरथ साहू ने अंतरजातिय विवाह किया है। जिसको लेकर साहू समाज ने 50,000 रुपए दंड दिया। जिसे नहीं पटा पाने पर इस परिवार को समाज से बहिष्कार कर दिया गया।
बहिष्कार के बाद भी लगातार परिवार के मुख्या महिला बिसाहिन को लगातार बैठक बुला-बुला कर प्रताड़ित करने लगा। जिससे महिला ने तंग आकर आत्महत्या करने के लिए मिट्टीतेल छिड़क कर आग लगा ली। जो पूरी तहर से 90 प्रतिशत जल गई है। अभी वे अंबेडकर हास्पिटल में भर्ती है, लेकिन अब तक समाज के प्रमुख ने इन्हें देखने भी नहीं आए। यह कैसा संवेदनहीन समाज है। जो हमेशा अपनी ही जाति के भाई-बहन को परेशान करते रहते है। ऐसे मौत के जिम्मेदार जाति समाज और पदाधिकारियों पर कड़ी से कड़ी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। इस प्रकार छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में से हर दिन अखबारों और टेलीविजन के माध्यम से कई घटनाएं सामने आती है। अंतरजातिय प्रेम विवाह करने पर कई जगह लड़की या लड़का की हत्या कर दी जाती है। तो कहीं हत्यारे जाति समाज के भय से प्रेमी जोड़े आत्महत्या कर लेती है। वही कई जागरूक पालक इस स्थिति में खुलकर जाति समाज के विरोध में सामने आते हैं तो कई रूढ़ीवादी में जकड़े अज्ञानी पालक अपने ही बच्चे के हत्यारे बन जाते हैं या खुद आत्महत्या कर लेते हैं। जिसको पुलिस, सरकार, न्याय व्यवस्था, मीडिया और लोग तमाशबीन की भांति देखते रहते हैं।
इस मामले में महाराष्ट्र राज्य आगे है यहां सबसे पहले अंधविश्वास निर्मूलन कानून बना और सामाजिक बहिष्कार प्रतिषेध अधिनियम लागू हो गया है। यह कानून महाराष्ट्र की जनता में व्याप्त जागरूकता को दिखाता है। वहीं छत्तीसगढ़ में इस कानून पर चर्चा चलते ही समाज के आड़ में भारी-भरकम पैसा कमाने वाले जाति समाज विरोध में पूरी ताकत छोक दिया है। जो यहां की अज्ञानता को दिखाता है। आज के आधुनिक युग में भी यह जातिप्रथा का दंश खत्म नहीं हो रहा है, बल्कि यह और भी भयावह होते जा रहे हैं। सोचने की बात तो यह है कि युवा वर्ग भी इस पुरानी रूढ़ी की चादर ओढ़े दुबक कर सो रहे हैं। जिस दिन यह ताकतवर युवक-युवतियां खुलकर समाज को चुनौति देंगे उसी दिन देश को बांटने वाले जाति समाज का नाश होना तय है।

झुमकी तरोई रे भइया


झुमकी तरोई रे भाई.. झुमकी तरोई गोंदा फूल केरा बारी म... ए गाना ल नाचा म दू झन जोक्कड़ ह बड़ सुघ्घर ढंग ले गाथे। अउ सुनइया देखइया ल घलो बड़ निख लागथे। आज आनीबानी के फिलिम बने के बाद भी हमर छत्तीसगढ़ के नाचा ह अपन पहचान ल बना के रखे हे। नाचा के जोक्कड़ अउ नजरिया ह रात भर मनखे ल सकेल के रखथे। हमर किसान मन ह जब मिंसाई कुटाई के काम बुता ले थक जथे तब नाचा ह ओकर मन बर टानिक दवई असन काम करथे। गांव म नाचा ल लेके लइका अउ सियान म गजब के उछाह देखे ल मिलथे। 
नाचा के माध्यम ले समाज के छूआ छूत, जाति पाति, आंडबर अउ अंधबिस्वास के समस्या ल दिखाय जाथे। जउन ल दरसक मन ह देखथे अउ गुनथे। ए परकार के नाचा ह लोगन मन के बीच जागरूकता लाय म घलो बड़ काम करथे। नाचा के परी (जउन ल नजरिया कहे जाथे) रात भर गाना गा गा के देखइया के मन ल हरिया देथे। नचकाहरा के गाना संग ओकर घुंघरू अउ तबला, पेटी, झुनकी अउ मंजीरा के धुन ह देखइया मन के अंतस ल खुसी रंग म रंग देथे। तेकर सेती देखइया मन ह कतको जाड़ म घलो एकर मजा लेथे। 
नाचा म मनोरंजन के संगे संग सामाजिक समस्या ल बड़ जोरदार ढंग ले दिखाय के कोसिस करे जाथे। गांव म जइसे पुस महिना ह सिराथे ताहन मड़ई मेला के सिजन ह आ जथे। दिन म मड़ई म काम बुता अउ छोटे छोटे जीनीस के लेवई चलथे त रात म गुरतुर गुरतुर नाचा गम्मत के रसपान करे ल मिलथे। नाचा ह बिहिनिया जुआर बेरा के उगते साठ बंद हो जाथे। ए प्रकार गांव के जीवन म नाचा के बड़ महत्व हे। 

Tuesday, 14 November 2017

नोटबंदी नाग तो जीएसटी अजगर


8 नवंबर 2016 को मोदी सरकार ने जिस प्रकार से नोटबंदी का एलान किया वह फुफकारते नाग से कम नहीं था, जिसे गरीब, मजदूर, किसान और छोटे-छोटे व्यापारी को डसने के लिए ढिला गया था। नोटबंदी नाग ने सौ से अधिक लोगों को काट डाला। इसी प्रकार 1 जुलाई 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीएसटी लागू कर ऐसा जश्न मनाया जैसे 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिलने पर मनाया गया था। धूमधाम से जीएसटी लागू किया गया, लेकिन यह भी एक अजगर सांप से कम नहीं है जो डसता तो नहीं है लेकिन लोगों को जकड़ कर लील देता है।
जैसे ही गुड्स एंड सर्विस टैक्स लगाया गया तो आम उपभोक्ता के साथ व्यापारी वर्ग में भी हलचल मच गई। एक टैक्स कहकर भारी भरकम टैक्स वस्तु और सेवाओं में लगने लगे। जिससे लोगों का जेब और ढिला होने लगे। जब लोगों ने इसका जमकर विरोध करना शुरू किए तो भाजपा सरकार कहने लगी कि इससे महंगाई कम होगी, सभी चीजे सस्ती मिलेगी, टैक्स चोरी बंद होगी, आम उपभोक्ता को लाभ होगा और न जाने क्या-क्या जुमले की बारिश की गई। इसका टेलीविजन और अखबारों में इतना प्रचार-प्रसार किया गया कि लोगों को लगे कि अब सचमूच खुशहाल जीवन मिल जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे दिन बितता गया तो लोगो को समझ आ गया कि होने वाला कुछ नहीं है। समस्या जस के तस बनी रहेगी। फोकट में ढोल पीटा जा रहा है।
जीएसटी के लगभग आधा वर्ष पूरा होने के बाद भी महंगाई में अंकुश नहीं लगने पर लोगों का विरोध साफ दिखाई दे रहे हैं। जिसकों देखकर सरकार इतना घबरा गई कि नोटबंदी की तरह बार-बार नियम में संशोधन करने की जरूरत पड़ गई। गुजरात का चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार को पांच प्रतिशत जीएसटी कम करना पड़ा ताकि गुजरात के वोटर कहीं सबक न सिखा दे। जिसमें घोषणा की गई कि अब 215 चीजें सस्ती मिलेगी। इसका भी भारी प्रचार किया जा रहा है। जैसे अब देश की जनता की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाएगी। अब देखना यह है कि इस जरा सा बदलाव का आम उपभोक्ताओं को कितना लाभ मिल पाता है। क्या पेट्रोल 80 से 40 रुपए लीटर हो जाएगा ? क्या गैस सिलेंडर 800 से 400 हो जाएगा ? क्या जर्जर सरकारी स्कूल-कालेज की स्थिति में सुधार आएगी? क्या मेहनतकश मजदूर किसानों को उनका हक मिल पाएगा ? 

का साग ए ढेलिया-फोटू रमकेलिया

अगहन के महिना आगे हे अब गांव-गांव म लुवई मिंजई के बुता ह जोरदार चलत हे। मे ह इतवार के माेर गांव गे रहे हंव। तब मोर बबा ह कथे जा न रे खेत डाहर ल देख के आ जबे। त मोरो मन ह उही डाहर रम गे अउ गुने लागेंव अबड़ साल होगे हे खेत ल देखे नइ हंव। फेर मोला लकर धकर संझा जुआर ले रइपुर लहुटना भी रहिस। तब मोर मन ह मड़माड़े कहे ल लागिस खेत खार ल किंजर आ कही के। ताहन मे ह भात बासी काही नइ खाएंव अउ रेंग देव खेत डाहर। खेत म सब लुवइया अउ भराही करइया मन जोरयाय रहाय तब अइसन लागिस जइसे खेत म कोनो मड़ई मेला होवत हे। मेड़े मेड़ जावत जावत मोला फोटू रमकेलिया दिख गे। जेमां फर अउ फूल ह मड़मारे झूले रहाय। तब मोला नानपन के सुरता अागे कइसे मे ह जब गांव म रहांव त मोर महतारी ह धान लुवइ मिंजइ के दिन म खेत ले फोटू रमकेलिया ल ला के अम्मट म रांधय अउ अबड़ मिठाय। जे दिन ए साग ह चुरे रहाय ओ दिन मोर महतारी ल पुछंव का साग रांधे हस दाई कही के तब गुरतुर ढंग ले कहाय का साग ए ढेलिया फोटू रमकेलिया। तब मोरो मन ह गदगद हो जाय अउ मे ह घेरी बेरी साग चुरत कराही ल देखंव। अउ वो दिन दू कांवरा उपराहा भात घलो खावंव। नानपन के ए सुरता ह मोर अंतस ल हरिया दिस। अउ मोर मन म अभी ले फोटू रमकेलिया साग ह ममहावत हे। 

भाजपा की ओछी मानसिकता


हमारे देश में लड़कियों-महिलाओं को देवी मानकर पूजा की जाती है, लेकिन दूसरी तरफ भगवा भाजपा सरकार लड़कियों को कमरे में जंजीर से बांध कर रखने की कोशिश कर रही है। पिछले दिनों ऐसे कई घटनाएं छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, हरियाणा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और कई अन्य स्थानों से सामने आई। इस पर गाैर करे ताे लड़कियों को लेकर भाजपा की ओछी मानसिकता साफ दिखती है। अभी-अभी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कोचिंग से लौटती छात्रा के साथ सामुहिक बलात्कार हुआ। जिसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए उनके पालक ने थाना में गुहार लगाई, लेकिन एक दिन तक एफआईआर दर्ज भी नहीं हुई। ले दे के रिपोर्ट होने के बाद अभी तक ठोस कार्रवाई नहीं हुई। बलात्कार की इस घटना पर मध्यप्रदेश के सभी लड़कियों का मामा कहलाने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब लड़कियों को शाम सात बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकलने का आदेश जारी कर दिया गया है। वहीं कोचिंग सेंटर संचालकों को भी यह आदेश जारी किया है कि शाम सात बजे के बाद किसी भी छात्राओं को नहीं पढ़ाया जाए, अगर पढ़ाते हैं, तो उसका जिम्मेदारी खुद ले। इस प्रकार की सोच आधुनिक समय में कितना जायज है। क्या हम फिर से लड़कियाें को घर के कमरे में कैद करके रखना चाहते है। अगर लड़कियों के शाम को निकलने से बलात्कार होता है तो क्यो न बलात्कारी लड़कों को शाम होते ही कमरे में बांध कर रखने का आदेश दिया जाए।
छत्तीसगढ़ में भी लगातार बस्तर की आदिवासी महिलाओं और लड़कियों के साथ पुलिस कर्मचारियों द्वारा लगातार बलात्कार की घटना सामने आती है, लेकिन ठोस कार्रवाई नहीं होती है। कुछ महिने पहले रक्षाबंधन के दिन बस्तर के एक स्कूल कार्यक्रम में जवानों द्वारा टायलेट में घुसकर स्कूली लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करने की घटना हुई थी। जिस पर सरकार और शासन-प्रशासन ने कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की। वहीं पिछले समय हरियाणा के बीजेपी नेता के बेटे ने एक लड़की की कार का पीछा करने और बलात्कार करने की कोशिश की। लड़की ने साहस के साथ कार को
 स्पीड से चलाकर अौर पुलिस को इंफार्म कर अपनी इज्जत बचाई। जिस पर भी भाजपा सरकार शर्म महसूस नहीं की। मुख्मंत्री मनोहर खट्टर भाषण में 'रात में निकलने वाली लड़की नंगी होकर क्यों नहीं निकलती' कहने वाले क्या कार्रवाई करेगा। अब इस प्रकार के घटिया सोच वाले लोग लड़कियाें और महिलाओं को पूरी तरह रूढ़िवादी सोच की बेड़ियों में जकड़ने में लगे हैं। ये लोग तय करेंगे कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, मोबाइल रखना चाहिए कि नहीं, घर से शाम को निकलना चाहिए कि नहीं।

नोटबंदी से परेशानी हजार, लाभ एक भी नहीं


देश की जनता को नरेंद्र मोदी के भाषण को सुनकर चुनाव के समय ऐसा लग रहा था कि सचमूच अब देश तरक्की की राह में चल पड़ेगा। लेकिन जब से मोदी सरकार आई तब से हुआ कुछ नहीं जुमले और भाषण के अलावा। पिछले साल 8 नवंबर को पांच सौ और एक हजार के प्रचलित नोटों को बंद करके सरकार ने ऐसा लोगों को परेशान किया कि सब अपने काम-धंधे छोड़कर बैंक में लाइन लगे रहे। किसान उस समय फसल की कटाई और मिंसाई छोड़कर बैंक में पैसोें के लिए कतार पर सुबह से शाम लगे रहे। मजदूर भी अपनी रोजी-मजदूरी छोड़कर कुछ पुराने नोट को जमा करने और नए नोट लेने की मजबूरी में पेट की भूख को भूलकर बैंक में ही पैसे बदलने की आस में लगे रहे। कही-कही तो खबर आई थी कि लाइन में लगे-लगे कई लोग मर गए। तो कई जगहों पर मारपीट-लूटपाट भी बहुत हुआ। अब इस परेशानी को मोदी सरकार और मोदी भक्तों ने देशभक्ति से जोड़कर लोगों के सामने पेश करने लगे। कहने लगा कि हमारे मोदी देश के लिए घर-परिवार और पत्नी को छोड़ सकता है तो अाप लाइन में लगकर मर नहीं सकते। अब लाइन में लगकर मरने वालों को शहीद का दर्जा देने लगे। कहने लगे कि कुछ ही दिन परेशानी होगी फिर देखना देश में कालाधन, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, बेरोजगारी, भूखमरी, शोषण-अत्याचार, जाली नोट और घुसघोरी सब जड़ से खत्म हो जाएगी।
अब देखना यह है क्या वास्तव में नोटबंदी से देश बदला है। अगर हम रिजर्व बैंक अाफ इंडिया की 2016-17 की रिपोर्ट पर गौर करे तो रिपोर्ट में बताया गया है कि पुराने नोट 99 फिसदी से ज्यादा जमा हो गए हैं। जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि सभी करोड़ों के कालाधन कमाने वाले अपने रूपए बदल लिया है। वास्तविक सामने आते देख सरकार ने जनता को भ्रमित करने के लिए इस नोटबंदी को डिजिटल इंडिया से जोड़ने लगा और कहने लगा कि अब देश में सभी चीजे आनलाइन पेमेंट होगा। अब इन्हें कौन बताए कि घर बनाने से पहले नींव बनाई जाती है। यहां तो सीधा इमारत खड़ी की जा रही है बिना नींव की। सरकार को चाहिए कि पहले व्यवस्था को ठिक करे। यहां इनटरनेट और मोबाइल सर्वर इतने कमजोर है कि गांव में चले जाओं तो ठिक से बात भी नहीं हो पाती और डिजीटल इंडिया की बात कर रही है। भारत में 80 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण निवास करते हैं जो ज्यादातर अशिक्षित है। अब यहां के लोग पढ़ना ठीक से नहीं जानते तो क्या आनलाइन समझा पाएंगे। पहले तो देश के स्कूल-कालेज को बेहतर बनाना चाहिए। अब साल भर गुजरने के बाद क्या देश में कालाधन वापस आ गया ? क्या भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई हुई? क्या माल्या और ललित मोदी जैसे वीआईपी भ्रष्टाचारियों को जेल के अंदर डाल पाए ? क्या स्वीस बैंक में बीजेपी नेता और पूंजीपतियों की जमा की गई संपत्ति देश में आ गई ? क्या बेरोजगारों को रोजगार मिल पाया ? क्या जनता को बेहतर शिक्षा मिल गई ? क्या गरीब, किसान, मजूदर की स्थिति सुधर पाई ?

बेहतर शिक्षा नहीं होने से अंधकार में देश


हमारी जिंदगी में तालीम की अहमियत बहुत होती है। शिक्षा से ही हम उचित-अनुचित, अच्छाई-बुराई, यर्थाथ-काल्पनिक और सही-गलत के बीच भेद कर पाते हैं। देश में स्कूल-कालेज की गुणवत्ता गिरती जा रही है। अब ज्यादा पैसा कमाने के लिए स्कूल-कालेज ही सबसे बड़ा धंधा बन गया है। जिससे जगह-जगह प्राइवेट स्कूल-कालेज छोटी सी जगह और दो-चार रूम में संचालित हो रहे हैं। हमारे देश के संविधान में समानता और धर्मनिरपेक्षा की बात कही गई है, लेकिन यह चीजें कही दिखाई नहीं देती। यहां समानता की बात करे तो गरीबों के लिए सरकारी स्कूल और अमीरों के लिए महंगा प्राइवेट स्कूल खुले हुए हैं। जिससे देश में दो नागरिकता पैदा हो गई है। अब पूंजीपति लोग ज्यादा से ज्यादा महंगे स्कूल में अपने बच्चों को एडमिशन करा कर गर्व महसूस करते हैं, तो गरीब के बच्चे जर्जर और संसाधनहीन स्कूल में दालभात खाने जाते हैं। लोगों का बचपन स्कूल से ही शुरू होता है। जिसे ज्ञान-विज्ञान की जगह के लिए जाना जाता है, लेकिन सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट सभी स्कूलाें में बच्चों को ज्ञान-विज्ञान से दूर पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठान और काल्पनिक बातों में उलझा कर रखा जाता है। अब जिस स्कूल में सरस्वती पूजा होती हो वहां के बच्चे क्या खाक चंद्र, मंगल और अंतरिक्ष में जाएगा। उसे तो यहीं बताया जाता है कि सब प्रभु की महिमा है पूरा अंतरिक्ष भगवान संचालित कर रहा है। राजधानी के स्कूलाें में अभी सहस्त्रबाहु जयंती पर बच्चों को महाआरती कर उनकी काल्पनिक गाथा बताया जाएगा। मैंने देखा है स्कूल-कालेजों में कोई भी कार्यक्रम होता है तो प्रारंभ सरस्वती पूजा के साथ होता है। क्या हमारा देश में सिर्फ हिंदू ही पढ़ते हैं अन्य धर्म के नहीं। हमें शिक्षा, समाज, राजनीति से धर्म, जाति, पंथ और संप्रदाय को दूर रखना चाहिए। ताकि समानता और वैज्ञानिक सोच के साथ देश का विकास हो सके।

छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया के कदर नही अउ मनावत हे राज उछाह


जबले छत्तीसगढ राज ह बने हे तब ले सरकार ह लगातार राज उछाह मनावत हे। भले किसान मन आत्महत्या करे, लइका मन ह भोकवा राहय, जवान टूरा-टूरी मन बेरोजगार घुमय, रसपताल म मरीज ह इलाज बिना तरस के मर जाय, मजदूर अउ किसान ल ओकर मेहनत के पइसा मत मिलय, इस्कूल कालेज म गुरुजी मत रहाय, भले सरकारी स्कूल अउ कालेज ल बंद करके प्राइवेट स्कूल कालेज के दलाली करे अउ कतेक समस्या ल आेरयाबे। इहा तो सरकार ह छत्तीसगढ़िया मन ल ठग के छत्तीसगढ़ ल बेचे म पूरा ताकत ल लगा देहे। जनता ल भुलवारे बर आनीबानी के जाल ल बिछावत हे। अब राज उछाह ल लेके रमन कका ह पइसा ल पानी कस बोहाही अतका खर्चा म तो छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़िया मन के तसवीर अउ तकदीर दूनो बदल जतीस। ए बखत तो मे ह सुनत हव कि फेर नवा रइपुर म पांच दिन के उछाह मनाही। जेमा बालीवुड के सिंगर सुखबिंदर सिंह अउ केके ह आके दू ठन गाना सुनाही अउ करोड़ों रुपया ल समेट के ले जाही। भले हमर छत्तीसढ़िया कलाकार मन ह टुकुर टुकुर देखत रही।
राज उछाह बर एक महिना पहिली ले तियारी शुरू हो जथे लेकिन धान खरीदी बर काही तियारी नइ होय। तेकर सेती किसान मन ल अपने कमइ के धान ल बेचे बर अउ पइसा बर घलो लाइन म लगे ल परथे। कभू सरवर ह ठप हो जथेे त कभू किसान मन ल धान भरे बर बोरा नइ मिलय। सरकार ह हर बखत चुनाव म किसान मन के धान ल 2100 रुपया म लेबो कही के भुलवारत आवत हे। फेर धान के रेट ह नइ बढ़हीस उही 11 रुपया किलो म बेचावत हे मतलब हमर किसान मन के धान के कीमत ह एक ठाेक पानी बाटल जेन ह 25 ले 30 रुपया म बेचाथे ओतको नइ हे। अब किसान के धान के मूल्य ह तो नइ बढ़हीस अउ उल्टा पेट्रोल-डीजल, ट्रेकटर, दवई अउ बीजहा धान के कीमत ह मड़माड़े बढ़ गे। तब अइसने म किसान ह करय त करय का। ए साल सरकार ह किसान मन ल एक क्वींटल के पाछू तीन सौ रुपया बोनस देके अइसन छाती ठोकत हे अउ अहसान जतावत हे। जइसे अब किसान मन ल कमायच ल नइ लागय। जे दिन हमर किसान मन के मुख ले उदासी के बादर ह साफ होही अउ खुशी के मड़माड़े बरसात होही। उही दिन छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़िया मन के असली उछाह आही।
ए बखत एक ठोक अउ बात सुनत हव कि गुजरात के 18 ठोक इसटाल लगही कहीके मतलब छत्तीसगढ़ी संसकिरति ह तो पूरा नंदा गेहे जउन ह बाचे हे वहू ल गुजराती रंग म रंगे के कोसिस होवत हे। अउ छत्तीसगढ़ी भाखा ल लेकेे भासा आयोग बनाय अबड़ साल होगे फेर छत्तीसगढ़ी कोनो मेर लागू नइ होहे। तेकर सेती हमर भाखा अउ माटी के सुगंध ह सिरावत नजर आवत हे। जउन दिन छत्तीसढ़, छत्तीसगढ़िया अउ छत्तीसढ़ी के कदर होही उही दिन हमर छत्तीसगढ़ के नवा बिहान आही।

कलम पर चहुंमुखी हमले


अकबर इलाहाबादी ने कहा था कि 'खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो' मतलब उस दौर में पत्रकारिता की ताकत कमान और तलवार से भी अधिक थी। देश और समाज को बदलने और राह दिखाने में अखबारनविसों की बड़ी भूमिका रहती थी। अब इस ताकत को मिटाने और दबाने के लिए चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अखबार पर बंदिश लगाने वाले काला कानून पिछले दिनों पेश कर मीडिया आैर लोकतंत्र पर थपड़ मारी है। जिसका विरोध की आवाज कहीं भी नहीं सुनाई दे रही है। भाजपा सरकार और भाजपा कार्यकर्ता और उनके चमचे को छोड़ दिजिए, लेकिन देश के युवा भी मौन हैं। क्या हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कलम की ताकत को मरते हुए देखना चाहते हैं। अब राजस्थान में ही नहीं पूरे देश भर में पत्रकारिता और पत्रकारों की स्थित बहुत ही खराब है। मीडिया अब पूंजीपतियों, सरकार, गुंडो फर्जी बाबा और धर्म के धंधा करने वालों के कब्जे में है। लगातार कुछ घटनाएं पत्रकार और पत्रकारिता को चोट पहुंचाई है। बाबा राम रहीम की असलियत को प्रकाशित करने वाले रामचंद्र छत्रपति को उनके घर के सामने हत्या कर दी गई। बंगलौर की निडर पत्रकार गौरी लंकेश को उनके घर घुंसकर गोली मर दी गई। वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर में देखे तो पनामा पेपर का खुलासा करने वाली माल्टा की जर्नलिस्ट डैफने कारूआना को उनकी कार के साथ बम से उड़ा दिया गया। देश और विदेश में पूंजीपतियों द्वारा पत्रकार और पत्रकारिता को खरीदा जा रहा है। चाहे वह धन बल से हो या बाहुबल से। इतनी भयावह स्थिति होने के बाद भी देश के कुछ साहसी पत्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर लिख रहे हैं। जिससे भ्रष्टचार के रस में डुबे लोग और सरकार पूरी तरह से डरे हुए हैं। देश के केंद्र सरकार मीडिया को खरीदने में लगी है, वहीं पूंजीपति द्वारा संचालित मीडिया भी बिकने और सरकार के हाथों में नाचने के लिए व्याकुल है। जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। वैसे तो टीवी और अखबाराें में गांव, ग्रामीण, खेती, किसानी
, मजदूर, किसान, जमीन और जंगल पूरी तरह से खत्म हो गया है। कुछेक अखबार जो छोटे वर्ग के लोगों की आवाज बुलंद कर रहे हैं, उनको अब सरकार और धनवानों द्वारा पूरी ताकत से मिटाया जा रहा है। अब कहीं अखबार की भाषा पूरी तरह से चाटुकारिता न हो जाए और टेलीविजन चैनल की आवाज भाट की आवाज न हो जाए।

जेठवउनी : का कोनो मनखे ह लगातार चार महिना ले सुत सकथे

हमर देस म आनीबानी के मनगढ़त उपटपुटांग कहानी ह अबड़ दिन के चलत आवत हे। पौरानिक कहानी म कहे गे हे कि आसाढ़ महीना के सुक्ल पक्छ के एकादशी म भगवान बिष्णु अउ देवी-देवता मन ह सुत जथे। जउन ल गियानी पंडित मन ह देवसुतनी एकादसी कथे। फेर चार महिना के बाद कातिक सुक्ल पक्छ के एकादसी म बिष्णु अउ जम्मो देवधामी मन ह भरभरा के उठ जथे। एला पूजापाठ के धंधा करइया मन ह देवउठनी अउ हमर छत्तीसगढ़िया मन ह जेठवउनी कथे। वइसे तो हमर पौरानिक कहानी म जइसन असल जिनगी म नइ होय वइसन कलपना करे हाबय। अब का कोनो मनखे ह बिना खाय-पिए चार महिना ले सुत सकथे आपे मन बतावव। अइसने कुंभकरन ल घलो छह महिना ले सुतइया बताय हे। अभी तक ले हमर धरती म अइसन परानी के खोज नइ होय हे जेन ह छह महिना ले सुतथे अउ छह महिना ले मड़माड़े खाथे।
अब मे ह दूसर ढाहर बात ल नइ लमा के 31 अक्टूबर के अवइया जेठउवनी या देवउठनी ल लेके आप मन से थोकन गोठियाहू। लोगन ल कहानी अउ कालपनिक बात म उलझइया मनखे मन कथे कि देवसयनी एकादशी ले देवउठनी एकादसी तक यानी चार महीना भगवान बिष्णु ह सयनकाल के अवसथा म होथे अउ ए समय म कोई सुभ काम ल नइ करे जाय कथे। त भइया हो आपे मन बतावव कि जम्मो तिहार पूजापाठ अउ धारमिक काम बुता ह इही बेरा म होथे। जइसे गनेस पूजा, नवरातरी म दुरगा पूजा, देवारी म लछनी पूजा अउ बीच बीच म काय काय पूजा नइ होय। तब तो फेर ये पूजाउजा मन ह असुभ काम आय काबर पंडित मन ह कइथे कि ए समय म देवी-देवता मन सुते रइथे। अव इकर सुते के समय म कोनो परकार के डिस्टर्ब नइ होना चाही। तब तो हमन ह बड़े जान पापी हरन काबर गनेस, दुरगा अउ लछनी पूजा म मड़माड़े आवाज म लाउंड स्पीकर बजा-बजा के भगवान ल अउ आस पास के मनखे ल जगाथन अउ परेसान करथन। बड़े-बड़े फटाका फोड़ के सुते देवधामी अउ इस्कूल म पढ़त लइका, रसपताल म परे मरिज ल झझकाथन चमकाथन। अउ अतको नही गनेस अउ दुरगा ल पानी म बोर बोर के उबुक चुबुक डूबो देथन जेकर ले ओ भगवान ल कतेक तकलीफ होवत होही अउ धरती के जीयत परानी, जीव अउ जानवर मन ल घलो पीए के पानी मिलत रिहिस उहू ह परदूसित होगे। जतका नदिया, नरवा, तरिया, डबरी रिहिस ओला हमन भगवान के नाम म पाट डरेन। का हमन अइसन करके देवी-देवता के नींद म अउ आस पास के मनखे अउ जीव जानवर के जिनगी म दखल नइ देवत हन।

लोकतंत्र का गला घोटने की हो रही साजिश

देश में जहां-जहां भाजपा सरकार है चाहे केंद्र हो या राज्य वहां पूरी तरह से लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश हो रही है। अभी तो सरकार मतलब जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी हो गई है। वर्तमान में देश की जनता न्यायालय और प्रेस से कुछ उम्मीद रखती है। जिस पर सरकार लगातार वार कर रही है। राजस्थान में वसुंधरा सरकार सोमवार से शुरू हो रहे विधानसभा के सत्र में एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है, जिसमें भ्रष्ट सरकार या अधिकारी के खिलाफ एफआईआर करने के लिए सरकार से इजाजत की जरूरत पड़ेगी। यह विधेयक सन 1975 में इंदिरा गांधी के समय में कांग्रेस की सरकार ने देश भर में पूरी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी थी उनकी याद दिलाता है। इसी प्रकार अब किसी भी भ्रष्ट नेता, अधिकारी, कर्मचारी, विधायक, सांसद, मंत्री और अन्य सरकारी कर्मचारियों को अब सरकार बताएगी कि महाभ्रष्ट मंत्री या सांसद पूरी तरह से दुध के धुले हैं। पहले से न्यायालय का अवमानना कानून लागू है जिसके अनुसार किसी भी जज के खिलाफ एक लब्ज भी नहीं बोला जा सकता। इसी प्रकार अब सरकार का अवमानना कानून भी लागू हो रहा है, जिससे आप सरकार के खिलाफ मुंह नहीं खोल सकते। अगर जुबां फिसली तो दो साल की जेल की सजा होगी। इस प्रकार सरकार तानाशाही नीति को लागू करने में जोर दे रही है। पहले देश अंग्रेजों के गुलाम था, अब अपने ही देश के कुछ लोग कानून व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था को खराब करने में लगे हैं। राजस्था
न में ये बिल पास हुआ तो बगैर सरकार की अनुमति के अफसरों के खिलाफ कोई एफआईआर नहीं होगी। 180 दिनों तक अनुमति नहीं मिलेगी तो कोर्ट के आदेश से एफआईआर होगी। तब तक सरकार उन भ्रष्टाचार के खिलाफ व्याप्त सबूतों के नामो-निशां मिटा देगी। कुछ पत्रकार पत्र-पत्रिका और अन्य माध्यमों से घोटाले का खुलासा करने का साहस जुटा पाते हैं। उनको भी अब इस विधेयक से यहां किसी व्यक्ति के खिलाफ 180 दिनों तक कोई खबर नहीं छापने दिया जाएगा। जिससे अब यह लगता है कि देश में फिर से इंदिरा के समय से कई गुणा बदतर स्थिति हो गई है। अब कहीं भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं दिखाई देती अगर अाप सरकार की आलोचना करेंगे ताे मारे जाएंगे।

मोहब्बत की निशानी ताजमहल पर नफरत की निगाहें

हमारे मुल्क में हमेशा से कुछ ऐसे लोग मौजूद है जो नफरत की बीज बोया करतेे हैं। चाहे भाषा के नाम पर हो, चाहे धर्म, क्षेत्र, जाति और कुछ नहीं मिला तो गाय, गोबर, भारत माता है कि पिता, देशभक्त कौन है देशद्रोही कौन और अन्य फिजूल मुद्दों को लेकर हिंसा और लड़ाई करवाते हैं। अब इस बार भगवा सरकार और कट्टरपंथियों की नफरत की निगाहें मोहब्बत की निशानी दुनिया के सातवे अजुबों में शामिल खूबसूरत और मनमोहक ताजमहल पर पड़ गई है। उत्तर प्रदेश के टूरिज्म लिस्ट में ताजमहल को शामिल न करना यह दिखाता है कि योगी सरकार खूबसूरत इमारत ताजमहल को लोगों के दिलों से अलग कर देना चाहती है। जिसे देखने हिंदुस्तान और विदेश के पर्यटक बड़ी संख्या में हर साल आते हैं। बीजेपी के मेरठ जिले के एमएलए संगीत सोम ने एक पब्लिक मीटिंग में ऐलान किया कि ताजमहल को इतिहास से निकाल दिया जाना चाहिए। अब इसे कौन समझाए की इतिहास लिखा नहीं जाता इतिहास बनता है। अगर शाहजहां द्वारा बनवाया गया ताजमहल को इतिहास से हटाया जाएगा तो देश का पूरा इतिहास ही मिट जाएगा। अब जिस लाल किले में साल में दो बार देश की स्वतंत्रता और गणतंत्रता की खुशिया मनाते हैं उन्हें भी खत्म कर देना चाहिए। देश को लंबे समय तक गुलाम रखने वाले अंग्रेजों द्वारा निर्मित स्कूल-कालेजों को भी ढंहा देना चाहिए। जिस रेल को अंग्रेज सरकार ने बनवाई उसे भी उखाड़ फेंकना चाहिए और अखबारों को भी बंद कर अभिव्यक्ति पर रोक लगा देना चाहिए। तो बताइए जनाब हमारा इतिहास क्या है और कैसे इतिहास बनाना चाहते हैं। कही ऐसा तो नहीं की बाबरी मस्जिद गिराकर देश के हजारों बेगुनाहों की जान लेने का इतिहास को ताजमहल के नाम पर दोहराने का घटिया और घृणित कुविचार हो?

लक्ष्मी पूजा से धन मिलता है तो देश गरीब क्यों?


हमारा भारत देश में ज्यादातर समय पूजा-पाठ में व्यतित होता है। कहा जाता है कि लक्ष्मी की पूजा करने से धन-संपत्ति की बारिश होती है। इसलिए दीपावली त्योहार में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, शहरी-ग्रामीण और सभी वर्ग के लोग तल्लीन होकर मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं, लेकिन अभी तक भारत देश को गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं से मुक्ति नहीं पाई। बल्कि यहां की जनता गुलाम मानसिकता के शिकार हो गई। अब सोचने की बात यह है कि समाज अपनी अगली पीढ़ी को किस ओर ढंकेल रहा है। लोगों को मेहनत में कम और पूजा-पाठ में ज्यादा विश्वास होने लगा है, जिससे आत्मविश्वास कमजाेर पड़ता जा रहा है। अब आधुनिक युग में शिक्षित लोग भी विज्ञान पर कम और चमात्कार पर ज्यादा विश्वास करने लगा है। अगर पूजा-पाठ से मनोकामना पूरी होती तो यहां कोई इंसान असंतुष्ट नहीं होते। इतनी बड़ी आबादी सुबह से शाम और देर रात तक लाउंड स्पीकर बजा-बजा कर भगवान को याद करते हैं, लेकिन उनकी समस्याएं जस के तस बनी रहती है। हमें भेड़ धसान चाल चलने से पहले साेचना होगा कि हम और हमारा समाज कहा जा रहे हैं ? क्या लक्ष्मी पूजा करने से रुपयों की बारिश होती है ? क्या दुर्गा पूजा करने से शक्ति मिलती है? क्या सरस्वती पूजा रकने से ज्ञान मिलता है ? तो भारत देश को विश्व में सबसे धनवान, सर्वशक्तिमान और बहुत ही ज्ञानवान होना चाहिए। इस वक्त मुझे भगत सिंह की कही गई बात याद आती है, 'अपने बच्चों को यह कहना कि तुम छनभंगुर और कमजोर हो, जो भी कर्ता-धर्ता ईश्वर है, इससे बच्चों की आत्मशक्ति खत्म हो जाती है।' यह बात सत प्रतिशत सहीं है। बच्चे अपने आप को तुच्छ और हीन समझने लगता है। इस प्रकार की सोच घरवालों द्वारा बचपन में ही बच्चों के मन में ठूस-ठूस कर भरी जाती है। ताकी जिंदगी भर इस मानसिक बीमारी से जुझते रहे। पालकों को चाहिए कि अपने बच्चाें को वैज्ञानिक और प्रगतिशील सोच की शिक्षा और विचार दें। जिससे वे अपनी शक्ति और मेहनत पर विश्वास करें। बच्चों को खुद पर विश्वास नहीं होने के कारण परीक्षा में पास होने के लिए पढ़ाई छाेड़ सरस्वती पूजा और नारियल फोड़ना शुरू कर देते हैं। विद्यार्थी पढ़ने में कम और पूजा-पाठ में ज्यादा यकीन करने लगते हैं। जिससे वह कई बार फेल भी हो जाते हैं। इस पर भी खुद को दोषी न मानकर भगवान और भाग्य को दोष देता है। इसमें बच्चों की भी गलती नहीं है, गलती तो हमारी है हमने तो इस प्रकार की सोच की बीज बच्चों के मन में उनकी शुरूआती जिंदगी में बोए हैं। वैज्ञानिक और आधुनिक समाज को यह कितना शोभा देता है?

किसानों की चिंता या चुनाव की

सरकार किसी भी पार्टी की हो हमेशा से भोले-भाले किसानों को वोट बैंक ही समझती है। अब भाजपा सरकार को देख लिजिए इतने साल से किसानों की चिंता नहीं सता रही थी, अचानक चुनाव सामने देख किसानों की फिकर होने लगी। अब इसे किसानों की चिंता कहे या चुनाव की। प्रति क्वींटल धान पर 300 रुपए बाेनस देकर ऐसा अहसान जता रहा है जैसे अब किसानों की जिंदगी ही बदल गई। देश और प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या पहली बार हुई है। सरकार को खुशी ऊंट के मुंह में जीरा 300 रुपए बोनस देने में हो रही है, लेकिन किसानों की आत्महत्या की घटनाओं को लेकर उतनी दुखी नहीं। रमन सरकार जितने खर्च किसानों को बोनस देने में कर रही है, उससे कहीं ज्यादा खर्च बोनस तिहार उत्साह मनाने के लिए पंडाल, भीड़ जुटाने, विज्ञापन, और अन्य जनसंपर्क की व्यवस्था में कर रही है। सरकार अब चुनाव को देखते हुए किसानों, मजदूरों, गरीबों, युवाओं, विद्यार्थियों, शिक्षकों, कर्मचारियों और अन्य वर्गों के लोगों को प्रलोभन और जुमले की जाल में फांसने में लग गई है। भाजपा सरकार पिछले दो चुनावों की चुनावी घोषणाएं पूरी तरह से भूल गई है। किसान पूछ रहे हैं कि धान के समर्थन मूल्य 2100 रुपए कब होगा, पिछले सालों के बोनस कब मिलेगा और ऐसी स्थिति कब आएगी जब किसान पूरी तरह से कर्ज से मुक्त हो और कृषि ऋण लेने की जरूरत न पड़े। सरकार द्वारा पूराने वादे भुलाकर जनता को नए सपने दिखाना कितना जायज है ?

त्याेहारों पर पर्यावरण व खुद से खिलवाड़ तो नहीं ?

आज सबसे ज्यादा समस्या देश में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या है। पूरी तरह से आबो-हवा प्रदूषित हो गई है। इसके बावजूद भी हमारे देश में हर त्योहारों पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ हो रहा है। क्यों हम उत्सव के रंग में इतने रंग जाते हैं, हमें पर्यावरण और खुद को होने वाली हानियों के बारे में जरा भी ख्याल नहीं आता। यहां महिने के हर दिन कोई न कोई त्योहार होता है, जिसमें हम सब मिलकर केमिकल युक्त मूर्ति से नदियां, तालाबों और अन्य जलस्त्रोतों को पाटने में लगे हैं। भले ही हमारे देश में सरकार गंगा नदी और अन्य नदी बचाने का अभियान कितनों जोर-शोर से चलाए, भले ही देश भर में स्वच्छ भारत मिशन के हल्ला मचाएं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई कानून बनाने की जरूरत महसूस नहीं की। जिससे त्योहार में होने वाले जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और अन्य परेशानियों पर रोक लगाया जा सके। मूर्ति स्थापना, ज्योत प्रजवलित
 के लिए घी-तेल के लिए करोड़ों रुपए की बबार्दी की जाती है। वहीं दूसरी ओर कुपोषण से दिन-ब-दिन मरने की संख्या बड़ रही है। अगर इसी से इन कुपोषितों के पेट भरा जाता तो कितना अच्छा होता। इससे अापके देवी-देवता खुश हो जाते। आप सोचिए कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके इस हरकत से ईश्वर रूठ गया हो और लगातार सुखा-अकाल जैसी स्थितयों का सामना करना पड़ रहा है। यहां देश गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, भुखमरी और अन्य समस्याओं से जूझ रहा है। वहीं छोटे से बड़े वर्ग के लोग मूर्ति पूजा के नाम पर फिजूल खर्च कर रहे हैं। मूर्ति पूजा करने के लिए कई गुंडों की टोलियां घर-घर जारकर चंदा लेते हैं। अगर अाप कम देते है या मना करते हैं तो विवाद करेंगे यहीं नहीं कई बार तो चाकूबाजी करेने में भी यह भक्तों की टोलियां नहीं चुकते। मानना पड़ेगा यहां आस्था के नाम पर कुछ भी हो सकता है। भले ही महानगरों में जगह की कमी हो, ट्रेफिक समस्या हो और अन्य समस्याएं हो, लेकिन मूर्ति स्थापना करेंगे ही। त्योहार या पूजा के लिए लाउड स्पीकर और डीजे बजाकर ईश्वर को खुश किया जाता है, कहीं ऐसा ताे नहीं कि हम लाउडस्पीकर से हास्पिटल के मरीजों को, स्कूल-कालेज के पढ़ने वालों को और आस-पास के लोगों को परेशान तो नहीं कर रहे हैं। वहीं दीपावली में फटाखे से पूरे शहर प्रदूषित हो रहे हैं। पहले गांवों को साफ-सुथरा और सादा जीवन के लिए जाने जाते थे, लेकिन यह धुंआ गांवों में भी पहुंच गई है। अब ग्रामीण भी जमकर आतिशबाजी करने लगे हैं। भले ही खाने के लिए रोटी न हो, पहनने के लिए कपड़े, लेकिन यह गरीब तबके के वर्ग फटाके जरूर खरीदेंगे। वहीं फटाके फोड़तें समय बच्चों के हाथ-पांव जल गया तो हो गया गरीबी में आटा गीला। दूसरी ओर शहरों में वायु और ध्वनि प्रदूषण होने के बाद भी लोग मूर्तियों, पूजा-पाठ और पटाखे में करोड़ों रुपए और प्रर्यावरण का नाश कर कर रहे हैं। अगर इस धन, समय और प्रयास को गरीबों की शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, कपड़े, आवास और अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए खर्च करे तो इस देश की तस्वीर क्यों नहीं बदलेगी

Sunday, 12 March 2017

होलिका दहन या पर्यावरण दोहन

देश भर में परम्परा के नाम पर पर्यावण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। जागरूक नागरिक भी होलिका दहन के लिए जंगल और अन्य जगहों से लकड़ी इकठ्ठा कर जलाते हैं। आज धीरे-धीरे जंगल का नाश होता जा रहा है। वहीँ कई प्रकार के जीव-जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं। पेड़-पौधे और हरियाली का नामो निशान नहीँ है। फिर भी हम क्यों पर्यावरण और खुद का नुकसान करने के लिए अड़े हुए है। गांव हो या शहर सभी गली चौक चौराहों पर होलिका दहन करके हम खुशियां मनाते हैं। जिसके लिए कई पेड़ों की बलि देनी पड़ती है। वही लकड़ी जलने से वायु भी दूषित होती है। जिससे फेफड़ो से सम्बंधित कई बीमारी का खतरा होता है। वही जली हुई राख तालाब और नदी में जाकर पानी को भी खराब करती है।
एक बात और समझ नहीँ आती कि हम कुछ दिन पहले 8 मार्च को महिला दिवस मना कर महिलाओं का सम्मान की बात करते है। लेकिन होलिका (महिला) को जला कर हम ख़ुशी मनाते हैं। ये कैसा समाज है ? इससे आने वाली पीढ़ी को हम महिलाओं के प्रति नफरत का संदेश देते हैं। हमे इस पुरानी रूढ़ि-परम्परा को खत्म कर पर्यावरण और समाज को बचाना होगा। क्यों न हम अब होलिका दहन बन्द करके होलिका चमन के नाम से पेड़ लगाए और महिलाओं के लिए प्रेम का संदेश दे कर हरियाली फैलाए।

Tuesday, 7 March 2017

आवाज

सभी जगह हो रहे हैं महिलाओं पर अत्याचार
कही भी सुरक्षित नहीँ
स्कूल, कालेज, गली, मोहल्ले, बाजार
कही दहेज की मांग
कही शोषण और बलात्कार
अब आ रही है आवाज
मांग रही है महिलाएं अपना अधिकार

महिलाओं ने खाई है कसम
पूरा हक लेकर ही लेगा दम
ये लड़ेगी नहीं रूकेगा कदम
बुराई का दुश्मन, अच्छाई का हमदम
अब आ रही है आवाज
मांग रही है महिलाएं अपना अधिकार।

Friday, 3 March 2017

आजादी

हमको चाहिए आजादी
देश के दलालों से 
मजदूर-किसान के 
खून चूसने वालों से 
अशांति और दंगा से 
जाति-धर्म के पंगा से

भ्रष्ट सरकार से 
महंगाई की मार से 
भक्षक हवलदारों से 
देश के गद्दारों से 
हमको चाहिए आजादी

गरीबों की भूख से 
अशिक्षा के दुःख से 
युवाओं की बेरोजगारी से 
नफरत की बमबारी से 
हमको चाहिए आजादी।

स्कूल बंद, दारू दुकान चालू

सरकार को शर्म आनी चाहिए दो साल पहले 3000 स्कूलों को युक्तियुक्तकरण के तहत बन्द कर दिए। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में जन आक्रोश देखने को मिला लेकिन सरकार ने इस पर कोई सुध नहीँ ली। अब शराबबन्दी की मांग प्रदेश भर में उठ रही है लेकिन सरकार 700 शराब दुकान को बंद करने के लिए तैयार नहीँ है।
अब राज्य में रमन ब्रांड शराब बिकेगी। इस बात को लेकर रमन और उनके मंत्री अपने आप को गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं। जबकि जनता इस बात को लेकर शर्मसार है। लोग चिंतित है कि 'धान के कटोरा' कही 'दारू के बोतल' न बन जाए। सरकार जनता की मौत से राजस्व कमाना चाहती है। इस राजस्व का मोह छोड़ने के लिए तैयार ही नहीँ है। मुख्यमंत्री लोगों को बैकुफ बनाने के लिए बार-बार कह रहे हैं कि सरकार शराबबन्दी की ओर बढ़ रही है। तो मैं पूछता हूं क्या शराब बिकना बन्द हुई ? क्या शराब दुकान बंद हुई ? और न ही शराब की दुकान में कटौती हुई है राजमार्ग की दुकान को आबादी क्षेत्र में लगाने के लिए और सरकार खुद शराब बेचने के लिए अड़ी है।  सरकार कह रही है उचित समय में शराबबन्दी करेंगे तो क्या जनता मौत के मुँह में समा जायेगी तब उचित समय आएगा। जनता को मारकर विकास की बात करना शोभा नहीँ देती। आज सभी पार्टी जनता की भलाई छोड़ कर अपनी राजनीति की रोटी सेकने में लगी हुई है, एक-दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालने में पूरी ताकत झोंक दी है। अगर यही ताकत जमीनी स्तर में काम करने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी और अन्य मूलभूत सुविधा के लिए लगाते तो निश्चित ही छत्तीसगढ़ की तस्वीर बदल जाती। गांव में एक अच्छा नियम है जो शराब बेचता है, तो उसे ग्रामीण बहिष्कृत कर गांव से बाहर निकाल देते हैं। इसी प्रकार अब जनता को सोचना है कि जो सरकार पुरे छत्तीसगढ़ में दारू बेच रही है उसको क्या सजा देनी है ?

Sunday, 19 February 2017

लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज : ममता

लोकगीत के बारे में जानने के लिए छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला लोकगायिका पद्मश्री ममता चन्द्राकर से बातचीत की गई। वे छत्तीसगढ़ की पहली हस्ती हैं जिन्हें लोकगायन के क्षेत्र में पद्मश्री सम्मान मिला। वर्तमान में ममता चन्द्राकर आकाशवाणी रायपुर में निदेशक के पद पर पदस्थ हैं। वे चार दशक से ज्यादा समय से छत्तीसगढ़ी लोकगीत गा रही हैं। वे लोकगीत के लिए मशहूर हैं। जब भी सुआ, गौउरा-गउरी, बिहाव, करमा, और ददरिया कही बजता है तो उसमें ममता चन्द्राकर के गीत जरूर सुनाई पड़ते हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत -

- लोकगीत आप किस गीत को मानते हैं ?
पारम्परिक गीत जो लिखित न हो, वहीँ लोकगीत है। ये गीत जन-जन में व्याप्त होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले होते हैं। यह ज्यादातर मौखिक होते हैं, लिपिबद्ध नहीँ होते हालांकि अब लिपिबद्ध करने लगे हैं।

- लोकगीतों की उतपत्ति के विषय में अपने विचार बताइए ?
लोकगीत जनसमूह के अंतस की आवाज है। यह गीत जब लोक या समूह में व्याप्त हो जाए और परम्परागत चलते रहे। लोकगीत की उत्पत्ति जनसमूह में गुनगुनाया जाने वाले गीत ही लोकगीत का रूप धारण कर लेते हैं।

- लोकगीतों से सामाजिक जीवन कितना प्रभावित हुआ है ?
लोकगीत हमेशा से लोगों के जीवन में खुशियां और सकारात्मक विचार पहुंचाने में सक्षम रहे हैं। लोकगीत के माध्यम से लोग जागरूक भी हुए हैं। इस प्रकार आज भी इसे संचार के प्रभावी और सशक्त माध्यम मान सकते हैं।

- क्या लोकगीतों में बदलाव आते हैं ?
हां, बिलकुल, लोकगीत समूह के गीत होते हैं और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले गीत है। जब समूह की भाषा या बोली और जीवन शैली में परिवर्तन आते हैं, तो लोकगीत में बदलाव होना स्वभाविक है।

- लोकगीतों को बचाए रखने के लिए क्या करना चाहिए ?
लोकगीतों के संग्रहन करने की आवश्यकता है। लोकगीतों को स्कूली शिक्षा में शामिल किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में शोध कार्य से भी इसके बारे में समझा और जाना जा सकता है।

Thursday, 16 February 2017

दारू ह लिही परान

ये भइया मोर बात ल तै मान 
दारू ह लिही एक दिन तोर परान 
डउकी-लइका मरत हे भूख म 
सुते हस गली म, घर के कईसन सियान 
कुकुर सुंघत अउ मुँहू म मूतत हे 
सूरा बरोबर सुते हस, नई हे तोला धियान
कइसे घर-बार चलही
कइसे नोनी-बाबू ह पढ़ी 
कइसे जिनगी सम्हरही नइहे तोला ग्यान
घर के जम्मो खेत ल बेचेस
बेच डरेस महतारी के जेवर-गहना ल
ददा रोज दिन बरजत हे
फेर नई मानस ओकर कहना ल
अतका सुघ्घर जांगर हे 
बुता-काम करे बर काबर पड़त हे जियान 
अब आज ले किरिया खाले संगवारी
नई पियन कभू दारू ल 
तभे होही तोर नवा बिहान।

लोकगीत निरंतर बहने वाली नदी के समान : लक्ष्मण मस्तुरिया

गीतकार, लेखक, कवि और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया का जन्म 7 जून 1949 को ग्राम मस्तूरी, जिला बिलासपुर में हुआ। वे छात्र जीवन से ही लेखन कार्य में लगे हुए हैं। छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक जागरण मंच 'चंदैनी गोंदा' के सर्वाधिक गीतों के सर्जक और 'देवार डेरा', 'कारी' लोकमंच के गीतों के रचयिता। रायपुर दूरदर्शन से प्रसारित धारावाहिक लोकसुर के निर्माता। उनके गीत 'मोर संग चलव रे' ने छत्तीसगढ़ में अलग पहचान बनाई है। उनसे लोकगीत को लेकर हुई बातचीत प्रस्तुत है -
लोकगीत की शुरुआत के बारे में बताइए ?
- लोकगीत की शुरुआत बहुत पहले से हुई है, जब समाज बना तभी से लोकगीत बना। तुलसी के दोहे से पहले भी लोकगीत थे। उस समय तुलसी दास ने "बन निकल चले दोनों भाई" गीत को लोकगीत कहा है। फिर इसी प्रकार लोग तुलसी और कबीर के गीतों और पदों को लोकगीत मानने लगे। इसके बाद जो संस्कार के गीत जैसे विवाह, सोहर और अन्य गीतों को लोकगीत की श्रेणी में रखे।
लोकगीत आप किस गीत को मानते है ?
- जो जनसमूह के साधारण और सरल गीत हैं, वह लोकगीत है। इसमें भाषा और व्याकरण जैसी बंदिशे नहीँ होती। लोकभाषा से ही लोकगीत बनता है। जो गीत लोगों में व्याप्त हो और अधिक प्रसिद्धि पा लेता है वही लोकगीत है। जब कोई मनोरंजन के साधन नहीँ होते थे, तब समुदाय में उत्साह और ख़ुशी के लिए गाना गाए जाते थे। इस प्रकार गीत समुदाय में व्याप्त हो जाते थे। वैसे तो लोकगीत बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी है।
लोग आपके गीतों को लोकगीत मानते है। क्या आप मानते है ?
- मैं अपने गीतों को कैसे लोकगीत कह सकता हूँ। यह तो लोक या समुदाय तय करता है। मैंने तो बस देवार डेरा के जो गीत थे उसको सुधार कर सार्थक और प्रभावी बनाया है। अगर लोग मेरे गीतों को लोकगीत मानते है, तो लोकगीत है क्योंकि लोकगीत लोगों के ऊपर निर्भर करता है। जब समुदाय के द्वारा कोई गीतों को स्वीकार लेते है वही लोकगीत है।
देवार डेरा के गीतों को सुधारने की जरूरत क्यों महसूस की ?
- पहले देवार डेरा के गीतों में भाषा और अन्य कई कमियां थी। लोगों को समझ नही आता था। जैसे 'दौना म गोंदा केजुआ मोर बारी म आबे काल रे' को सुधार कर 'चौरा म गोंदा रसिया मोर बारी म' किया। इसी प्रकार से 'चन्दर छबीला रे बघली ल' सुधार कर 'मंगनी म रे मया नई मिलय रे मंगनी म' किया।
गीत लेखन और गायन के क्षेत्र में कब से कार्य कर रहे हैं ?
- वैसे तो 1960 से गीत और कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। वही 1971 से पूर्ण रूप से इस कार्य में लगा। उस समय कृष्ण रंजन, पवन दीवान और मैं शिक्षक थे। फिर मैं शिक्षक की नौकरी छोड़कर 'चंदैनी गोंदा' मंच से जुड़ गया। इसके बाद मैंने देवार डेरा के गीतों को सुधारने का भी कार्य किया। इसके अलावा कारी लोकनाट्य में भी बहुत से गीतों का सृजन किया। उस समय सभी छत्तसगढ़ी के लिए निस्वार्थ कार्य करते थे।
आप कितने गीतों की रचना किए और गाए ?
- वैसे तो मैं गाना बहुत कम गाया हूं। मोर संग चलव रे, बखरी के तुमा नार, मे छत्तीसगढ़िया अव, चल गा किसान असाढ़ आगे, मन काबर आज तोर उदास हे और कुछेक गाना। वही लगभग 300 से ज्यादा गीतों की रचना हुई है। मेरे गीतों को कई फिल्मों में शामिल किए और कई गायकों ने गाए। 
पहले के गीतों में और अब के गीतों में क्या बदलाव देखते है ?
- बदलाव आया है। पहले के गीतों में सन्देश हुआ करते थे, लेकिन आजकल के गीतों में सन्देश तो छोड़ो कुछ समझ  नहीँ आता। आजकल व्यवसायिक ज्यादा हो गया है। गीत के नाम से कुछ भी परोसा जा रहा है।